…तो शायद ही आज हरिद्वार होता!

वर्ष 2018 में मशहूर पर्यावरणविद्, इंजीनियर, वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी सानंद (प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल) को गंगा की अविरलता के लिए आन्दोलन करना भारी पड़ा और उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी। उत्तराखंड में लोहारीनाग-पाला और भैरोंघाटी में बनने वाली जल विद्युत परियोजनाओं के वे िखलाफ थे। उन्होंने कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिलकर गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए रिपोर्ट तैयार कर सरकार को दी थी, पर वे स्वयं इसका उत्तर नहीं पा सके।

पर्यावरणविद्, धर्माचार्य और चिंतक ऐसा मानते हैं कि बिजली पैदा करने के लिए गंगा और सहायक नदियों पर बाँध परियोजनाएँ उचित नहीं हैं। इन परियोजनाओं के कारण पर्वतीय क्षेत्रों के वनों का नुकसान हो रहा है। जानकारों का कहना है कि उत्तराखंड में बांध और बिजली परियोजनाओं की मार उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, पिथौरागढ़, टिहरी •िालों पर पड़ी है। नदियों को जिन सुरंगों के माध्यम से बाँधों तक पहुँचाया गया है, वे कई किलोमीटर तक लम्बी हैं और कच्चे पहाड़ों को खोदकर बनायी गयी हैं। भागीरथी घाटी का क्षेत्र अतिसंवेदनशील होने के कारण वहाँ बड़े निर्माण करना उचित नहीं है। गीता प्रेस के विशेषांक गंगा अंक में प्रकाशित लेख ‘गंगा के अस्तित्व को देवभूमि के 450 बाँधों से खतरा’ में कहा गया है कि कुछ बाँध जैविक विविधता वाले 2200 से 2500 मीटर के शीर्ष पर्वतों पर स्थित हैं। ये क्षेत्र मूल रूप से हिमनद और संवेदनशील पर्यावरण के लिए सघन क्षेत्र में आता है। इस क्षेत्र में वर्षा होने पर भारी संख्या में पर्वतों से भू-स्खलन और रेत गिरने का संकट पैदा होता रहता है, जिससे हिमालयीय हिमनद पीछे खिसकने को विवश होते हैं। ऐसे में ये बाँध इस क्षेत्र में तबाही का तांडव मचाते हैं, जैसा कि उत्तराखंड में वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी के रूप में सामने आ चुका है।

प्रकृति से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि इस त्रासदी का मूल कारण हिमालय जैसे संवेदनशील पर्वत पर गंगा नदी पर बाँध बनाने के लिए पहाड़ों का कटना, सुरंगें निकालना, जल-विद्युत परियोजनाएँ और वनों का कटना है। टिहरी बाँध के कारण उस भू-भाग में अनेक प्रकार की वनस्पति और दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ खत्म हो गयीं। इसके अलावा अन्य कई कारणों से पर्यावरण पर भी प्रतिकूल असर पड़ा। पर्यावरणविद् विमल भाई आज की जीवन शैली को पर्यावरण विरोधी मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रकृति सहती रहती है लेकिन जब स्थितिया हद पार कर जाती हैं, तो वह प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं। उत्तराखंड में गंगा ने रौद्र रूप दिखाया और मकान, वाहन, पशु, इंसान सबको बहाकर ले गयी। हमने नदी को तबाह किया और फिर नदी ने किसी को नहीं बख्शा।’ इसलिए बाँध जैसी बड़ी योजनाओं पर विस्तार से चर्चा और चिंतन करके प्रकृति-सम्मत समाधान आज के समय की माँग है। अगर टिहरी बाँध टूटता है, तो केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के एक दस्तावेज़ के अनुसार, नुकसान इस तरह हो सकता है-

गंगा अंक में प्रकाशित ‘अगर टिहरी बाँध टूटा तो’ जानकारी में अमेरिकी भूकंपवेत्ता प्रोफेसर ब्रने के हवाले से कहा गया है कि यदि उनके देश में यह बाँध होता, तो इसे कदापि अनुमति न मिलती; क्योंकि यह बाँध भारतीय विशेषज्ञों ने तैयार किया है, रिएक्टर स्केल पर 9 की तीव्रता का भूकम्प ही सहन कर सकता है। इससे अधिक तीव्रता का भूकम्प आया तो यह धराशायी हो जाएगा। इस बाँध के टूटने पर समूचा आर्यावर्त, उसकी सभ्यता नष्ट हो जाएगी। हरिद्वार और ऋषिकेश का तो नामोनिशाँ ही न बचेगा।’

शास्त्रों में नदियों को विराट पुरुष की धमनियाँ कहा गया है; माने नदियों के प्रवााह को अध्यात्म की यात्रा के संकेत के तौर पर लिया गया है। विद्वानों की मानें तो गंगा की पापनाशक क्षमता के पीछे गंगा का अखण्ड जल-प्रवाह है। प्राचीन भारतीय संस्कृति इस पक्ष का समर्थन नहीं करती कि गंगा के पावन जल-प्रवाह को किसी भी अकृत्रिम ढंग से बाधित किया जाए। लोक हित में गंगा का अखण्ड जल-प्रवाह की कल्याणकारी है। नदी को ज्योति, इस ओर पवित्रता की धारा में देखा गया है।

नदी के अखण्ड जल-प्रवाह को इस आख्यान से समझा जा सकता है। वैदिक संस्कृति में गोविन्द चन्द्र पाण्डेय लिखते हैं कि ‘नदियों के जन्म का आख्यान इन्द्र के प्रधान पराक्रम से जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथा के अनुसार, वृत्र ने एक समय जल को पर्वत की गुफा में छुपा दिया था और नदियों के प्रवाह को रोक दिया था, जिससे सारा विश्व त्राहि-त्राहि कर उठा। गंगा के जल से देवताओं के यज्ञकर्म और अनुष्ठान सम्पन्न होते थे। इन्द्र ने वृत्र पर अपने वज्र के प्रहार से अवरुद्ध हुई नदियों के जल को फिर से प्रवाहित किया था। गंगा पर बाँध बनाने के सवाल पर वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और प्रकृति विज्ञानियों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ छोटे बाँधों का समर्थन करते हैं, तो कुछ बड़े बाँधों की उपयोगिता बताते हैं। दिल्ली के मौसम वैज्ञानिक डॉ. आनन्द शर्मा छोटे बाँधों के पक्षधर हैं। उनका कहना है कि इससे एक तो पर्यावरण को •यादा नुकसान नहीं होता, दूसरा लोगों का पलायान कम होता है। इसलिए छोटे बाँध ही बनाये जाने चाहिए।

सिंचाई विभाग, उत्तराखंड के चीफ इंजीनियर (मैकेनिकल) एन. के. यादव छोटे बाँधों को ‘रन ऑफ द रिवर’ कहते हैं। इनमें 24 घंटे का पानी स्टोरेज भी नहीं है। उनके अनुसार जल भण्डारण के लिए बड़े डैम ज़रूरी हैं। गंगोत्री से मनेरी तक अविरल गंगा के मुद्दे पर यादव का कहना है कि वहाँ कोई भी डैम नहीं है। वहाँ पर जो प्रोजेक्ट बने हुए हैं रन ऑफ द रिवर हैं। उनका तो यह कहना है कि जो लोग बाँध बनाने का विरोध करते हैं, अगर उनको गंगा की इतनी चिन्ता है और बिजली के पॉवर प्रोजेक्ट नहीं चाहते, तो वे कुटिया बनाकर रहें। बिना बिजली कनेक्षन के रहें, बिना एसी गाडिय़ों के चलें।’ यादव कहते हैं कि जब समय का परिवर्तन हो चुका है, तो उन्हें स्वीकार करना होगा। आज के लिए विद्युत-उत्पादन उतना ही ज़रूरी है, जितना कि अन्न उत्पादन। उन्होंने तर्क दिया कि पहले 1962 तक हमारा देश गेहूँ का आयात करता था; लेकिन आज निर्यात होता है। सिंचाई के साधन बढ़े, फसल बढ़ी और अन्न उत्पादन बढ़ा है। अगर पानी का उपयोग मानव के लिए नहीं होता, तो इसे भी अपरध ही कहा जा सकता है।

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान रुडक़ी के वरिष्ठ वैज्ञानिक एम.के. गोयल गंगा पर बाँध न बनाने को लेकर मेरे सवाल पर अपना सवाल करते हैं- ‘आप अपने घर की छत पर टैंक क्यों बनाते हो? जब घंटे-दो घंटे ही सरकारी पानी की सप्लाई आये, उस पर निर्भर रहो। लेकिन वे समझाते हैं कि नदियों पर बाँध बनाना उचित है। डॉ. गोयल कहते हैं कि अगर टिहरी बाँध न होता, तो शायद ही आज हरिद्वार होता। वर्ष 2013 की उत्तराखंड में आयी बाढ़ की त्रासदी की समय टिहरी बाँध खाली था; लेकिन पानी का बहाव 26 मीटर तक था। उनका कहना है कि छोटे बाँधों से लाभ नहीं है। खर्च अधिक, विस्थापन अधिक होता है; लेकिन बड़े बाँध एक बार की लागत से बन जाते हैं। तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या का हवाला देते हुए उनका कहना है कि जनसंख्या की बढ़ती माँगों की पूर्ति के लिए विकास चाहिए। गंगा की धारा अविरल कैसे रहे? बीच का रास्ता क्या हो? इस पर व्यवस्था के साथ ही विकास होना चाहिए।

ऋषिकेश      80 किमी     63 मिनट     250 मीटर

हरिद्वार 104 किमी    80 मिनट     232 मीटर

बिजनौर 179 किमी    4 घंटे 45 मिनट     17.72 मीटर

मेरठ  214 किमी    7 घंटे 25 मिनट     9.85 मीटर

हापुड़  246 किमी    9 घंटे 50 मिनट     8.78 मीटर

बुलंदशहर     266.5 किमी   12 घंटे 8.5 मीटर