तालाबन्द घरेलू हिंसा

लॉकडाउन का मूल मकसद सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस) की अनिवार्यता है। कोरोना वायरस से बचाव के लिए फिलहाल इसका पूरे ज़ोर-शोर से पालन हो रहा है। ऐसे में इस लॉकडाउन के दौरान परिवार के सभी सदस्य लगभग एक महीने से कमोबेश साथ-साथ ही हैं। बिना किसी काम या अनुमति के चूँकि घर से बाहर निकलना कानूनन गलत है और पुलिसिया कार्रवाई भी हो रही है। अक्सर देखा जाता है कि जब आदमी के पास काम न हो और रोज़गार आदि पर भी संकट मँडरा रहा हो, तब घरेलू कलह और हिंसा में बढ़ोतरी हो जाती है। तो क्या लॉकडाउन के समय में भी सामान्य दिनों के मुकाबले घरेलू हिंसा की घटनाएँ घट रही हैं या फिर इनका विस्तार हो रहा है?

लॉकडाउन अवधि के दौरान पंजाब, हरियाणा और पड़ोसी राज्य राजस्थान में मिली शिकायतों के आधार पर कहा जा सकता है कि शिकायतों की संख्या कम हुई है; लेकिन घटनाएँ कम हुई हैं, इस बारे में नहीं कहा जा सकता। ये शिकायतें ईमेल, फोन या अन्य माध्यमों से आयोग तक पहुँच रही हैं। सामान्य दिनों मेें पीडि़त पक्ष सीधे तौर पर आयोग तक पहुँच करता है।

अभी शिकायतों की स्थिति जस-की-तस है, क्योंकि मौज़ूदा हालात में कार्रवाई सम्भव नहीं है। हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष प्रतिभा सुमन के मुताबिक, सामान्य दिनों में राज्य में औसत तौर पर 200 से 250 शिकायतें आती हैं। मौज़ूदा स्थिति में संख्या में कमी हुई है, लेकिन इसकी वजह घटनाओं में कमी को नहीं, बल्कि पहुँच न सकने की विवशता हो सकती है। गम्भीर तरह के मामलों को सम्बन्धित उच्चाधिकारियों के पास भेजा जाता है और ऐसा हो भी रहा है। बाकी शिकायतों के बारे में कामकाज की स्थिति सामान्य होने पर संज्ञान लिया जाएगा।

पंजाब में भी कमोबश ऐसी ही स्थिति है, लेकिन वहाँ संख्या हरियाणा की अपेक्षाकृत कुछ ज़्यादा है। पंजाब महिला आयोग की अध्यक्ष मनीषा गुलाटी की राय में शिकायतों का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। स्थिति के मुताबिक संख्या में कमी आ सकती है, लेकिन हालात तो वही हैं। वैसे चौबीसों घंटे साथ रहने की स्थिति बिल्कुल अलग है। ऐसा कभी हुआ नहीं था और न ही इसके बारे में किसी ने कल्पना की होगी। जहाँ पहले से ही घरेलू हिंसा की ज़मीन तैयार थी, वहाँ स्थिति अब भी कमोबेश वैसी ही होगी। मजबूरी के चलते साथ-साथ, लेकिन अलग की मनोवृत्ति कहीं-न-कहीं खुन्नस के रूप में उभरती है।

देश में घरेलू हिंसा की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ रही है। इसकी वजह महिला आयोगों की स्थापना और सशक्तिकरण होना है। जागरूकता की कमी और मामले सार्वजनिक होने के डर से कई शिकायतें बाहर नहीं आती। ऐसे मामलों का नतीजा घुट-घुटकर किसी तरह ज़िन्दगी बिता देना या फिर कोई आत्मघाती कदम उठाने तक रह जाता है। दहेज प्रताडऩा से लेकर यौन उत्पीडऩ या फिर छिटपुट विवाद का बड़ा मसला बन जाने जैसे कई कारक हैं।

मनोविज्ञान कहता है कि लम्बे समय तक साथ रहने से छोटे-मोटे विवाद दूर होने की ज़्यादा सम्भावना है। इस दौरान संवाद की गुंज़ाइश बहुत ज़्यादा होती है। पूरा समय रहता है, जिससे मुद्दे की तह तक पहुँचना ज़्यादा आसान होता है। सामान्य दिनों में ऐसा नहीं हो पाता। ज़रा की बात पर छोटा विवाद बड़ा हो जाता है और एक पक्ष घर से बाहर चले जाने पर विवश हो जाएगा। लॉकडाउन में ऐसा सम्भव नहीं है। लिहाज़ा हल की उम्मीद कुछ ज़्यादा बढ़ जाती है। इसके दूसरे पहलू पर विचार करना भी ज़रूरी होगा। अगर विवाद ज़्यादा बढ़ गया तो क्या हो? चूँकि अब बाहर जाना सम्भव नहीं, फिर लम्बे समय तक के लिए तो सोचा भी नहीं जा सकता। सामान्य दिनों में परिवार के सभी सदस्य हर समय साथ नहीं होते लिहाज़ा कोई मध्यस्थता नहीं करता। मौज़ूदा स्थिति में यह सम्भव है। निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि लॉकडाउन की विशेष अवधि में मामलों में कमी आने का यह भी एक कारण हो सकता है। इसे स्थायी हल नहीं कहा जा सकता है, लेकिन हालातों को देखते हुए यह राहत भरा कदम तो है।

कल्पना (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि उन्हें पति से कई मुद्दों पर गम्भीर गिला शिकवा है। छिटपुट मुद्दों पर हाथ उठाने की प्रवृत्ति से तंग हूँ। गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह चला रही हूँ, लेकिन कब तक इसे नहीं जानती। ससुराल वाले भी मेरी बातों से ज़्यादा उनके कहे पर भरोसा करते हैं। दोनों पक्षों की कई बार पंचायत हो चुकी है, लेकिन स्थिति में कमोबेश कोई सुधार नहीं है। अब बच्चे बड़े हो रहे हैं। मामला सार्वजनिक होने और सामाजिक बदनामी के डर से कभी कहीं शिकायत नहीं की।

वैसे इस समस्या का स्थायी हल भी नहीं है। आपसी विवादों को मिल बैठकर बिना किसी पूर्वाग्रह के दूर किया जा सकता है। लॉकडाउन ने शायद इसकी भूमिका तैयार कर दी है। पिछले 20 से ज़्यादा हो गये, हम लोग साथ-साथ हैं। इस दौरान किसी मुद्दे पर बहस तक नहीं हुई। पुराना कोई विवाद उभरा नहीं, अगर कोई सामने आया तो भी उसे ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया। घरों में बन्द रहने की यह बेबसी उनके लिए तो एक मायने में ठीक ही है, क्योंकि इससे रिश्तों में आयी दरार कुछ हद तक पाटी जा सकी है। घरों में बन्द रहने की मजबूरी के चलते हर किसी की िकस्मत शायद कल्पना जैसी न हो।

लॉकडाउन की अवधि में घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों में कमी आनी चाहिए। इसके लिए बहुत से कारण है। इस दौरान परिवार के सभी सदस्य साथ हैं। अगर बात करें संयुक्त परिवार की तो फिर स्थिति में सुधार की गुंजाइश और भी ज़्यादा है। बड़े बुजुर्ग किसी भी छोटे-मोटे विवाद को दूर करने में अहम भूमिका निभा सकता हैं। सामान्य दिनों के मुकाबले अब स्थिति कुछ अलग है। हर व्यक्ति कोरोना वायरस से भयभीत है। अन्य देशों से मौत के भयावह आँकड़ों से सिहरन-सी दौड़ जाती है। ज़िन्दगी बहुत ही छोटी-सी लगने लगती है। वायरस के डर से मौत के बाद शव न लेने जैसी घटनाओं ने एक वर्ग को ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया बदलने पर विवश-सा कर दिया है।

यह सब स्थायी तो नहीं है। सम्भव है महामारी निकलने के बाद फिर से वैसे ही हालात होने लगें। लेकिन यह तय है कि इसने बहुसंख्यक वर्ग की सोच को बदल दिया है। ऐसे में घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों की संख्या बढऩे के मुकाबले उनमें कमी आने की सम्भावना ज़्यादा प्रतीत होती है। हरियाणा में लगभग एक माह के दौरान 100 से भी कम शिकायतें आयी हैं। यह संख्या सामान्य के मुकाबले आधे से भी कम है। इनमें भी ज़्यादातर मामले गम्भीर प्रवृत्ति के नहीं है। इसलिए उन्हें हल करना आसान माना जा सकता है।

राजस्थान राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुमन शर्मा का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की घटनाओं के कम या ज़्यादा होने का अभी कोई पैमाना नहीं है। आयोग के पास सामान्य दिनों में 10 से 12 शिकायतें आती थीं। महीने का औसत 300 या इससे ज़्यादा होता था। शिकायतों में लगभग हर तरह के मामले सामने आते हैं, जिनमें कुछेक गम्भीर होते हैं।

राजस्थान कोराना से बहुत ज़्यादा प्रभावित है। हर व्यक्ति मौत से सहमा हुआ है, ऐसे में घरेलू हिंसा का होना भी अपने में बड़ा सवाल है। मौज़ूदा हालात में आयोग के पास बहुत कम शिकायतें आयी हैं। सरकारी कर्मचारी और अधिकारी शासन के हिसाब से काम कर रहे हैं। ईमेल और फोन के माध्यम से बहुत कम शिकायतें आयी हैं, इनमें कुछेक तो लड़ाई झगड़े आदि की हैं, जिन्हें स्थिति सामान्य होने के बाद देखा जाएगा। वैसे अभी का समय घरेलू हिंसा को अंजाम देने की बजाय अपनी और अपनों की जान की सुरक्षा में लगने का है।

पहले महामारी की मार से तो बचा जाए, उसके बाद ही कुछ सोचा जा सकता है। इसे लोग भी अच्छी तरह से समझ रहे हैं। संयुक्त तौर पर साथ रहने से कई तरह के विवाद दूर हो सकते हैं। क्योंकि अभी पुलिस बल लोगों की निगरानी में लगा है। ऐसी कल्पना शायद किसी ने नहीं की होगी कि घर की चहारदीवारी के भीतर इतने लम्बे समय तक पूरे परिवार को साथ रहना होगा। अभी कुछ कहना मुश्किल है यह अवधि कितनी होगी।

मौज़ूदा हालात में घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों में की इस कमी को कैसे देखा जाएगा? यह तो स्थिति के सामान्य होने पर फिर से ज़िन्दगी के ढर्रे पर आने के बाद ही पता चल सकेगा।