ताबूत की आखरी कील बठिंडा थर्मल प्लांट बन्द

हर गाँव, कस्बे या शहर की कोई-न-कोई पहचान होती है। कहीं-कहीं उन्हें इनका पर्याय भी माना जाता है। ऐसा ही पर्याय विगत चार दशक से पंजाब के बठिंडा शहर के लिए जहाँ स्थित गुरु नानक देव थर्मल पॉवर प्लांट बन चुका है। अपनी समय अवधि पूरी होने, ज़्यादा लागत और अन्य कई अहम कारणों के चलते जहाँ उत्पादन बन्द हो चुका है। सितंबर 2017 में इसे बन्द करने की शुरुआत हो गयी और कुछ माह बाद जहाँ उत्पादन रुक गया था। इसे बन्द करने की नौबत क्यों आयी इसके पीछे उक्त कारणों के अलावा कुछ राजनीतिक भी है; लेकिन सरकारें कभी उनको ज़्यादा महत्त्व नहीं देतीं। निजीकरण की प्रक्रिया सरकारी क्षेत्र के उपक्रम बन्द होने की प्रक्रिया चलती रहती है और इनका पुरज़ोर विरोध भी होता रहा है।

बहरहाल बात देश के प्रवेश द्वार माने-जाने वाले बठिंडा में बड़ी इकाइयों के तौर पर नेशनल फॢटलाइजर और रिफाइनरी भी हैं; लेकिन पहचान कोयले से चलने वाले थर्मल प्लांट ने दिलायी। जहाँ स्थित चार चिमनियाँ लोगों के लिए चार मीनार जैसी ही हैं। प्लांट बन्द होने के बाद सैकड़ों एकड़ भूमि का क्या इस्तेमाल किया जाएगा। रोज़गारपरक कोई बड़ा उद्योग जहाँ स्थापित होता है, तो बात अलग; लेकिन कारोबारी नज़रिये से भूमि का इस्तेमाल होगा, तो यह लोगों की भावनाएँ आहत करने वाला होगा।

करीब चार दशक से इस शहर की पहचान बन चुके गुरु नानक देव थर्मल प्लांट के बन्द होने के बाद इसके वज़ूद को ही खतरा है। इस दौरान थर्मल प्लांट की धुआँ उगलने वाली चार चिमनियाँ शहर की पहचान बन चुकी थीं। सडक़ या रेल मार्ग से इन चिमनियों को देखकर कई किलोमीटर पहले ही पता चल जाता था कि बठिंडा आने वाला है। लगभग 122 मीटर ऊँची चार चिमनियाँ दूर से ही किसी कौतूहल जैसी लगती थी। रात के समय भी इनका पता चलता था। थर्मल प्लांट ने पंजाब के मालवा इलाके को बहुत कुछ दिया; इतना कि यह जहाँ के लोगों की ज़िन्दगी का एक हिस्सा हो गया था। इसके शुरू होने के बाद मालवा इलाके में बिजली की िकल्लत दूर हुई। भरपूर बिजली आपूर्ति हुई, तो नलकूप लगने लगे। पानी आया, तो खेती को जैसे नयी जान मिल गयी। चावल की खेती पहले से ज़्यादा होनी सम्भव हो गयी।

थर्मल प्लांट ने शहर को जहाँ पहचान दी, वहीं मालवा इलाके को सम्पन्नता दी। वैसे शहर की पहचान िकला मुबारक है। लेकिन ऊँची बिल्डिंगों के चलते यह बहुत दूर से नज़र नहीं आता। नयी पीढ़ी के लोग थर्मल प्लांट को शहर की आन, बान और शान समझते हैं। बन्द होने के बाद करीब 1800 एकड़ में पसरे इस थर्मल प्लांट का भविष्य क्या होगा। इस ज़मीन का क्या उपयोग किया जाएगा। लोगों के मन में सवाल घुमड़ रहे हैं कि क्या ऊँची अट्टालिकाओं जैसी चिमनियाँ गिरा दी जाएँगी? जो अक्सर देखने के बाद आँखों को सुकून देती हैं।

गुरु नानक देव थर्मल प्लांट की चिमनियों से उठने वाले धुएँ की वजह से यह लोगों की आँखों की किरकिरी भी बना। शहर और आसपास के इलाकों में वायू प्रदूषण भी बहुत होता था। इसकी ज़द में आने वाले इलाकों में साँस और अन्य कई तरह की बीमारियाँ होने की वजह भी इसका धुआँ और उससे निकलने वाली राख को माना गया। तब बड़ा आन्दोलन भी चला। बाकायदा तौर पर थर्मल हटाओ-बठिंडा बचाओ जैसा आन्दोलन चला। लोग प्लांट को बन्द करने के पक्ष में नहीं थे; लेकिन वे चाहते थे कि ज़हरीले धुएँ और निकलने वाली राख को वैज्ञानिक तरीके से रोका जाए। समय रहते इस पर काबू नहीं पाया जा सका, तो यह शहर के लोगों के बहुत खतरनाक साबित होगा। हज़ारों लोगों ने इस अभियान में हिस्सा लिया। नतीजा यह रहा कि समस्या का काफी हद तक समाधान हो गया।

अभियान से जुड़े रहे एमएम बहल के मुताबिक, नब्बे फीसदी समस्या का समाधान हो गया। उसके बाद बाकायदा तौर पर प्लांट को लेकर किसी तरह का कोई विरोध नहीं हुआ। अब तो यह हमारे शहर की पहचान है, इसके वज़ूद को बनाये रखा जाना चाहिए। चिमनियों के अलावा जहाँ की झीलें और अन्य खूबसूरत स्थलों को दर्शनीय स्थल के तौर पर विकसित किया जाना चाहिए। सरकार इतने बड़े भू-भाग का क्या करेगी? अभी किसी को नहीं पता। वित्तमंत्री की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति ने इसके पूरी तरह से बन्द होने की सिफारिश के बाद इसके किसी भी तरह से शुरू होने की अटकलों पर अब विराम लग गया है।

 पीएसईबी इंजीनियर्स एसोसिएशन और गुरु नानक थर्मल प्लांट एंप्लाइज एसोसिएशन ने अपने तौर पर इसके बदस्तूर जारी रखने के लिए हरसम्भव प्रयास किये। धरने और प्रदर्शन तक किये। सरकार के लिए यह प्लांट अब घाटे का सौदा साबित हो रहा था। सरकार का पक्ष रहा कि प्लांट से हर वर्ष 1300 करोड़ का घाटा हो रहा है। आिखर कब तक घाटे में प्लांट को चलाया जा सकता है।

दोनों एसोसिएशनों ने सुझाव दिया कि इसकी दो यूनिटें चलायी जा सकती है। इसके लिए प्रस्ताव तैयार किया गया। विकल्प बायोमास और सोलर का दिया गया; लेकिन इसे मंज़ूरी नहीं मिल सकी। इंजीनियर्स एसोसिएशन के सचिव अजयपाल सिंह अटवाल की राय में इसे मंज़ूरी मिल जाती, तो यह चलता रहता। इससे चावल की फसल कटने के बाद बची पराली (भूसा) को जलाने की समस्या खत्म हो जाती, वहीं किसानों को अतिरिक्त आमदनी होती।

एंप्लाइज एसोसिएशन के प्रधान गुरसेवक सिंह संधू कहते हैं कि प्लांट तो काफी पहले बन्द हो चुका था; लेकिन दो यूनिटें शुरू करने के प्रस्ताव पर विचार चल रहा था। उम्मीद थी कि प्लांट फिर से शुरू हो जाएगा; लेकिन सरकार की मंशा इसे चलाने की नहीं थी और हम इस बात पर अडिग थे कि किसी-न-किसी सूरत में इसे शुरू कराया जाए। अब तो इसे बन्द करने का अंतिम फैसला हो गया है, जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और हमारे लिए यह किसी काले दिन जैसा ही है। हज़ारों लोगों को अपरोक्ष तौर पर रोज़गार मिला हुआ था। धीरे-धीरे यूनिटों के बन्द होने से वे लोग बेरोज़गार हो गये। अब ऐसे लोग दिहाड़ी या छोटा-मोटा काम करने को मजबूर हैं। प्लांट लगने के बाद मालवा इलाके की खूब तरक्की हुई। इसकी बदौलत नेशनल फॢटलाइजर जैसा बड़ा उद्योग यहाँ आया। हज़ारों लोगों को परोक्ष और अपरोक्ष तौर पर काम मिला। इसके बन्द होने के नतीजे सामने आने लगे हैं। कितने ही लोग प्लांट की वजह से अपनी आजीविका चला रहे थे। हमारी भावनाएँ इस प्लांट से जुड़ी हुई हैं। क्योंकि हम कर्मचारी हैं; लेकिन जो नहीं हैं, वे शहरवासी भी इसके बन्द होने से निराश हुए हैं। अब प्लांट का भविष्य क्या होगा? सरकार के अलावा कोई नहीं जानता। कभी सुनने में आता है कि सरकार इसे इंडस्ट्रियल पार्क या बड़े शांपिग कांप्लेक्स के तौर पर विकसित करेगी। होगा क्या? अभी कुछ ठोस रूप से नहीं कहा जा सकता है।

फिलहाल इसे पंजाब अर्बन डवलपमेंट अथॉरिटी (पूडा) को सौंपा गया है। प्लांट की ज़मीन को सरकार कारोबारी लिहाज़ से विकसित करती है, तो इसका विरोध होना स्वाभाविक है। गाँव कोठे कामे के जसकरण सिंह कहते हैं कि हमारे पुरखों ने प्लांट के लिए ज़मीन दी थी; लेकिन अब सरकार उस ज़मीन का क्या करेगी? अगर उसे बेचने का प्रयास किया गया, तो सभी लोग इसका विरोध करेंगे। इसमें ज़मीन वापस करने की माँग की जाएगी। बहुत-से छोटे किसान ज़मीन अधिग्रहण के बाद बेकार हो गये। सरकार ने प्लांट के लिए उनकी ज़मीन का अधिग्रहण तो कर लिया; लेकिन उनके भविष्य का पूरा बन्दोबस्त नहीं किया।

इसी गाँव के मंदर सिंह, तलविंदर सिंह और धर्मसिंह के पुरखों की ज़मीन सरकार ने प्लांट के लिए ली थी। बलदेव सिंह और जगदेव सिंह भी ऐसे ही लोगों में शामिल है। जसकरण याद करके बताते हैं कि उनकी नौ किल्ले (नौ एकड़) ज़मीन सरकार ने ली थी। ज़मीन का भाव छ: से सात हज़ार रुपये के करीब था। जहाँ ज़मीन कुछ अच्छी थी वहाँ भाव 10 हज़ार रुपये तक भी था। आज ज़मीन के भाव आसमान छू रहे हैं।

सरकार को हमारे बारे में भी कुछ सोचना होगा। हमारे बाप दादाओं ने ज़मीन क्या सरकार को ज़मीन कभी ऊँचे दामों पर बेचने के लिए दी थी। उन्होंने तो पंजाब के भले के लिए यह सब किया था। सरकार चाहती तो प्लांट को शुरू रख सकती थी, हमें कोई एतराज़ नहीं था; लेकिन हम ज़मीन को बिकते हुए नहीं देख सकते।

थर्मल प्लांट के लिए देसराज और किशन चंद की ज़मीन भी सरकार ने ली थी। उनके पास ज़्यादा ज़मीन नहीं थी; लेकिन देने के अलावा कोई चारा नहीं था। प्लांट शुरू हो गया; लेकिन दोनों के परिवारों के अच्छे दिन लद गये। अब उनकी तीसरी पीढ़ी के अशोक कुमार, करण सिंह, राजेंद्र सिंह और राम सिंह दूसरे काम कर रहे हैं। खेती तो ज़मीन देने के बाद ही धीरे-धीरे खत्म हो गयी थी। अब आजीविका के लिए कुछ तो करना ही था। कुछ तो रोज़ी-रोटी के लिए दिहाड़ी करने को मजबूर हैं। प्लांट के बन्द होने और ज़मीन के कारोबारी उपयोग में लाये जाने की खबरों के बाद वे भी सक्रिय होने का प्रयास करेंगे।

कुछ आर्थिक राहत या मुआवज़े का उन्हें भी इंतज़ार रहेगा। इसके लिए ऐसे लोग एकजुट होने लगे हैं। यह एक लम्बी प्रक्रिया होगी, जिसमें पैसा और समय दोनों खर्च होंगे; लेकिन बावज़ूद इसके उनकी तैयारी चलने लगी है।

गुरु नामक देव थर्मल प्लांट एंप्लाइज एसोसिएशन के प्रधान गुरसेवक सिंह की राय में अगर वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल चाहते तो प्लांट की दो यूनिटें चल सकती थीं। प्रस्ताव अच्छा और सभी के हित में था; लेकिन वह नहीं चाहते थे कि प्लांट किसी भी तरह से शुरू हो। वह बताते हैं कि जब राज्य में कांग्रेस सत्ता में नहीं थी, तो इन्हीं मनप्रीत बादल ने भरोसा दिया था कि पार्टी की सरकार बनने पर प्लांट को शुरू किया जाएगा।

सैकड़ों लोगों के सामने उन्होंने कहा कि जब वह बठिंडा से गुज़रते हैं, तो थर्मल प्लांट को बन्द देखकर उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। इसे शुरू कराने की उनकी प्राथमिकता रहेगी। कांग्रेस सत्ता में आ गयी, मनप्रीत बादल वित्तमंत्री बन गये, अब तो बहुत आसान था। लेकिन उलटा हो गया; अब वे इस बात पर अडिग हो गये कि प्लांट को किसी भी हालत में शुरू नहीं होने देना है।

कर्मचारी बताते हैं कि प्लांट बन्द करने के फैसले पर हम लोग व्यापक स्तर पर धरना-प्रदर्शन कर रहे थे। कांग्रेस तब विपक्ष में थी और सत्ता में आने की कोशिश कर रही थी।

इस दौरान मनप्रीत बादल धरना स्थल पर पहुँचे और बड़े भावुक अंदाज़ में हम लोगों का दिल जीत लिया। मनप्रीत ने सैकड़ों लोगों की मौज़ूदगी में कहा कि वह जब भी अपने पैृतक गाँव आते-जाते बठिंडा से गुज़रते हैं, तो प्लांट की बन्द चिमनियों को देखकर उनकी आँखें नम हो जाती हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सत्ता में आयी, तो प्लांट हर हालत में शुरू होगा और चिमनियाँ फिर से धुआँ उगलने लगेंगी। विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने इसे पार्टी घोषणा-पत्र में भी शामिल किया। लेकिन सत्ता मिलने के बाद इसे शुरू करने के बन्द कर दिया गया। कर्मचारी इसे पंजाब के साथ धोखा बता रहे हैं।

प्लांट बन्द होने के ढाई साल के दौरान कर्मचारियों का धरना-प्रदर्शन रह रहकर जारी रहा, ताकि किसी तरह प्लांट शुरू हो सके। आिखरकार तीन सदस्यीय उप समिति की बन्द करने की सिफारिश प्लांट के कफन की आखरी कील साबित हुई। इसके बाद मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने दो टूक कह दिया कि सरकार बठिंडा थर्मल पॉवर प्लांट को किसी भी हालत में शुरू नहीं कर सकती। जुलाई के पहले सप्ताह में जहाँ भारतीय किसान यूनियन (उग्राहन) के नेतृत्व में प्लांट गेट के बाहर धरना चल रहा था। जहाँ जोगिंदर सिंह (55) नामक किसान ने दम तोड़ दिया। कांग्रेस को छोडक़र अन्य विपक्षी दलों ने सरकार के इस फैसले को राज्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। वह इसे सरकार के निजीकरण की और बढ़ते कदम बता रहे हैं।

प्लांट का इतिहास

थर्मल प्लांट की नींव पत्थर नवंबर 1969 में रखा गया। इसे गुरुनानक देव थर्मल प्लांट का नाम दिया गया। सितंबर 1974 में 110 मेगावाट की इसकी पहली इकाई तैयार हुई। अगले साल सितंबर में 110 मेगावाट की दूसरी इकाई का काम भी पूरा कर लिया गया। 120 मेगावाट क्षमता की तीसरी इकाई मार्च 1978 में तैयार हुई, जबकि चौथी 120 मेगावाट की इकाई मार्च 1979 में पूरी हो गयी। उस दौरान इसकी लागत 115 करोड़ रुपये आयी। धुएँ के लिए 120 मीटर की दो और 122 मीटर की दो यानी कुल चार चिमनियाँ वज़ूद में आयीं; जो बाद में शहर की पहचान के तौर पर सामने आयीं। प्लांट को लगाते समय इसके अगले 40 साल तक चलाया जाना था; लेकिन अवधि पूरी होने से पहले इसे बन्द करने की नौबत आ गयी। वर्ष 2012 से 2014 के दौरान प्लांट के आधुनिकीकरण पर 716 करोड़ रुपये खर्च किये गये, ताकि इसकी उत्पादन क्षमता प्रभावित न हो सके। इतनी बड़ी राशि खर्च करने तीन साल बाद ही प्लांट को बन्द करने के प्रयास शुरू हो गये। बिजली उत्पादन में ज़्यादा लागत की वजह से इसे सफेद हाथी के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा। अंतत: प्लांट को बन्द करना ही पड़ा। कोयला आधारित सरकारी बिजली संयंत्रों में लहरा मुहब्बता में गुरु हरगोबिन्द सिंह थर्मल प्लांट और रोपड़ में गुरु गोबिन्द सिंह सुपर पॉवर थर्मल प्लांट काम कर रहे हैं। जिस तरह से निजी बिजली उत्पादन कम्पनियों को बढ़ावा मिल रहा है, उससे भविष्य में इनके बन्द होने के खतरे से इन्कार नहीं किया जा सकता।

पीएसईबी के प्रयास

पीएसईबी इंजीनियर्स एसोसिएशन के सचिव अजयपाल सिंह अटवाल के मुताबिक, एसोसिएशन ने प्लांट को चालू रखने के हर सम्भव प्रयास किये। बन्द होने के फैसले के बाद दो इकाइयों को चलाने का प्रस्ताव तैयार किया। पंजाब के पास बिजली की कमी है। सरकारी उपक्रमों से यह कमी दूर होगी निजी क्षेत्रों पर निर्भरता ठीक नहीं है। राज्य में आधी से ज़्यादा बिजली निजी क्षेत्रों से खरीदनी पड़ रही है। इस पर भारी भरकम राशि खर्च होती है। बठिंडा थर्मल पॉवर प्लांट की दो इकाइयों को बायोमास या सोलर ऊर्जा के तौर पर चलायी जा सकती थी। प्लांट के पास पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर है; इनके लिए ज़्यादा पैसा खर्च भी नहीं होना था। इससे खेत में पराली (भूसा) जलाने से आसपास के क्षेत्रों में जहाँ प्रदूषण की समस्या खत्म होती, वहीं किसानों को इससे आय होती। एसोसिएशन ने पूरा ब्यौरा सरकार के पास भेजा; लेकिन उसे मंज़ूर नहीं किया गया।

केवल आश्वासन मिले

गुरु नानकदेव थर्मल पॉवर प्लांट एंप्लाइज एसोसिएशन के प्रधान गुरसेवक सिंह संधू के मुताबिक, एसोसिएशन फैसले से बेहद नाराज़ है। सदस्यों में सरकार के प्रति खासी नाराज़गी है। उत्पादन बन्द होने के बाद से जुलाई के पहले सप्ताह तक कर्मचारी आन्दोलनरत ही रहे। धरना-प्रदर्शन करते रहे। लेकिन सरकार की मंशा इसे चलाने की नहीं थी। इसलिए उन्हें सफलता कहाँ से मिलती? प्लांट बन्द करने का फैसला ठीक नहीं इस पर फिर से विचार करने की ज़रूरत है। पक्के कर्मचारियों की नौकरी को सीधे तौर पर खतरा न होने की बात सरकार कहती है; लेकिन ठेके वाले लोग सडक़ पर आ जाएँगे। घाटे में होने की बात कह सरकारी उपक्रमों को बन्द करने से पंजाब में सरप्लस बिजली होने का दावा कागज़ों में ही रहेगा। निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना उचित कदम नहीं है। सरकार की मंशा होती, तो दो इकाइयाँ बहुत कम खर्च में चल सकती थीं। राजनीतिक दलों ने प्लांट शुरू करने के आश्वासन ही दिये; किसी ने इसके लिए गम्भीर प्रयास नहीं किये।