तांडव गायों का, रक्षकों का उन्माद!

राजस्थान में लगातार होतीं गायों की हिंसक घटनाएं ऐसी हैं जिस पर सरकारों की गुलेलबाजी साफ नजर आ रही है, कि ‘अच्छा! ऐसा कब हो गया? गाय चिढ़ गई होगी?ÓÓ निर्लज्जता का कवच पहने मेयर की यह खुंदकी तर्जुमानी उस बर्बर घटना पर थी, जिसमें राह चलती एक महिला पर गाय ने हमला कर उसे गंभीर रूप से घायल कर दिया। बाद में चीख-पुकार के बीच भी काफी देर तक वह उसे रौंदती रही। असल में ये घटनाएं ऐसे समय हो रही हैं जब गोरक्षा के नए बाजीगर अपना हुनर दिखाने पर आमादा हैं।

विवाद के ये दोनों केन्द्र राजनीति और धर्म की भेडिय़ा धसान के प्रतीक हैं और दोनों के रंग गहरे और तीखे हैं! एक की छाया निरापद आवागमन को स्याह करना चाहती है तो दूसरी साम्प्रदायिक सदभाव को डसने पर आमादा है और इन सबके बीच फंसी है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आशंका कि ‘लोगों ने गोरक्षकों के नाम पर दुकानें खोल ली हैं। गोरक्षकों के वेश में गुंडागर्दी की जा रही है।Ó भाजपा को ऐसे लोगों से खास सावधान रहना होगा।ÓÓ

राजस्थान में पिछले छह महीनों में सड़कों पर मटरगश्ती करती गायों की गुर्राहट में फंसकर दो दर्जन लोग जान गंवा चुके हैं और सैकड़ों उनके खुरों की ठोकरों से जख्मी होकर अस्पताल में पड़े रहने का दर्द भोग रहे हैं। इन घटनाओं की जड़ें नाकारा नगरीय सरकार की गफलत में खोजी जा सकती हैं जिसका मुखिया कहता है, ‘लोग खुद सावधान रहें, हमारे पास इसका कोई इलाज नहीं है। उधर गोरक्षा और ‘स्वच्छ भारतÓ अभियान के सन्निपात में राजस्थान की उन्मादी भीड़ ने दो जनों की निर्मम हत्या कर दी, एक को पीट-पीटकर अधमरा कर दिया और लंबा इलाज भुगतने की यंत्रणा दे दी। एक व्यक्ति को इसलिए मौत की खंदक में धकेल दिया गया कि वो फरागत के लिए खुले में शौच पर बैठा था। यह दरिन्दगी उन पालिका अधिकारियों ने दिखाई जिनका उत्तरदायित्व था कि वे शौचालय बनाकर देते? लेकिन ऐसा नहीं करके पता नहीं कौन से शौचालय में जाने का खुंदकी दबाव बनाए हुए थे? नतीजतन आहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक बार फिर दोहराना पड़ा कि ‘हम कैसे लोग हैं जो आपा खो रहे है। गायों के नाम पर लोगों को मार रहे हैं? इंसान को मारना कौन सी गोरक्षा है? इन घटनाओं पर राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि, ‘बड़े फलक पर तो हम सेकुलर हैं लेकिन देश के छोटे-छोटे हिस्सों में पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं?ÓÓ

आवारा गायों की हिंसा से बुरी तरह हिला हुआ राजस्थान का नाद नगरीय सरकारों की संवेदनशीलता को क्यों नहीं जगा पाता? तो इसलिए कि हंगामी हालात के बावजूद वे अनभिज्ञता के रोग से जकड़े हुए हैं। क्या नगरीय सरकार के मुखिया की कुर्सी पर ऐसे शख्स को बैठना चाहिए जो ‘मुझे पता नहीं, की बीमारी में जकड़ा हुआ हो?ÓÓ उनका यह नज़रिया उस बर्बर घटना पर था जिसमें पगलाई गायों ने सड़क पर जाने वाली एक महिला मधु कंवर को उठाकर फेंका और दस मिनिट तक अपने नुकीले खुरों से उसे रौंदती रही। वरिष्ठ पत्रकार बिजेन्द्र सिंह शेखावत का कहना है, ‘कोटा में चलना मौत के कुएं में बाइक चलाने से ज्यादा खतरनाक हो गया है।Ó शेखावत तंज कसते हैं कि, ‘क्या सड़कें सांडों और मटरगश्ती करने वाले आवारा पशुओं के लिए बनाई गई है? शहर के जागरूक लोगों का कहना है कि, ‘एक तरफ शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने की बात की जा रही है। दूसरी तरफ सड़कों पर साक्षात यमराज बेरोक-टोक विचरण कर रहे हैं। महिला पर गायों के हमले के प्रत्यक्षदर्शी निखिल गैरा का आंखों देखा हाल जिस्म में झुरझुरी पैदा करता है कि, ‘जिस तरह शादियों में घोड़ी डांस करती है, उसी तरह गुर्राती गाय महिला पर खुरों के बल पर नाच रही थी।ÓÓ आपराधिक घटनाओं के विश्लेषक कहते हैं, ‘यह साक्षात मौत का नाच था।ÓÓइन विध्वंसक घटनाओं का सबसे दुखद पहलू रहा कि नगरीय सरकारों के मेयर से लेकर अफसर तक ‘गायÓ को ‘गायÓ कहने से कतराते रहे। इसके पीछे राजनीतिक विवशता साफ नजर आ रही थी। झिंझोड़कर जगाने के बाद भी चलते-फिरते ‘आतंकÓका तात्कालिक हल तलाशने की बजाय कोटा के मेयर महेश विजय कह रहे हैं कि, ‘सर्वे कराकर करेंगे काम…..ÓÓ जिस दिन मेयर यह अपाहिज प्रतिक्रिया दे रहे थे, ठीक उसी दिन उनके अपने वार्ड में बेकाबू सांड ने एक व्यक्ति को चलती बाइक से धकेलकर बुरी तरह घायल कर दिया। इन मामलों में मेयर ही खतावार नहीं है बल्कि अफसर भी जुमलेबाजी के जाल में फंसे हुए हैं। कोटा नगर निगम के आयुक्त की बेबसी फिल्मी गीत,’मुहब्बत कर तो लें लेकिन मुहब्बत रास आए तो…..Ó के अंदाज में बिसूरती हुई बयां होती है कि आवारा पशुओं को पकड़ तो लें, लेकिन रखें कहां?ÓÓ निगम के समानान्तर संकाय ‘न्यासÓ ने गोशाला बनाकर देने की अर्जी यह कहते हुए दफ्तर दाखिल कर दी कि, ‘जमीन दे सकते हैं, गौशाला बनाकर क्यों दें? अब इन मामलों में जो ताजा तरक्की समझे तो,’सड़कों पर स्वच्छंद विचरते गाय- सांड बेधड़क घरों में घुसने लगे हैं। एक मकान के बाथरूम में घुसे पगलाए सांड को निकालना कितना भारी पड़ा ‘कहने की जरूरत नहीं?

उधर राजस्थान के अलवर जिले के निकटवर्ती कस्बे बहरोड़ मे ंपहलू खां की मौत की घटना तो आज भी सवालों के अंगारों में दहक रही है। हरियाणा से सटे मेवात का पहलू खां अपने साथियों के साथ जयपुर से गायें खरीद कर एक ट्रक से उन्हें मेवात ले जा रहा था। लेकिन कथित ‘गौरक्षकोंÓ ने उन्हें थाम लिया और तस्करी का आरोप लगाते हुए इस कदर पीटा कि उनकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में कहा गया है कि पहलू खां की मौत गंभीर चोटों के कारण हुई जबकि हिंसक’गोरक्षकोंÓ का कहना है कि ‘पहलू खां की मौत दहशत के कारण हुई।Ó प्रदेश के विहिप और बजरंगदल के बड़े पदाधिकारियें का कहना है, ‘हम कभी हिंसा को प्रोत्साहित नहीं करते….।ÓÓ वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रकाश वैदिक का कहना है कि, ‘…..तो फिर ड्राइवर को क्यों छोड़ा? क्या हिन्दू ड्राइवर को पता नहीं था कि ट्रक में गायें भरी हुई है। अगर उसे शक होता कि गायें बूचडख़ाने ले जाई जा रही है तो उसने ट्रक को थाने पर ले जाकर क्यों नहीं खड़ा किया? अभी इस घटना का कफन-दफन नहीं हुआ था कि एक और घटना घटित हो गई। राजस्थान के गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया कह कर रह गए कि, ‘दोनों पक्ष दोषी हैं। संसद में केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास ने जो कहा, हैरान करता है कि, ‘इस तरह की घटना जमीन पर हुई ही नहीं।ÓÓ अलबत्ता केन्द्रीय गृहमंत्री राजस्थान सिंह का कथन संतोषजनक था कि, ‘राजस्थान सरकार भी इस मामले की जांच कर रही है और केन्द्र सरकार भी न्याय संगत कार्रवाई करेगी।ÓÓ इस मामले में न्याय संगत कार्रवाई आज तक भी क्यों नहीं हुई?

सघन हो रहे हैं अंधेरे

गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा और उत्पात को लेकर वरिष्ठ पत्रकार वेदव्यास का सुलगता सवाल चौंकाता है कि, ‘आखिर हम 1947 की आजादी को 2022 में 75 साल पूरे होने पर कहां, किस ओर ले जाना चाहते हैं? एक देश और एक कर से बाजार तो एक हो सकता है लेकिन जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय विविधताओं को केवल गाय, गंगा और गीता के नाम पर हिंसा फैलाकर लोकतंत्र नहीं बचाया जा सकता। वरिष्ठ पत्रकार मनोज मोहन एक अलग विषय पर सामयिक संदर्भ पर सटीक टिप्पणी करते नजर आते हैं,’कई बार लगता है कि सारी चकाचौंध के बावजूद हमारे समय और समाज में दरअसल अंधेरा, एक नहीं बल्कि कई तरह के अंधेरे बढ़ रहे हैं। वे इतने और इस कदर सघन और एक-दूसरे से इतने अटूट हैं कि इन्हें अलग कर देना मुश्किल है। वरिष्ठ पत्रकार दीनबंधु चौधरी कहते हैं,’सवाल उठता है कि क्या ये नृशंस उत्पात चुनाव की सन्निकटता के मद्देनजर एक खास समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाने और किसी अन्य समुदाय में ध्रुवीकरण करने की कोशिश का हिस्सा है? इस साल कर्नाटक में चुनाव है तो संयोगवश राजस्थान में भी इस साल चुनाव है। यह एक संयोग है कि ऐसी घटनाएं चुनावों के आस-पास ही घटित होती हैं। दादरी में अखलाक अहमद की हत्या बिहार चुनाव के पूर्व ही हुई थी। हकीकत का तो पता नहीं लेकिन उत्पात मचाने वाले तत्वों को राजनीतिक संरक्षण मिलने वाले बयानों से संदेह को मजबूती मिलती है।

कुटिल होती संवेदना

नगरीय सरकारों के मुखिया को ‘क्रिएटिवÓ ओर ‘फोकस्डÓ होना चाहिए। लेकिन उनके पास तो वह ‘आंखÓ ही नहीं है जो सियासत के पार जाकर यथार्थ देख सके? अन्यथा उनकी सूखी हुई संवेदना इतनी कुटिल नहीं हेती कि, ‘हमारे पास समय ही नहीं है कि आवारा पशुओं को पकडऩे के लिए अभियान चला सकें।ÓÓ गायों की हिंसक घटनाओं को लेकर जो आवेग और बेचैनी आम होनी चाहिए थी, वो अंश मात्र भी उनमें नहीं है। शहरों में गुर्राती गायों और बर्बर सांडों की चहलकदमी, उन आदेशों की संकर पैदाइश है, जिनके मुताबिक ‘नाकामÓ होते इन पशुओं को ‘खरीद बिक्रीÓ से दरकिनार कर ‘छुट्टाÓ छोड़ देने को कहा गया है। नतीजतन छुटटा छूटा ‘अपराधीÓ या ‘सांडÓ क्या गुल खिला सकते है। इसका मकान शहरी सरकारों को रहा होता तो कुछ करते? इस अहम मुद्दे को लेकर पिछले दिनों जागरूक नागरिको ंको मुख्यमंत्री का आश्वासन भी फूंक में उड़ता नजर आता है कि, ‘अगले आठ दिनों में उन्हें इस ‘आफतÓ से निजात मिल जाएगी?Ó लेकिन निजात तो मिलती जब मेयर के फुरसत होती? गैर की छोड़ें तो कोटा मेयर को तो अपने वार्ड में टहलते ‘आतंकÓ की ही परवाह नहीं है तो उन्हें क्या कहा जाए? बहरहाल शहरों का फ्रस्ट्रेशन बढ़ता जा रहा है कि उसकी बात शहर का खलीफा ही नहीं सुन रहा है? लोगों में किस कदर दहशत है कि, मुहल्लों में खेलते बच्चे अब कहीं नजर नहीं आते, लोग सुबह की सेहतमंद सैर और शाम को टहलने का कार्यक्रम टाल चुके हैं, लेकिन कब तक? लोगों का तंज बहुत कुछ कह जाता है कि ‘किसी की मौत से नगरीय सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता?