ढोला-मारू (कच्छ)

यों तो थार के चप्पे-चप्पे पर प्रेमकथाएं बिखरी पड़ी हैं लेकिन ढोला-मारू की प्रेमकथा सबसे लोकप्रिय है. यहां हर तीज-त्योहार पर गाए जाने वाले लोकगीतों से लेकर लोकचित्रों और लोकनाटकों में ढोला-मारू को आदर्श दंपति का दर्जा मिला हुआ है. कथा में पूंगल देश का राजा अपने यहां अकाल पड़ने पर नरवर राज्य आता है. यहां वह अपनी बेटी मारू का विवाह नरवर के राजकुमार ढोला से करता है. उस समय ढोला की उम्र तीन और मारू की डेढ़ साल होती है. सुकाल आने पर पूंगल का राजा परिवार सहित अपने महल लौट जाता है. कई साल बीत जाते हैं.

ढोला बचपन के विवाह को भूल जाता है. बड़ा होने पर उसका दूसरा विवाह मालवणी से हो जाता है. मालवणी को अपनी सौतन मारू और उसकी सुंदरता का किस्सा मालूम है. इसलिए वह पूंगल से आया कोई भी संदेश ढोला तक नहीं पहुंचने देती. उधर मारू एक रात सपने में ढोला को देखती है. उसके बाद उसके जी को चैन नहीं मिलता. मारू की यह हालत देख पूंगल का राजा एक चतुर गायक को नरवर भेजता है. गायक गाने के बहाने ढोला तक मारू का संदेश पहुंचाता है. गीतों में पूंगल और मारू का नाम सुनते ही ढोला को अपने पहले विवाह की याद आ जाती है. ढोला मारू से मिलने के लिए बेचैन हो उठता है, मगर मालवणी उसे किसी न किसी बहाने रोकती रहती है. एक दिन ढोला मारू से मिलने तेज ऊंट पर सवार होकर निकल ही पड़ता है. मारू ढोला को देख झूम उठती है. जब वह मारू को लेकर नरवर के लिए लौटता है तो रास्ते में खलनायक उमर सूमरा मारू को छीनने की चाल चलता है. उमर सूमरा घोड़े पर बैठ कर उनका पीछा करता है, लेकिन हवा की रफ्तार से ऊंट दौड़ाता ढोला कहां उसके हाथ आने वाला. नरवर लौटकर वह मालवणी को भी मना लेता है. अंततः ढोला-मारू के साथ मालवणी भी खुशी-खुशी रहने लगती है. राजस्थानी भाषा के नामी नाट्यकर्मी डॉ अर्जुनदेव चारण ने दो स्त्रियों के बीच बंटी इस कथा को प्रेम की बजाय जीवन की समरसता और उसमें संतुलन बनाने की कथा माना है.