जेल के डर से बढ़ा भाईचारा

मज़हब एक ऐसी नशीली दवा है, जिसे बिना चखे ही लोग नशे में चूर हो जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि मज़हब की सीख भले ही हमें याद न रहे; उस पर अमल भी हम न करें; पर उसका नशा दिल-ओ-दिमाग पर तारी रहता है। मेरा मानना है कि अपने मज़हब की शिक्षाअ पर जो जितना कम अमल करता है, वह खुद को मज़हब का उतना ही बड़ा ठेकेदार मानता है। ऐसे लोगों की वजह से कई बार झगड़े या दंगे तक हो जाते हैं और समाज की शान्ति भंग हो जाती है। ऐसे लोगों से समाज में कितनी दिक्कत होती है, यह बात आज सभी को समझने की ज़रूरत है।

ऐसे ही झगड़ों-दंगों की अनेक घटनाएँ हमारे देश में जब-तब देखने, सुनने, पढऩे को मिल जाती हैं। उत्तर प्रदेश के कैथल क्षेत्र के एक गाँव की ऐसी ही घटना मुझे याद आ रही है, जो इसी तरह के मज़हब के ठेकेदारों के चलते घटी। इस गाँव में एक पंडित और एक मुल्ला अपने-अपने मज़हबी स्थलों के पीठाधीश थे। अपने मज़हब को सबसे अच्छा कहना और दूसरे मज़हबों को गलत ठहराना दोनों की आदत थी। दोनों ही के अपने-अपने समर्थक थे। एक दिन मस्जिद के सामने से पंडित जी का एक कट्टर समर्थक गुज़रा। सॢदयों के दिन थे, सुबह का समय था। वहाँ मस्जिद के सामने मुल्ला जी अपने कुछ समर्थकों के साथ अलाव के आगे बैठे हुए इस्लाम की तारीफ में मशरूफ थे। जिस समय पंडित जी का समर्थक वहाँ से गुज़र रहा था, उसके कानों में मुल्ला जी के ये शब्द पड़े- ‘इस्लाम दुनिया का सबसे अच्छा मज़हब है।’ बस फिर क्या था, पंडित जी का समर्थक पलट पड़ा और बोला- ‘मुल्ला जी अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना बहुत आसान है। आपका मज़हब तो तब अच्छा माना जाएगा, जब आप कुछ पुण्य का काम करना शुरू कर दोगे। हमारे  धर्म से बड़ा दुनिया का कोई धर्म नहीं।’ बस, फिर क्या था दोनों ओर से बहस शुरू हो गयी। दोनों ओर के अनेक समर्थक एक जगह जमा हो गये और एक-दूसरे के मज़हब को बुरा-भला कहने लगे। झगड़ा शुरू हो गया और इतना बड़ा कि दोनों ही मज़हबों के लोग आमने-सामने आ गये और देखते-ही-देखते झगड़ा शुरू हो गया। दोपहर होते-होते गाँव में दोनों ओर के कई लोग घायल हो गये। सूचना मिलने पर पुलिस भी गाँव में आ गयी और किसी तरह दोनों पक्षों को धमकाकर माहौल को शान्त कराया। इस झगड़े में एक बात सबसे बुरी हुई, वह यह कि गाँव के ही एक पढ़े-लिखे बुजुर्ग भगवंत सिंह का सिर फूट गया। भगवंत सिंह दोनों ही मज़हब के लोगों को समझाने का प्रयास कर रहे थे। भगवंत सिंह को दोनों ही मज़हबों की काफी जानकारी थी और इंसानियत ही उनका सबसे बड़ा मज़हब था। दोनों ही मज़हबों के लोग उनका सम्मान करते थे और उनकी बात मानते थे। उनका रिकॉर्ड था कि किसी से कभी भी उनकी तू-तू, मैं-मैं तक नहीं हुई। गाँव के कई झगड़े उन्होंने सुलझाये थे, पर आज उनका सिर फूट गया। हालाँकि किसी भी पक्ष का इरादा यह नहीं था।

इधर, थानाध्यक्ष भी पढ़े-लिखे थे। अमूमन देखा जाता है कि पढ़े-लिखे लोग न तो किसी मज़हब की कट्टरता को स्वीकार करते हैं और न ही किसी मज़हब की बुराई करना-सुनना पसंद करते हैं। थानाध्यक्ष की आदत भी ऐसी ही थी। उन्होंने दोनों ओर से पूरे मामले को सुनना शुरू किया। जैसे ही उनके सामने मामले की तस्वीर साफ हुई, उन्होंने पंडित-मुल्ला समेत दोनों ओर के 10-10 लोगों को थाने ले जाकर बन्द कर दिया। मज़े की बात यह थी कि बड़े-से एक ही बैरक में दोनों पक्षों के लोगों को बन्द किया गया। साथ ही हिदायत यह दे दी कि अगर दोनों ओर से किसी ने एक-दूसरे से ज़रा भी धर्म को लेकर बात की या एक-दूसरे से झगडऩे की कोशिश की, तो पेड़ से बाँधकर मारूँगा। दोनों पक्षों के लिए यह शामत सी जान पड़ी, इसलिए चुपचाप बैरक में ही बैठ गये। बीच-बीच में दोनों पक्ष यह ज़रूर कहते रहे कि साहब, हमारी गलती नहीं है। पर थानाध्यक्ष ने किसी की भी एक नहीं सुनी। दोनों मज़हबों के लोग अपने-अपने पक्ष को छुड़ाने आये, पर गिरफ्तार लोगों को रिहा नहीं किया गया। दोपहर से शाम हो गयी, शाम से रात के 11 बज गये। गाँव के लोग सब परेशान होकर वापस चले गये। इतना ही नहीं रात को किसी को खाना भी नहीं दिया गया। रात के 12 बजे के करीब मुल्ला जी के तरफ के एक हिरासती ने कहा कि साहब! बहुत तेज़ भूख लगी है, खाना खिला दो। थानाध्यक्ष ने कडक़ आवाज़ में कहा- ‘क्यों लडक़र पेट नहीं भरा?’ बैरक में फिर एक लम्बी चुप्पी छा गयी। थानाध्यक्ष ने गाँव में भी छ:-सात पुलिस वाले तैनात कर दिये थे, ताकि फिर कोई झगड़ा न कर सके। हिरासत में लिये गये सभी लोग रात को बैरक में ही सो गये। सुबह हो गयी। भगवंत सिंह थाने में पहुँचे और थानाध्यक्ष से दोनों पक्षों को छोडऩे की गुज़ारिश करने लगे। थानाध्यक्ष को सारा वाकया मालूम था, इसलिए उन्होंने बड़े सम्मान से भगवंत सिंह को बैठाया और चाय पिलायी। फिर उन्हें लेकर बैरक की ओर गये। और चिल्लाकर कहा कि देख रहे हो इनको? पहचानते भी हो कि नहीं? यह वो इंसान हैं, जिनका सिर आप लोगों ने फोड़ दिया, फिर भी ये आप लोगों को रिहा कराने आये हैं। तुम लोगों को शर्म आनी चाहिए। एक रात के लिए मैंने तुम लोगों को एक ही बैरक में बन्द रखा, सब एक-दूसरे के पास सो गये, कोई लडक़र नहीं मरा। मगर एक गाँव में अलग-अलग घरों में रहकर एक-दूसरे के खून के प्यासे रहते हो। कैसे इंसान हो? क्या यही सिखाता है आपका मज़हब? कौन-से मज़हब में लिखा है दूसरे मज़हब को बुरा कहना? कौन-सा मज़हब खून बहाने की सीख देता है? अब तुम लोगों को जेल भेजूँगा। बस इतना सुनते ही कोई रोने लगा, कोई पैर पडऩे लगा। पंडित जी और मुल्ला जी भी हाथ जोडक़र गिड़गिड़ाने लगे। थानाध्यक्ष ने कहा- माफी भगवंत सिंह जी से माँगो। सब उनसे माफी माँगने लगे। खैर, थानाध्यक्ष ने यह हिदायत देते हुए सबको छोड़ दिया कि आइंदा अगर लड़े तो सीधे जेल भेजूँगा। इसके बाद उस गाँव से मज़हबी झगड़े की कोई खबर नहीं सुनी।