जाना मलेशिया को

हमारे समाज में विदेश जाना गौरव की बात है, हो भी क्यों न, आखिर सदियों तक विदेशियों ने हम पर हकूमत की है। विदेश क्यों जाना है, वहां करना क्या है? ये दोनों बातें गौण हंै।

हां तो साहिब मलेशिया मैं पहुंच गया। उस धरती पर पैर रखते ही मेरा सीना चौड़ा हो कर 57 इंच का हो गया। अब सारे सीने 56 इंच के ही हों यह कोई ज़रूरी तो नहीं। क्या शांत जगह है पेनांग। पूरी खामोशी। अजीब लोग हंै, सड़कों पर दिखते ही नहीं। मेरे कान खराब होने लग पड़े। ऐसी खामोशी की आदत इन कानों को कहां है। मुझे तो मरघट जैसी अनुभूति होने लगी। कोई आवाज़ नहीं। मेरे जैसे लोग जो यहां बसों, ट्रकों, कारों, गाडिय़ों के हार्न के मधुर संगीत के अभ्यस्त हैं वहां परेशान हो जाते हैं। इस संगीत से पूरी तरह वंचित। कोई पैदल चलने वाला सड़क में घुस जाए, तो कोई हार्न नहीं। गाड़ी वाला पैदल चलने वाले को पहले निकल जाने का इशारा करेगा।

मुझे लगा कि यदि मैं ज़्यादा समय यहां रहा तो मैं तो अपनी भाषा के मुहावरे भी भूल जाऊंगा। आप सड़क पर आए नही ंतो क्या संगीतमय हार्न के साथ कड़क आवाज़ आती है- ‘ओए, मरना है क्या। मुंह उठा कर चले आते हैं घर से’। या फिर ‘मरने के लिए फांसी लगा ले मेरी गाड़ी के नीचे ज़रूर आना है’? कितना आनंद आता है। जब कोई बस चालक कहता है, ‘तेरे माथे पे की फूट गई क्या, इतनी लंबी बस दिखाई नहीं देती’। ये सारे सामाजिक शब्द वहां नदारद थे।

मेरे लिए खान-पान की समस्या होने लगी। कहीं भी कूड़ा-कचरा या फैंका हुआ खाने का सामान नहीं था। मैं कूड़े का ढेर तलाश रहा था, पर सफल नहीं हुआ। फिर दिमाग ने काम किया। और लग गया सब्जी मंडी तलाश करने। सोचा वहां खाने का बंदोबस्त हो जाएगा। सड़ी-गली सब्जियों की ‘सुगंध’ मुझे दूर से आ जाती है। इसके सहारे सब्जी मंडी खोजी जा सकती है, पर अजीब देश है कहीं से कोई ‘सुगंध’ नहीं मिल रही थी और न ही आ रही थी यह ध्वनि- ‘टमाटर 30 रुपए किलो, ताजी भिंडी 40 रुपए, प्याज 80 का 5 किलो’। हमारे यहां तो एक किलोमीटर से मंडी होने की निशानियां मिलने लगती है, पर यहां तो कुछ और ही था। मेरे लिए यह भी समस्या थी कि मेरी बिरादरी का कोई भी और वहां नहीं था।

चलो किसी तरह मैं सब्जी मंडी पहुंच गया। पर वहां तो सड़ी-गली सब्जी कहीं नहीं थी। कहीं कचरा तक नहीं। बस ‘रिंगेट’ दो, सब्जी लो। अब मेरे पास उनकी करंसी रिंगेट कहां? फिर सोचा जैसे हमारे यहां जानवरों को बचा हुआ खाना लोग खिलाते हैं वहां भी खिलाते होंगे। मैंने कई घर छाने पर वहां ऐसा भी रिवाज नही। कोई पुण्य नहीं कमाता। जाते होंगे नरक में। लगा भूखा मरने। वहां एक बात अच्छी हुई कि मुझे कुछ अपने देश के लोग मिल गए जो अभी भी हमारी परंपरा को निभा रहे हैं। सो खाने का बंदोबस्त हो गया।

मुझे सुबह मिट्टी में लोटने की आदत है, पर वहां मिट्टी कहां? जहां देखो वहां हरियाली या पक्के स्थान। तभी तो वहां ‘गौ धूलि की बेला’ नहीं होती। माथे पर लगाने तक को धूल नहीं मिलती। सोचा ये लोग क्या खाक देशभक्ति करेंगे जहां अपने देश की मिट्टी तक नसीब नहीं है। हम तो देश की मिट्टी के लिए मर मिटते हैं, तो ये किस के लिए मरते होंगे।

पेनांग बड़ी रोमांटिक जगह है। पर लोगों में रोमांस नहीं है। मंैने किसी लड़के को किसी लड़की पर फिकरे कसते नहीं देखा, सीटी बजाते नहीं सुना। कितने बैकवर्ड हैं। हम लोगों के ‘पैरामीटर’ के हिसाब से तो ये लोग युवा कहलाने के हकदार ही नहीं है। क्या करनी ऐसी जवानी जिसके खून में न हो रवानी। हमारे यहां तो युवा, दूर से पहचाने जाते हैं, बिना हैलमेट मोटरसाइकिल दौड़ाते हैं, उन पर कोई गति सीमा नहीं होती या फिर हाथ में बीयर और शराब की बोतलें लिए कीमती कारों की खिड़कियों से बाहर लटका कर शोरगुल करना युवा होने की पहली निशानी है। फिर जब तक एक-दो बलात्कार न कर लें, तो कहां के ‘युवा’। इस कारण युवाओं की श्रेणी में केवल अमीर घरों के युवा ही आते हैं। गरीब घरों में तो युवा पैदा ही नहीं होते।

हमारे यहां अंधी दौड़ है पैसा कमाने की और वहां नजऱ आई इंसानियत की कीमत। ऐसा नहीं है कि वह कोई देव-भूमि है। चोरी-चकारी और बेईमानी वहां भी है, लेकिन उसकी मात्रा बहुत कम है। कुछ भी हो चैन तो तब आया जब दिल्ली हवाई अड्डे के बाहर एक ऑटो वाले ने कहा, ‘अंधा है क्या, ऑटो नहीं दिख रहा’? ‘पर मैं तो फुटपाथ पर हूं’ मैंने जवाब दिया। ‘तो तू मालिक हो गया फुटपाथ का। चल, मुझे ऑटो रिक्शा यहां पार्क करनी है’। उस ऑटो वाले की आवाज़ सुन कर सच्च में मज़ा आ गया। तभी तो कहते हैं-‘जो सुख छज्जू के चौबारे वो बल्ख न बुखो।’