जातिवाद का विषविद्यालय!

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की कल्पना इसके संस्थापक मदन मोहन मालवीय ने कभी शिक्षा के उत्कृष्ट केंद्र के रूप में की होगी लेकिन बीते कुछ समय से यह शिक्षा के इतर कारणों से चर्चा में रहा है. नया मामला विश्वविद्यालय के कुलपति लालजी सिंह और एक असिस्टेंट प्रोफेसर के बीच चल रहे टकराव का है  जिससे अनुसूचित जाति आयोग के तार भी जुड़ गए हैं. दरअसल सिंह पर अनुसूचित जाति (एससी) आयोग में कुल पांच मामले लंबित हैं. आयोग एक साल के भीतर उन्हें नौ समन भेज चुका है. ये मामले बीएचयू के अंग्रेजी विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर इंदु चौधरी और कुछ अन्य लोगों की शिकायत पर दर्ज हुए हैं. इन सभी का आरोप है कि दलित होने की वजह से कुलपति द्वारा उनका उत्पीड़न किया जा रहा है. इस पूरे मामले को एससी आयोग और उसके चेयरमैन कांग्रेस सांसद पीएल पुनिया की भूमिका और ज्यादा जटिल बनाती है जिसमें हितों का टकराव साफ दिखता है.

इस मामले में कई पेंच हैं, इसलिए इसे समझने के लिए इसकी शुरुआत में जाना होगा. मई, 2007 में इंदु चौधरी की बीएचयू के अंग्रेजी विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्ति हुई. उस समय उनके पास परिसर में रहने के लिए कोई आवास नहीं था लिहाजा उन्होंने कुछ दिनों के लिए फैकल्टी गेस्ट हाउस में रहने की अनुमति मांगी. उन्हें यह मिल गई. फैकल्टी गेस्ट हाउस ट्रांजिट व्यवस्था के तहत मिलता है. यह अवधि एक से लेकर छह महीने तक कुछ भी हो सकती है. इसे बीएचयू प्रशासन आगे भी बढ़ा सकता है, लेकिन विश्वविद्यालय का कोई कर्मचारी आजीवन यहां नहीं रह सकता. कर्मचारियों के  लिए परिसर के भीतर ही आवास बने हुए हैं. समस्या तब शुरू हुई जब इंदु चौधरी ने अलग-अलग कारणों से गेस्ट हाउस खाली करने से इनकार करना शुरू किया. विश्वविद्यालय प्रशासन उन्हें बार-बार गेस्ट हाउस खाली करने का नोटिस भेजता रहा पर गेस्ट हाउस खाली नहीं हुआ. इस बीच दिसंबर 2009 में विश्वविद्यालय प्रशासन त्यागराज कॉलोनी में इंदु चौधरी को आवास आवंटित कर चुका था. लेकिन चौधरी फैकल्टी गेस्ट हाउस में जमी रहीं और खुद ही मामला हाई कोर्ट में लेकर चली गईं. लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी. मार्च, 2010 में हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘याचिकाकर्ता ने अपने दावे के समर्थन में ऐसा कोई पुख्ता प्रमाण नहीं दिया जिससे माना जा सके कि फैकल्टी गेस्ट हाउस में उनका रहना जायज है. फैकल्टी की सुविधा किसी का अधिकार नहीं है. याचिकाकर्ता को एक महीने में आवंटित आवास में जाने का आदेश दिया जाता है और यह याचिका निरस्त की जाती है.’

इसके बावजूद चौधरी गेस्ट हाउस में डटी रहीं और उन्होंने हाई कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर कर दी. विश्वविद्यालय उन्हें इस बीच बार-बार गेस्ट हाउस खाली करने का नोटिस भेजता रहा. अंतत: जून, 2011 में प्रशासन ने उनके वेतन से गेस्ट हाउस का किराया काट लिया. यह रकम 27 हजार रु थी. दिसंबर, 2011 में चौधरी ने गेस्ट हाउस खुद ही खाली कर दिया. वे कहती हैं, ‘मुझे इस दौरान विश्वविद्यालय ने न तो वेतन काटे जाने का कोई नोटिस दिया न ही गेस्ट हाउस खाली करने का.’ हालांकि इस बयान पर यकीन कर पाना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि तहलका के पास विश्वविद्यालय द्वारा अप्रैल, 2010 से जनवरी, 2011 के बीच जारी किए गए कुल चार नोटिस हैं. चौधरी कहती हैं, ‘विश्वविद्यालय दलितों के उत्पीड़न का केंद्र है. जिस फैकल्टी गेस्ट हाउस में मैं रहती थी, वहां का किराया 50 रुपया प्रतिदिन का तय है जबकि मुझसे प्रशासन ने शुरुआत के नौ महीने 100 रुपये प्रतिमाह वसूला और उसके बाद किराया बढ़ाकर 200 रुपये प्रतिमाह कर दिया.’ हालांकि प्रशासन का कहना है कि किराया 200 रुपया प्रतिदिन ही है. उसके मुताबिक चौधरी को शुरुआत में रियायत दी गई थी लेकिन जब वे तय समय से अधिक वहां रुकीं तो उनसे वास्तविक किराया वसूला गया.

खैर, यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं हुई. इंदु चौधरी ने अपने आवास का मामला इतना बड़ा बना दिया कि वे इसे लेकर अनुसूचित जाति आयोग के पास पहुंच गईं. यहां से इस मामले में कांग्रेस सांसद और एससी आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया की भूमिका शुरू होती है. दिसंबर, 2011 में गेस्ट हाउस खाली करते हुए चौधरी ने कुलपति के खिलाफ आयोग में शिकायत कर दी. अपने उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए यह शिकायत उन्होंने अपने पति महेंद्र प्रताप सिंह की एक गैरसरकारी संस्था के जरिए की थी. इस मामले में कुलपति ने अपना पक्ष आयोग के सामने रखवा दिया था.

[box]इस पूरे विवाद का विश्वविद्यालय के अकादमिक माहौल पर काफी नकारात्मक असर पड़ा है[/box]

मई, 2012 में इंदु चौधरी ने एक और काम किया. उन्होंने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति कर्मचारी कल्याण समिति, बीएचयू, वाराणसी के नाम से एक संस्था का पंजीकरण करवाया. यह संस्था बीएचयू परिसर के भीतर स्थित एल-27, तुलसीदास कॉलोनी से चलती है. संस्था के लेटरहेड पर भी यही पता दर्ज है. लालजी सिंह कहते हैं, ‘विश्वविद्यालय के भीतर इस तरह की कोई समानांतर संस्था संचालित नहीं हो सकती. यह भारत सरकार द्वारा संचालित संस्थान है, यहां पहले से ही एसटी-एससी ग्रीवांस रिड्रेसल सेल है. इसके समांतर कोई दूसरी संस्था काम नहीं कर सकती.’ उधर, चौधरी अपनी संस्था के पक्ष में कुछ दूसरे तर्क और प्रमाण रखती हैं. वे कहती हैं, ‘परिसर के भीतर कुल पांच समितियां रजिस्टर्ड हैं. इनमें दुर्गोत्सव समिति भी है जो हर साल परिसर के भीतर दुर्गा पूजा करवाती है. एक सरकारी संस्थान किस अधिकार से परिसर के भीतर सालों से धार्मिक आयोजन करवा रहा है? कुलपति को सिर्फ दलितों की समिति से ही दिक्कत है.’ विश्वविद्यालय प्रशासन के पास इसका सिर्फ इतना-सा जवाब है कि वह दुर्गोत्सव समिति का पंजीकरण रद्द कर रहा है, बाकी समितियों के लिए उसके पास कोई योजना नहीं है.

बहरहाल इस समिति के गठन के बाद अगले कुछ दिनों के दौरान कुलपति लालजी सिंह के खिलाफ कुल पांच शिकायतें एससी आयोग में दर्ज करवाई गईं. हर मामले में आयोग ने सीधे कुलपति को आयोग के सामने प्रस्तुत होने का समन जारी किया. उनके खिलाफ आयोग ने कुल आठ समन जारी किए जिसमें हर तारीख पर विश्वविद्यालय की तरफ से रजिस्ट्रार अपना पक्ष रखने के लिए आयोग के समझ प्रस्तुत हुए. रजिस्ट्रार जीएस यादव कहते हैं, ‘हर बार पुनिया विवाद के बारे में बात करने के बजाय यही पूछते हैं कि वीसी क्यों नहीं आए और फिर वे अगली तारीख तय कर देते हैं. पिछली बार तो पुनिया जी ने यहां तक कह दिया कि तुमसे तो बात करना भी तौहीन है.’ आयोग और कुलपति की रस्साकशी यहां तक पहुंच गई कि आयोग ने 19 जून, 2013 को लालजी सिंह को गिरफ्तार करके आयोग के सामने प्रस्तुत करने का आदेश जारी कर दिया. यह वारंट इंदु चौधरी और उनके पति महेंद्र प्रताप सिंह द्वारा दायर की गई शिकायत के संदर्भ में जारी हुआ था.

इसमें जमानत का भी प्रावधान नहीं था लिहाजा लालजी सिंह ने हाई कोर्ट में इस वारंट को खारिज करने की याचिका दायर की. कोर्ट ने वारंट पर रोक लगाते हुए लालजी सिंह को सुनवाई में खुद उपस्थित होने से यह कहकर मुक्त कर दिया कि आयोग प्रारंभिक जांच पूरी कर ले इसके बाद उपयुक्त समय पर कुलपति आयोग के सामने अपना पक्ष रखने के लिए प्रस्तुत होंगे. खुद लालजी सिंह कहते हैं, ‘किसी ने भी शिकायत की और पुनिया सीधे मुझे हाजिर होने का समन जारी कर देते हैं. मामलों की जांच किए बिना ही. हमने हर समन का पूरा जवाब रजिस्ट्रार के माध्यम से हर सुनवाई के दौरान आयोग के सामने रखा है.’ लालजी सिंह का यह भी कहना है कि जो मामला हाई कोर्ट में लंबित है उसमें एससी आयोग को कार्रवाई करने का अधिकार ही नहीं है. उधर, पुनिया कहते हैं, ‘लालजी सिंह हर बार सुनवाई से बचते हंै और सिर्फ यही बताते रहते हैं कि वे क्यों नहीं आ सकते. आयोग के सामने आने से उन्हें डर क्यों लगता है?’

एससी आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया इस मामले का बेहद दिलचस्प पहलू हैं. इंदु चौधरी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण समिति नामक जो संस्था बीएचयू में पंजीकृत करवा रखी है उसकी महासचिव चौधरी खुद हैं और पुनिया दो महीने पहले यानी 16 मई, 2013 तक उसके चीफ पैट्रन (मुख्य संरक्षक) हुआ करते थे. एससी आयोग के समक्ष की गई सारी शिकायतें इसी संस्था के लेटरहेड पर आयोग को भेजी गईं और पीएल पुनिया का नाम इस पर मुख्य संरक्षक के तौर पर अंकित है. उनके मुख्य संरक्षक रहते हुए ही सारी शिकायतें आयोग में आई हैं. लालजी सिंह को पुनिया की तरफ से सम्मन भी इन्हीं शिकायतों के आधार पर भेजा गया. पहली नजर में ही यह हितों के टकराव का मामला नजर आता है. तहलका ने जब पुनिया के सामने यह बात रखी तो उनका कहना था, ‘मुझे इस संबंध में और कुछ नहीं कहना है, फिलहाल मैं इसका संरक्षक नहीं हूं.’ इतना कहने के बाद उन्होंने फोन काट दिया.

चौधरी और पुनिया की मिलीभगत का इशारा एक दस्तावेज भी करता है. इंदु चौधरी ने 30 मार्च, 2013 को अपनी संस्था के माध्यम से एक शिकायत (संख्या 2013/SEWA /03/05)  आयोग के पास भेजी थी. एक अप्रैल, 2013 को इसे संज्ञान में लेते हुए आयोग ने इस मामले में 15 अप्रैल की तारीख तय करते हुए आरोपितों को नोटिस भेजने की नोटिंग इसी शिकायत पत्र में लिखी है. लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि आयोग के अध्यक्ष के कार्यालय में इस शिकायत की रिसीविंग तारीख दो अप्रैल दर्ज  है. सवाल उठता है कि आयोग को शिकायत दो अप्रैल को मिली तो उसने एक अप्रैल को ही इस पर अपना फैसला कैसे ले लिया.

सवाल यह भी है कि इंदु चौधरी या उनकी संस्था के माध्यम से बाकियों ने अपनी शिकायतें विश्वविद्यालय के एससी-एसटी सेल के माध्यम से क्यों नहीं उठाईं या उन्हें आयोग के पास विश्वविद्यालय के माध्यम से क्यों नहीं भेजा. विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर और वरिष्ठ दलित अध्यापक महेश प्रसाद अहिरवार कहते हैं, ‘अपने राजनीतिक मकसद के लिए इंदु चौधरी ने विश्वविद्यालय के एससी-एसटी कर्मचारियों के व्यापक हितों को दांव पर लगा दिया है. अव्वल तो जब मामला हाई कोर्ट में था तो पीएल पुनिया को इसमें पड़ना ही नहीं चाहिए था क्योंकि यह आयोग के दायरे में ही नहीं आता. चौधरी ने विश्वविद्यालय के एससी-एसटी कर्मियों को बांट कर उन्हें कमजोर करने का काम किया है. जो संस्था उन्होंने बनाई है, वह कर्मचारियों के बजाय उनके हित पूरे कर रही है. साल भर में एससी-एसटी सेल विश्वविद्यालय में आठ कार्यक्रम करवाती है. इतने सालों में आज तक चौधरी किसी भी कार्यक्रम में नजर नहीं आई हैं. उन्हें अपनी राजनीति से फुर्सत नहीं है और वे पूरे समाज के हित की बात कर रही हैं.’

विश्वविद्यालय के अकादमिक माहौल पर इस विवाद का बुरा असर पड़ा है. दलित और गैरदलित कर्मचारियों के बीच पूरे परिसर में एक गांठ-सी बंध गई है. इससे परेशान कुलपति ने विश्वविद्यालय के एससी और एसटी कर्मचारियों के साथ खुली बातचीत की पहल की. इससे दोनों पक्षों के बीच समझ विकसित हुई है और एससी-एसटी कर्मचारियों की सुनवाई कुछ हद तक बढ़ी है. लेकिन सारी समस्याएं सुलझ गई हों ऐसा नहीं है. अहिरवार बताते हैं, ‘समस्याएं तो हैं ही लेकिन इंदू चौधरी की तरह हम अपनी जायज लड़ाई गलत हथियार से नहीं लड़ेंगे. टीचिंग सेक्टर में यूनिवर्सिटी आरक्षण मानकों की अनदेखी अभी भी कर रही है लेकिन नान टीचिंग में स्थिति सुधरी है. हमने वीसी से सीधे संवाद में एससी-एसटी समुदाय की ओर से पंद्रह सूत्रीय मांग पत्र सौंपा है जिनमें से अधिकतर मांगें उन्होंने मान ली हैं. इसके अलावा एससी एसटी ग्रीवांस रिड्रेसल सेल को मजबूत करने के लिए इसे तीन स्तरीय बनाया गया है.’