जल्दबाजी के वादे पर सोचना ज़रूरी

भारत का मतदाता आज क्या चाहता है? कांग्रेस ने गरीबी के खिलाफ जो नई मुहिम छेड़ी है उसमें गरीब परिवारों को हर महीने रुपए छह हजार मात्र देने की बात है। जिससे मदद से यानी गरीबी परिवार अभी किसी तरह छह हजार मात्र कमा लेता है बाद में कांग्रेस यह पूरी राशि बढ़ कर बारह हजार तक जाती है। यानी बाहर हजार मात्र का मासिक आमदनी वाला परिवार गरीब है।

यह मान कर चलना कि गरीब परिवार यत्न करते हुए छह हजार रु पए कमाते ही हैं। इस संख्या पर आपत्ति हो सकती है। यह अंक कहां से आया। इस पर विचार ज़रूरी है। आर्थिक सर्वे के जो सरकारी दस्तावेज हैं उनसे भी घरों में होने वाले खर्च की ही जानकारी मिलती है। घरेलू आमदनी की नहीं। भारत भर में घरेलू आमदनी क्या और कितनी है उस पर किसी सर्वे कराने की किसी योजना नहीं सुनी। अलबत्ता 2016 में एक अध्ययन ‘डब्लू डब्लू डब्लू.360.इन’ पर हुआ था। उसमें भी आंकड़े भारत में घरेलू आमदनी के विभाजन पर हैं। इस अध्ययन में अमीरों से गरीबों तक के परिवारों में दस फीसद के स्लैब में आमदनी की हिस्सेदारी का अनुमान लगता है। लेकिन आमदनी के बंटवारे पर कोई खास काम नहीं हुआ। आज भारतीय घरेलू परिवारों की आमदनी का अनुमान उसके पारिवारिक खर्च (2018-19) के आधार पर ही है।

हम यदि अपने डाटा पर ध्यान दें तो अच्छी खबर कांग्रेस के लिए यही है कि भारतीय परिवार उतने गरीब शायद नहीं हैं जितना वे मान कर चल रहे हैं। भारतीय परिवारों में सबसे गरीब दस फीसद लोग हैं न कि बीस फीसद जिनकी आमदनी बारह हजार रु पए से कम है। उनकी औसत आमदनी रु पए 9500 मात्र प्रति माह की बनती है न कि रु पए छह हजार पांच सौ मात्र जो कही जा रही है। इसके बाद जो वर्ग है वह रु पए 15,700 मात्र प्रति माह कमाता है। परिवार में लोगों की संख्या कम होने से आकार भी कटता है। परिवारों के इस आकार से हर स्लैब पर 300 लाख मिलियन परिवार होंगे न कि 280 लाख।

यानी रु पए बारह हजार मात्र की मासिक आम वाले परिवारों को जो बढ़ी हुई नकदी चाहिए वह तकरीबन रु पए तीन हजार मात्र हैं न कि रु पए छह हजार मात्र। इस से उनकी रु पए की ज़रूरत एक तिहाई घट जाती है जो योजना में बताई गई है। यह सही है कि ऐसे परिवारों की पहचान की क्षमता विकसित की जाए। पहले की कई बार यह बात उठी है कि इस संबंध में कुछ गंभीर काम किया जाए। एक परिवार के क्रिया कलापों पर ध्यान दिया जाए तभी आमदनी का कुछ अनुमान लगता है।

अब आइए, सोचते हैं कि रु पए बाहर हजार मात्र की न्यूनतम आमदनी के लक्ष्य की वजहें तार्किक कितनी हैं। हम 1990 से ‑‑‑‑‑‑‑‑‑‑‑‑‑‑‑‑(घर-घर की आमदनी को खर्च से अलग करके) देखते रहे हैं। इसमें यह जानकारी मिली कि बीस फीसद बेहद गरीब परिवारों को अपनी कमाई से ज्य़ादा खर्च करने की आदत थी। परिवार फिर कर्ज में फंसते रहे। इसके बाद के रईस ऐसे बीस फीसद परिवार हैं जो आठ से दस फीसद  की अतिरिक्त कमाई पर ध्यान देते हैं। ये वस्तुओं की कीमतों में हुई थोड़ी भी बढ़ोतरी पर काबू भी पा लेते हैं लेकिन ज्य़ादातर का निर्याह उनकी आमदनी में ही हो जाता है।

ऐसे घरों की सोच होती है कि इनका जो खर्च है वह ‘रूटीन’ और ‘बगैर रूटीन’ में है (यानी उदाहरण के लिए स्वास्थ्य संबंधी आपात खर्च या फिर पारिवारिक-सामाजिक आयोजन या फिर स्कूल कालेज में एडमिशन के लिए कैपिटेशन फीस। ऐसे परिवार जो रु पए 9500 प्रतिमाह कमाते हैं वे मुश्किल से ही सही अपने रूटीन खर्च भी पूरे कर पाते हैं। ऐसे परिवार जो हर महीने रु पए 15,700 मात्र कमाते हैं (अगले रईस दस फीसद वे अपने रूटीन खर्च भी पूरे कर लेते है। वे दस फीसद अतिरिक्त भी रखते है। लेकिन बात रूटीन खर्च के कारण वे कजऱ् में भी रहते हैं। इनके ऊपर जो परिवार है वे ज़रूर आम रूटीन खर्च के बाद भी अतिरिक्त पाते हैं। यानी बारह हजार मात्र से 13 हजार मात्र के बीच की कोई राशि बतौर न्यूनतम मासिक की आमदनी तार्किक है।

हमने फिर भी उन गरीब घरों के दस फीसद परिवारों की राज्यभर छानबीन की जिन्हें यह नकद धनराशि मिल सकती है। जवाब आया अवसाद भरा है। कई राज्यों में तो इसकी कोई सुगबुगाहट तक नहीं है। देश के सबसे ज्य़ादा गरीब दस फीसद परिवारों में सबसे ज्य़ादा परिवार तो झारखंड में हैं जो इक्कीस फीसद हैं। फिर बिहार नहीं बल्कि 15 से 19 फीसद पश्चिम बंगाल, ओडि़सा और मध्यप्रदेश में। आश्चर्य लेकिन सच, उत्तरप्रदेश में सिर्फ 12फीसद हैं। छत्तीसगढ़ में 13 फीसद, राजस्थान में दस फीसद हैं। तेलंगाना में यह आठ फीसद, असम में नौ फीसद और इससे कुछ कम बाकी प्रदेशों मेें।

लेकिन ऐसे राज्य जहां गैर भाजपा सरकारें हैं मसलन पश्चिम बंगाल, ओडिसा में बेहद गरीब परिवारों की तादाद 15 फीसद में भी ज्य़ादा है। अविकसित ग्रामीण इलाकों में दस फीसद बेहद गरीब परिवारों में 85 फीसद हैं। जबकि 11 फीसद लोग बड़े शहरों और आस-पास के गांवों-कस्बों में।

इन तमाम तथ्यों के अलावा विकसित होते समाज के लोग वही चाहते हैं जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेहतर तरीके से समझते हैं। नकद धन खातों में आएं। लेकिन वे ऐसे मौके चाहते हैं जहां और ज्य़ादा कमाया जा सके। जो बच्चों के लिए बेहतर हो तब जीवन की और तमाम ज़रूरतों- संभावनाओं का पता लगा सकेंगे। बेहद गरीब परिवारों में यदि हम परिवार के मुखिया के कामकाज की पड़ताल करें तो इनमें आधे से ज्य़ादा दिहाड़ी वे मजदूर हैं। तीस फीसद लोग गैर कृषि और सोलह फीसद कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं। जाहिर है कांग्रेस को वह बात आज भी याद है जिसे भाजपा भूल चुकी है। कांगे्रस ने ही मनरेगा से आमदनी बढ़ाने का कार्यक्रम शुरू किया था। वह वाकई जादुई इस लिहाज से रहा कि इससे एक तरह से न्यूनतम वेतन की राशि तय हो गई। धीरे-धीरे आधार भी माना गया। दूसरे 22 फीसद लोग छोटे किसान हैं। इनमें भूमिहीन भी कुछ राज्यों में काम की दूसरी योजनाएं भी हैं जो उन वित्तीय और भावी ज़रूरतों को समझते हैं। इसके अलावा देश में 22 फीसद परिवार ऐसे भी हैं जिनका भरण-पोषण बच्चों से आर्थिक सहयोग और मकान के लिए किराए से चलता है।

सब से दुखदायी पहलू है उच्च शिक्षा के स्तर पर किसी बेहद गरीब परिवारों में किसी का पहुंच जाना। क्योंकि बेहद गरीब दस फीसद परिवारों में 45 फीसद लोग ही प्राइमरी स्कूल और 44 फीसद से भी कम उम्र तक की पढ़ाई भी कर पाते हैं। किसी भी पार्टी ने इसके समाधान पर नहीं सोचा कि ऐसा सामाजिक अभियान शुरू हो जिसमें न्यूनतम आय की गारंटी के साथ ही शिक्षा की भी समुचित व्यवस्था हो। अच्छा है, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों के साथ ही शिक्षा विदों के साथ मिल बैठ यह समय है, जब मतदाता की भी सुनी ही जाए।

रमा बीजापुरकर

राकेश शुक्ेल

साभार: इंडियन एक्सप्रेस