जलियांवाला हत्याकांड के 100 साल इंकलाब के नारे को नहीं दबा पाई गोलियों की बौछार

बात 100 साल पहले की यानी 13 अप्रैल 1919 की है। स्थान था जलियांवाला बाग अमृतसर। 13 अप्रैल वह दिन है जब 1969 में सिखों के दसवें गुरू गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की नींव  रखी थी। इस तरह बैसाखी का यह पर्व पंजाबियों खास कर सिखों के लिए बहुत महत्व रखता है। इसी दिन यानी 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में एक भारी जनसैलाब उमड़ा था। उस समय देश से अंग्रेजों को निकालने के लिए एक बड़ा आंदोलन चल रहा था। लोग जलसे में अमन शांति से बैठे अपने नेताओं के भाषण सुन रहे थे। इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। उसी समय जनरल डायर अपने 50 सैनिकों के साथ वहां आया। इन सैनिकों में अंग्रेज़ और भारतीय दोनों थे। बाग का मुहाना बहुत तंग था। सैनिकों ने उस रास्ते को रोक लिया और बिना किसी चेतावनी के 10,000 लोगों की भीड़ पर अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। लोगों में भगदड़ मच गई। पर गोलियों की आवाज़ के बीच भी नारेबाजी जारी रही। लोग अपने जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। ये सैनिक 10 से 15 मिनट तक गोलियां चलाते रहे। कहा जाता है कि इस दौरान उन्होंने 1650 गोलियां चलाई। उनकी गोलीबारी उस समय बंद हुई जब उनके पास पूरा असला खत्म हो गया। सरकारी तौर पर इन गोलियों ने 400 लोगों की जान ली और 1200 को गंभीर रूप से घायल कर दिया। पर प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि यह गिनती बहुत कम करके दिखाई गई। असल में मरने वालों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा है। इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार ने जनरल डायर को उसकी कमान से हटा दिया था।

फायरिंग के बाद चारों ओर शव बिखरे पड़े थे। घायलों की चीत्कार से पूरा वातावरण करूणामय हो गया था। एक महिला रात भार अपने पति की लाश के पास बैठी रोती रही। उधर एक पिता अपने 13 साल के बच्चे को ढूंढ रहा था जो अपने दोस्तों  के साथ खेलने वहां चला गया था। इस बच्चे के सिर में गोली लगी थी। एक 12 साल के लड़के  का शव साथ ही पड़ा था। उसने एक तीन साल के बच्चे को कस कर अपनी बांहों में भरा हुआ था। शायद वह बच्चा उसका छोटा भाई था। इस तरह की कई घटनाएं एक नई किताब – ”आईविटनेस ऐट अमृतसर-ए वीजुआल हिस्ट्री ऑफ 1919 जलियांवाला बाग मसैकर’’। यह किताब दो सिख इतिहासकारों ने लिखी जो लंदन में रहते हैं। उन्होंने इस हत्याकांड के लगभग 40 प्रत्यक्षदर्शियों से बात करने के बाद यह पुस्तक लिखी है। अमनदीप सिंह मादरा और परमजीत सिंह की यह किताब 244 पन्नों की है और इसमें 80 चित्र ऐसे हैं जो पहली बार छपे हैं।

गोलीबारी को लेकर अंग्रेज़ सरकार ने लार्ड विलियम हंटर की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया। इस आयोग को आम बोलचाल की भाषा में हंटर आयोग का नाम दिया गया। जनरल डायर को उसके सामने पेश होने को कहा गया। डायर 19 नवबंर 1919 को आयोग के सामने पेश हुआ। उसने जो तर्क वहां दिए उसने सभी को स्तब्ध कर दिया। उसका वहां दिया गया बयान कुछ इस प्रकार था।

 डायर ने कहा – मैंने किसी को चेतावनी नहीं दी और मुझे तब तक गोली चलाने थी जब तक भीड़ तितर-बितर नहीं हो जाती। उस समय मुझे केवल अपने आदेशों का पालन करवाना था। वहां मार्शल लॉ की अवेहनला हुई थी और मेरा काम वहां इक_ी  भीड़ को रायफल की गोली से भगाना था। यदि मेरा आदेश नहीं माना जाएगा तो मैं तुरंत गोली चला दूंगा। यदि मैंने कम गोलियां चलाई होती तो उनका प्रभाव कम होता।’’

डायर ने कहा कि जो लोग वहां इक_ा हुए थे वे सभी बागी थे और सेना की स्पलाई को काटने की कोशिश कर रहे थे। इस कारण गोली चलाना मेरा कत्र्तव्य था। मेरे ख्याल में यह भी संभव था कि बिना गोली चलाए लोग चले जाते, पर वे फिर वापिस लौटते और मेरा मज़ाक उड़ाते।  घायलों को डाक्टरी सहायता न देने के बारे में उसने कहा कि हालात इसकी इज़ाज़त नहीं देते थे। उसने आगे कहा कि घायलों की सहायता करना मेरा काम नहीं था। वहां कई अस्पताल थे घायल वहां चले जाते।

कमीशन के एक सदस्य ने पूछा कि यदि दरवाजा बड़ा होता और आपकी अर्मड कारें अंदर जा पाती तो क्या आप लोगों पर मशीनगन से गोलियां बरसाते? डायर ने कहा कि शायद मैं ऐसा ही करता। सदस्य ने फिर कहा-उस हालात में मौंतें कहीं ज़्यादा होती? डायर ने कहा हां ऐसा ही होता। एक और प्रश्न पर डायर ने कहा कि वह बाकी पंजाब पर एक प्रभाव छोडऩा चाहता था इसलिए गोली चलाई।

अंग्रेज सरकार ने डायर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की थी। हालांकि भारत के क्रांतिकारी ऊधम सिंह ने 1940 में लंदन जाकर  फ्रांसिस ओ डायर को गोली मार दी जो जलियांवाला बाग गोलीकांड के समय पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर था। उसने जलियांवाला बाग गोलीकांड को सही कदम बताया था।