‘जम के दूत बड़े मरदूद’

जब होवेगी उमर पूरी ….और हम सबको एक दिन उड़ जाना है अकेले संत और निर्मोही हंस की तरह सब कुछ और विराट माया महाठगिनी को छोड़कर

स्व शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकली यानी पंडित कुमार गन्धर्व जी का आज जन्मदिन है उन्हें प्रणाम, 8 अप्रैल 1924 को जन्में कुमार जी एक विलक्षण व्यक्तित्व थे, आज उनकी स्मृतियों को बहुत सघनता से महसूस करते हुए कोमलता से आरोह अवरोह में खड़ा भीग रहा हूँ

उनकी स्मृति अक्षुण्ण है , देवास में चलते फिरते, सब्जी लेते, आम आदमी से मिलते, अपने घर के बड़े से झूले पर बैठे सुपारी काटते, मल्हार स्मृति मन्दिर के मंच पर लम्बा आलाप लेते बाबा की यादें अंदर तक सुरक्षित हैं

राहुल बारपुते, विष्णु चिंचालकर और बाबा डीके के संग ठठ्ठा लगाकर हंसते और अचानक गम्भीर बात कहते बाबा याद आ जाते हैं जब देर रात सुनता हूँ कौन नगरिया लूटल हो ठगवा कौन नगरिया ….

भारत भवन बन रहा है, देवास के छत्रपति गणेश मण्डल के वार्षिकोत्सव में मंच पर जो स्वनाम धन्य गायक या वादक गा – बजा रहें है वे भानुकुल से आये हैं बाबा के संग तांगे में बैठकर और कह रहे है कुमार के शहर में गाने का मज़ा ही कुछ और है , वसन्त निरगुने हो या अशोक वाजपेयी, सुदीप बैनर्जी या कोई और मुरीद

मित्र राजेश जोशी के घर उसके पिताजी के संग खारी बावड़ी के पास रँग पंचमी पर ठंडाई छन रही है और सब बाहर बैठकर ओटले पर रंगों से सरोबार हैं ग्लास भरे जा रहे हैं और कुमार जी कहते हैं यार एक बार ऐसा हुआ – किस्सागोई चालू है और हम हतप्रद से सुन रहें हैं औचक होकर

घर जाओ तो बाहर के हाल में पंखा नही पर लकड़ी की दीवारों से बना कमरा पदम सम्मानों से सजा है और वे कहते है – ये आला, बस इथे, काय शिकला आहे, संगीत मध्ये कुठला राग आवडतो, गुरुजी बरोबर गेला होता, कुठे, दिलीप भेटला कां

नईम कहते थे – कुमार गाता तो अच्छा है, एक फेफड़े से गाकर कबीर को खोल देता है, साला बंधुआ बना दिया है सबको, देवास में कुमार के नाम पर कुछ भी कर लो – गर्दन हिलाते लोग आकर बैठ जायेंगें सबके सब बंधुआ हैं, पर उच्चारण दोष बहुत हैं सु में सू हो जाता है इतना लंबा आलाप लेता है, मैं ठहरा हिंदी का मास्टर, उच्चारण दोष सह  नही पाता

एक सुबह सब खत्म, लोग रो रहे हैं, पहले भानुमति गई, उस युवा दिवस अर्थात 12 जनवरी को कुमार, फिर एक दिन वसुंधरा भी चली गई, मुकुल तो उनके जीते जी घर से चला गया था, उनका पुजारी शिवराम मुंगी भी – टेकड़ी के रास्ते पर बनें कर्नाटकी संगीत के आधार का मालवी संस्कृति में रचा और पगा, अपनत्व और वात्सल्य की कुटी बना घर अब संगीत की स्मृतियों का जलसाघर है जहाँ से वीणा वादिनी रूठ गई है

जम के दूत बड़े मरदूद जम से पड़ा झमेला – अब कबीर बाजार में तो है पर सिर्फ अपनी ख़ैर मांग रहा है चुनाव से लेकर लक्ष्मी की छाया में सहोदरों की भीड़ खोजते बेहद अकेला हो गया है कबीर, जब मिला तो मैंने पूछा कैसा गाते थे तुम्हे कुमार तो बोला – बहुत अच्छा, यकीनन कुमार अच्छा गाते थे पर उन्ही के साथ कबीर भी खत्म हो गया जो बचा था वह मुकुल शिवपुत्र के पास धरोहर है , बाकी तो कैसेट सुनकर घराने बनाने और कबीर को महफिलों में बेचने पर लगे है लोग

लिंडा हेस आती है कभी शबनम वीरमणि, कभी आये थे गुणाकर मुले अभी तक सैंकड़ों लोगों को उस द्वारे ले जा चुका हूँ पर अब ना शहर रहा जहां संगीत की स्वर लहरियाँ बहती थी रसधार के साथ, सूख गई क्षिप्रा क्षरित हो रही है टेकड़ी और सुर कर्कश हो गए है, शहरों की हवा कलुषित हो गई है कबीर मंडलियां खत्म होकर दर्दनाक दास्तानों में तब्दील हो रही हैं अब कोई नही कहता या गाता – ‘हिरणा समझ बुझ बन चरना’ और हम देवास वासी अब नही सुनते प्रभाती सुबह चार बजे से जो टेकड़ी पर बजती थी – ‘कुदरत की गत न्यारी या झीनी झीनी चदरिया या भोला मन जाने रे अमर मेरी काया भोला…’

पंडित जसराज जब उसी मंच से गाने आये और हम लोगों ने शाल ओढ़ाई तो बोले – माँ कालिका की गोद में बैठा हूँ और यह शाल मेरे पीछे मेरे अवगुणों को ढाँक देगी, कुमार का फोटो मुस्कुरा रहा है और जो गाया जसराज ने – ‘माता कालिका भवानी, जगत जननी भवानी’ उस दिन मंच से वैसा फिर कभी गा नही पाएं, इस मंच पर शोभा गुर्टू ने गाया हो, वसंतराव देशपांडे या बिस्मिल्ला खां साहब ने बजाई हो शहनाई या किरण देशपांडे का तबला या किशोरी अमोनकर या यूं कि कोई एक नाम बताओ बाबू साहब जो संगीत के आसमान पर उभरा और यहां दस्तक देकर ना गया हो

हिंदी के बड़े कवि अग्रज अशोक वाजपेयी जी से मुआफी सहित

तुम यहाँ से चले गए हो

पर

थोड़े नही पूरे के पूरे यहीं रह गए हो

[तटस्थ]