जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक हलचल

क्या मोदी सरकार इस केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव करवाने की तैयारी में है?

जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 से पहले का दृश्य याद कीजिए; वहाँ अचानक सेना की संख्या बढ़ायी गयी। अब क़रीब ढाई साल बाद केंद्र सरकार ने पिछले दिनों ऐसा ही किया है। चर्चा है कि जम्मू-कश्मीर में कुछ ‘बड़ा होने वाला है। इन घटनाओं के बीच जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा को एक से ज़्यादा बार दिल्ली बुलाया गया और कुछ महत्त्वपूर्ण बैठकें हुईं। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल का भी हस्तक्षेप रहा, लिहाज़ा इन्हें अहम माना जा सकता है। जो बड़ी घटना जून के तीसरे हफ़्ते हुई वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जम्मू-कश्मीर के ‘गुपकार गठबन्धन और कांग्रेस सहित अन्य नेताओं के साथ दिल्ली में बैठक थी। केंद्र शासित प्रदेश में परिसीमन की प्रक्रिया जारी है और चुनाव करवाने के अलावा राज्य के एक और विभाजन की बात भी राजनीतिक $िफज़ाँ में हैं, भले केंद्र इससे इन्कार कर रहा हो। जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा सबसे सम्भावित विकल्प माना जा रहा। वैसे पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए केंद्र को संसद की मंज़ूरी लेनी अनिवार्य होगी।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाकर उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के बाद स्थानीय ज़िला विकास परिषद् (डीडीसी) के चुनाव में कश्मीर की राजनीतिक पार्टियों का गुपकार गठबन्धन हावी रहा था। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि भाजपा परिसीमन के ज़रिये जम्मू-कश्मीर का सीटों के आधार पर फेरबदल करना चाहती है, ताकि जम्मू का प्रतिनिधित्व (विधानसभा में) कश्मीर से ज़्यादा हो सके। विपक्ष में रहते हुए भाजपा इसकी हमेशा माँग करती रही है। यहाँ तक कि वो जम्मू से भेदभाव का आरोप लगाते हुए हाल के दशकों में आन्दोलन भी करती रही है। जम्मू-कश्मीर को लेकर भाजपा का रुख़ हैरानी वाला रहा है। जिस पीडीपी पर वह 20 साल तक अलगाववादियों के प्रति ‘सॉफ्ट कॉर्नर रखने का आरोप का आरोप लगाती थी, उसी के साथ उसने सरकार बनायी। दो साल से ज़्यादा चली इस सरकार में भाजपा ने जम्मू वाले मसले और परिसीमन को लेकर कुछ नहीं किया। अब जबकि मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार अनुच्छेद-370 ख़त्म कर चुकी है और कश्मीर के हिस्से से लद्दाख़ के रूप में एक अलग केंद्र शासित राज्य बनाया जा चुका है, भाजपा अब परिसीमन के सहारे जम्मू को राजनीतिक और जनसंख्या के आधार पर कश्मीर से बड़ा करने की कोशिश में है।

लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। कश्मीर में निश्चित ही ऐसी किसी भी कोशिश का विरोध होगा। वैसे भी अभी तक कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने को स्वीकार नहीं किया गया है। भले इसे लेकर खुला विरोध नहीं हुआ है, लेकिन इसका एक कारण पिछले महीनों में वहाँ सेना की बड़ी संख्या होना भी है। दूसरे कोविड-19 के चलते घाटी में ज़िन्दगी का ठहर जाना है।

श्रीनगर में वरिष्ठ पत्रकार माज़िद जहाँगीर ने ‘तहलकाÓ से फोन पर बातचीत में कहा- ‘जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत से बाहर जैसी प्रतिक्रिया हुई है, उसे देखते हुए केंद्र सरकार यहाँ ठप पड़ी राजनीतिक गतिविधियों को शुरू करना चाहती है, ताकि कश्मीर को लेकर दुनिया में एक सकारात्मक सन्देश जाए और यह दिखे कि यहाँ स्थिति सामान्य है। चूँकि इसके लिए स्थानीय मुख्य धारा के दलों को साथ लेना ज़रूरी है, उनसे बातचीत का दौर शुरू हुआ है ताकि यह न लगे कि दिल्ली से कश्मीर पर फ़ैसले थोपे जा रहे हैं। यह तो ज़ाहिर ही है कि इन दलों को साथ लिए बिना कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होना सम्भव नहीं।

परिसीमन पर सवाल
परिसीमन के पहले क़दम के रूप में सरगर्मी तब तेज़ हुई, जब 6 मार्च, 2020 को जम्मू-कश्मीर परिसीमन आयोग का एक साल के लिए गठन किया गया था। सेवानिवृत्त जज रंजन प्रकाश देसाई को इसका चेयरमैन नियुक्त किया गया था। परिसीमन आयोग ने केंद्र शासित प्रदश के सभी 20 उप आयुक्तों से एक रिपोर्ट माँगी। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से 18 बिन्दुओं को शामिल किया गया था। दिलचस्प यह है कि दिल्ली में कमीशन की पहले बैठक और उसके बाद उप आयुक्तों से रिपोर्ट माँगने में कमीशन को गठन के बाद 15 महीने का लम्बा वक़्त लग गया। दरअसल प्रदेश में विधानसभा की सीटें बढ़ाना भी लम्बे समय से प्रस्तावित रहा है। जानकारी के मुताबिक, कुल सात नयी विधानसभा सीटों में से चार सीटें जम्मू और तीन कश्मीर में बढ़ेंगी। हाल में जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा की केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से दिल्ली में बैठकें हो चुकी हैं। इन बैठकों में ख़ुफ़िया ब्यूरो (आईबी) के प्रमुख अरविन्द कुमार, रॉ प्रमुख समंत कुमार गोयल, जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव ए.के. मेहता, जम्मू-कश्मीर डीजीपी दिलबा$ग सिंह और राज्य की डीजीपी सीआईडी रश्मि रंजन स्वैन और अन्य अधिकारी भी उपस्थित रहे हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला परिसीमन का विरोध तो नहीं कर रहे; लेकिन इसके अपनायी गयी प्रक्रिया का सख़्त विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि वे राज्य की जनता की लड़ाई लड़ते रहेंगे। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने फोन पर ‘तहलका से बातचीत में कहा- ‘परिसीमन आयोग का गठन पुनर्गठन क़ानून के तहत किया गया है लिहाज़ा यह गै़र-क़ानूनी है; क्योंकि इस क़ानून को चुनौती वाली याचिका पहले से सर्वोच्च न्यायालय में अभी लम्बित है। जब तक उस पर फ़ैसला नहीं आ जाता, तब तक इस तरह का गठन क़ानूनी रूप से अमान्य है। हालाँकि पार्टी ने केंद्र की बुलायी बैठकों में हिस्सा लेने की हामी ज़रूर भर दी, ताकि यह सन्देश न जाए कि इतनी महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया में उसकी भागीदारी नहीं रही। परिसीमन के बाद केंद्र शासित प्रदेश में अनुसूचित जाति को पहली बार जनसंख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व का अवसर मिलेगा। इसका कारण यह है कि परिसीमन के बाद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सात विधानसभा सीटों की नामावली (रोस्टर) बदल जाएगी। वैसे तो नियम यह कहता है कि हर दो विधानसभा चुनाव के बाद नामावली बदली जानी चाहिए। लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामले में अब तक चार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं; पर नामावली को इस दौरान कभी संशोधित नहीं किया गया।

यहाँ भी दिलचस्प यह है कि आरक्षित अनुसूचित जनजाति की यह सभी सीटें जम्मू में ही हैं। इनमें सांबा, चनैनी, रायपुर दोमाना और छंब हैं। चूँकि यह अब आरक्षित सीटों के दायरे से बाहर आनी हैं, आरक्षण में आने वाली सीटों को लेकर राजनीतिक दलों में सक्रियता बढ़ी हुई है। जम्मू-कश्मीर प्रशासन यह संकेत दे रहा है कि परिसीमन प्रक्रिया में पहले से बनी विसंगतियाँ दूर की जा सकती हैं। इसमें ऐसे विधानसभा क्षेत्रों पर भी नज़र रहेगी, जो एक से अधिक ज़िलों में फैले हों। साथ ही ऐसी तहसीलें, पटवार हलक़े, राजस्व गाँव भी, जो एक से ज़्यादा विधानसभा हलक़ों में फैले हों। परिसीमन में प्रवासियों की संख्या भी देखी जाएगी। पूर्वी पाकिस्तान से बँटवारे के समय भारत के इस हिस्से में आये लोगों को भी विधानसभा के लिए मताधिकार दिया जाना है। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा सीटों का जनसंख्या के लिहाज़ से बड़ा असन्तुलन है।

कई सीटें एक लाख मतदाताओं वाली हैं, तो कुछ में 50,000 के आसपास मतदाता हैं। इस बड़े अन्तर को पाटा जा सकता है। इसकी पूरी जानकारी परिसीमन आयोग में उप अ आसपास युक्तों से माँगी है। ज़ाहिर है परिसीमन की प्रक्रिया बहुत संवेदनशील रहने वाली है। जम्मू के प्रतिनिधि, ख़ासकर भाजपा, इस सम्भाग को अधिक सीटों की माँग करते रहे हैं, जबकि कश्मीर के प्रतिनिधि (मुख्य अनुच्छेद की कश्मीरी पार्टियाँ) जनसंख्या संतुलन में परिवर्तन करके कश्मीर को कमज़ोर करने की साज़िश का आरोप लगाते रहे हैं। यह लड़ाई पहले से चल रही है और यदि परिसीमन में बड़ा उलटफेर हुआ, तो ज़ाहिर है इससे कश्मीर में बहुत शोर मचेगा, जो अनुच्छेद-370 और जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म करने का पहले से मुखर विरोध कर रहा है। यहाँ तक की राष्ट्रीय दल कांग्रेस में भी केंद्र के इन फ़ैसलों से बड़े स्तर पर असहमति है। इस मसले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम का कहना है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए। चिदंबरम ने कहा- ‘कांग्रेस का शुरू से रुख़ रहा है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए, इसमें किसी भी सन्देह या अस्पष्टता नहीं रहनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को दोबारा लागू किया जाना चाहिए।


सैनिकों की संख्या बढ़ायी
जम्मू-कश्मीर को लेकर मोदी सरकार परदे के पीछे ख़ासी सक्रिय है। ट्रैक-2 पर कूटनीति जारी है। अब तो जम्मू-कश्मीर के नेताओं से प्रधानमंत्री मोदी की बैठक भी हो चुकी है। इस सारी क़वायद के बीच जून के मध्य में जब जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी लम्बे समय के बाद दिल्ली पहुँचे, जिसके बाद चर्चाओं को और बल मिला। लेकिन इस दौरान जो सबसे बड़ा घटनाक्रम हुआ है, वह घाटी में अचानक सुरक्षा बलों की संख्या बढऩा है।
‘तहलका की जानकारी के मुताबिक, मई और जून में सुरक्षा बलों की 50 से 60 के बीच कम्पनियों को जम्मू-कश्मीर रवाना किया गया है। अगस्त, 2019 में जब जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा संसद में बिल के ज़रिये ख़त्म किया गया था, तब भी सूबे में बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की अतिरिक्त तैनाती की गयी थी। हालाँकि 2020 में कोरोना महामारी के चलते हुई तालाबंदी के दौरान इनकी संख्या कम कर दी गयी थी। अब अचानक जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की अतिरिक्त तैनाती ने चर्चाओं को जन्म दिया है।

घाटी की मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों का रुख़ पहले बहुत सख़्त था और वो दिल्ली से कोई बातचीत करने के हक़ में नहीं थीं; लेकिन धीरे-धीरे उनका रुख़ कुछ नरम हुआ है। परिसीमन के सख़्त विरोधी रहे पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के सर्वेसर्वा फ़ारूक़ अब्दुल्ला, जिनका घाटी में अन्य किसी भी नेता के मुक़ाबले जनता के बीच सबसे ज़्यादा असर है; भी जून के दूसरे हफ़्ते परिसीमन को लेकर नरम पड़े। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा कि उनकी पार्टी परिसीमन के ख़िलाफ़ नहीं है और केंद्र से बातचीत के विकल्प खुले रख रही है। इसके बाद ही प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने 24 जून की बैठक की घोषणा की।

जानकारी के मुताबिक, परिसीमन आयोग को सितंबर के आख़िर तक अपना काम पूरा करने की सलाह दी गयी है। यदि मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विधानसभा का दर्जा बहाल करने का मन बनाती है या वहाँ केंद्र शासित व्यवस्था के तहत ही चुनाव करवाने की सोच रही है, तो ऐसा दिसंबर और मार्च से पहले या बाद में ही किया जा सकता है। यह चार महीने बर्फबारी के कारण वहाँ चुनाव सम्भव नहीं होते। सेना की संख्या बढ़ाने का एक बड़ा कारण यह हो सकता है कि आतंकवादियों के चुनाव प्रक्रिया में खलल डालने का ख़तरा हो। नई दिल्ली में यह आम विचार है कि पाकिस्तानी सेना, आईएसआई और आतंकवादी कश्मीर में चुनाव नहीं होना देना चाहेंगे। नई दिल्ली में यह भी गहरे से महसूस किया जा रहा है कि सरकार और जम्मू-कश्मीर की जनता के बीच संवाद बिल्कुल ख़त्म हो गया है तथा वहाँ अविश्वास और गहरा हुआ है। भले उप राज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) राजनीतिक पृृष्ठभूमि के हैं, वह चुने हुए स्थानीय विधायक की तरह जनता से संवाद नहीं रख सकते। सुरक्षा भी इसका एक बड़ा कारण है। डीडीसी के चुनाव के बाद अब मोदी सरकार विधानसभा के चुनाव को लेकर गम्भीर दिख रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कश्मीर को लेकर जो कहा जाता है, चुनाव करवाकर उस पर भी विराम लगाया जा सकता है। वर्तमान स्थिति पाकिस्तान के बहुत अनुकूल है और उसने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का राग ख़ूब अलापा है। पाकिस्तान कश्मीरी अवाम पर ज़ुल्म की बात अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर करता है, लिहाज़ा इससे भारत की छवि को नुक़सान पहुँचता है। चाहे इन आरोपों में उतना सच न हो। वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सन् 2014 के बाद भारत की यह आम छवि बन रही है कि मुसलामानों से भेदभाव किया जा रहा है। चूँकि कश्मीर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है, इसलिए वहाँ पाकिस्तान को प्रोपेगंडा करना और आसान हो जाता है।

कश्मीर में राजनीतिक सक्रियता
इन घटनाओं के बीच जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला तो दिल्ली पहुँचे ही, श्रीनगर में भी महीनों से ठप पड़ी राजनीतिक गतिविधियाँ अचानक तेज़ हुई हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और माकपा के अलावा अन्य क्षेत्रीय दलों ने एक से ज़्यादा बार बैठकें की हैं। यही नहीं, कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने का विरोध करने और इसकी बहाली की माँग के लिए बने गुपकार गठबन्धन की बैठकें शुरू हुई हैं।
कांग्रेस, जम्मू-कश्मीर में ख़ासा प्रभाव रखती है और उसकी 2002 में पीडीपी के नेतृत्व और 2005 में अपनी गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार रही है। हाल के महीनों में कांग्रेस भाजपा और मोदी सरकार के जम्मू-कश्मीर को लेकर रुख़ के ख़िलाफ़ रही है। इसके बावजूद कांग्रेस ने 24 जून की बैठक में हिस्सा लेकर जम्मू-कश्मीर में अपनी सक्रियता जता दी है। इसी दौरान पीडीपी के वरिष्ठ नेता सरताज मदनी, जो महबूबा मुफ़्ती के नज़दीकी रिश्तेदार भी हैं; की अचानक रिहाई और अगले ही दिन पूर्व शिक्षामंत्री नईम अख़्तर की नज़रबंदी समाप्त करने के फ़ैसले भी हुए, जिससे राजनीतिक माहौल को पुनर्जीवित करके के ठोस संकेत मिले। विधानसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर सरताज मदनी और अख़्तर को 21 दिसंबर, 2020 को अहतियात के तौर पर हिरासत में लिये गये थे।

श्रीनगर में 22 जून को गुपकार की बैठक में आख़िर फ़ैसला किया गया कि उसके सभी नेता, जिन्हें दिल्ली से 24 की बैठक में शामिल होने के लिए न्यौता आया है; इस बैठक में शामिल होंगे। इससे पहले पीडीपी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने बैठक में शामिल होने से इन्कार कर दिया था। बैठक के बाद नेशनल कांग्रेस के प्रमुख फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ सर्वदलीय बैठक में कश्मीर के सभी नेता शामिल होंगे। फ़ारूक़ ने कहा कि हम सभी सर्वदलीय बैठक में अपनी बात प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के सामने रखेंगे। केंद्र की ओर से बैठक का कोई भी एजेंडा स्पष्ट नहीं किया गया है। बता दें इससे पहले जम्मू-कश्मीर के चार मुख्यमंत्रियों सहित 14 नेताओं को न्यौता दिया गया था, जिसमें आठ पार्टियाँ- एनसी, पीडीपी, भाजपा, कांग्रेस, जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी, माकपा, पीपुल्स पार्टी और पैंथर्स शामिल थीं।