जब सफर ही मेरा फासलों का धोका था

शायरा फहमीदा रियाज को पाकिस्तान में भारत का एजंट करार कर दिया गया था। पाकिस्तान में 1977 में फौजी हुकूमत आने और जनरल जिया उल हक से टकराने के कारण उनकी नौकरी गई और उन्हें मिला देश निकाला। फहमीदा ने पति के साथ भारत में शरण ली। यहां वे जनरल जिया की 1988 में मौत तक रहीं। मेरठ में ही उनकी और उनके पुरखों की नाल भी गड़ी थी। लेकिन भारत विभाजन के बाद वे पाकिस्तान जा बसे थे। इस तारीखी आवाजाही की व्यर्थता का अहसास भी उन्हें था। इसे एक शेर में उन्होंने जाहिर भी किया

‘मुझे मआल-ए-सफर का मलाल क्यों कर हो के जब सफर ही मेरा फासलों का धोका था’ भारत में भी हुकूमत की उन्हेें रास नहीं आई। उन्होंने देखा कि यहां धर्मनिरपेक्ष भारत भी पाकिस्तान से उन्नीस नहीं तो उन्होंने यह तंजिया नज़्म लिखी-

‘तुम बिलकुल हम जैसे निकले

अब तक कहां छिपे थे भाई।’

वो मूरखता वो घामड़पन

जिसमें हमने सदी गंवाई

अरे बधाई, बहुत बधाई

विद्रोही तबियत की बेबाक शायरा फहमीदा रियाज नहीं रही उन्होंने 73 साल की उम्र में लाहौर में आखिरी सांस ली। उन्होंने अपनी शायरी के जरिए सत्ता की चूलें हिलाने की जुर्रत थी। झूठी शान में $गर्क पुरु ष सत्तात्मक समाज को ललकारा। विद्रोह न सिर्फ उनके कलाम में था बल्कि उनकी जीवन शैली में भी था।

यह शायरा अपने कलाम से महिलाओं को घुटन भरे माहौल से निकलने की मुसलसल प्रेरणा देती रही। अपने देश की कट्टरपंथी हुकूमत की जिल्लत झेलती रही। पाकिस्तान में जब जनरल अयूब खान ने छात्र राजनीति पर ताला जड़ा तो फहमीदा रियाज़ ने उनकी इस हरकत के खिलाफ आवाज बुलंद की। इसका $खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा। उन्हें मुशायरों में बुलाना बंद कर दिया गया। उन पर पहरा लग गया। लेकिन वे तानाशाहों से टकराने से पीछे नहीं हटीं। उन्होंने कभी यह नहीं छिपाया कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं। नतीजा उन्हें पाकिस्तान में भारत का ऐजेंट करार दिया गया। उन्हें देश निकाला मिला।