जब दादा ने कहा गोल मत करो, इन्हें बस दौड़ाते रहो।

बात 1936 के बर्लिन ओलंपिक की है। भारतीय हाकी टीम की कप्तानी विश्व के सर्वश्रेष्ट खिलाड़ी ध्यानचंद को दी गई थी। यह ऐसा समय था जब दुनिया का कोई भी देश हाकी के खेल में भारत के सामने खड़ा भी नहीं हो सकता था। ध्यानचंद का यह तीसरा और आखिरी ओलंपिक था।

इस बार भारत थोड़ा उहापोह की स्थिति में था। इसका कारण था कि एक अभ्यास मैच में जर्मनी ने भारत को 4-1 से हरा दिया था। भारत के लिए यह चिंता का विषय था । इस विषय पर भारतीय हाकी के पदाधिकारियों की एक बैठक हुई। इस बैठक में फैसला हुआ कि टीम को मज़बूत करने के लिए अली इकतिदार शाह दारा को टीम में लिया जाए। यह वही दारा थे जिन्होंने भारत विभाजन के बाद 1948 में ओलंपिक में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व किया ।

बर्लिन में भारत की शुरूआत अच्छी रही। उसने सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 से, और फाइनल में मेजबान जर्मनी को 8-1से हरा कर स्वर्ण पदक जीता। इस मैच में एक रोचक घटना हुई। जर्मन के गोलकीपर टीटो वार्नहोल्ज़ से टकरा कर ध्यानचंद एक एक दांत टूट गया। टीटो को वैसे भी बहुत आक्रामक गोलरक्षक माना जाता था।

ध्यानचंद ने मैदान के बाहर जा कर डाक्टरी सहायता ली और अंदर आते ही टीम के सदस्यों से कहा कि अब हम इन जर्मन खिलाडिय़ों को सबक सिखांएगे। हम इन पर गोल नहीं करेंगे। इसके बाद भारतीय खिलाडी जर्मन की ‘डी’ में गेंद ले जाते और फिर धुमाफिरा कर वापिस ले आते। बस गेंद जर्मन खिलाडिय़ों को छूने भी न देते। इसके बावजूद इस टूर्नामेंट में ध्यानचंद ने 11 गोल किए। इतने ही गोल उनके भाई रूप सिंह ने भी किए थे।

इससे पूर्व 1932 के लास एंजलेस ओलंपिक में भारत ने दो मैचों में 35 गोल किए थे जबकि उनके खिलाफ दो ही गोल हो पाए। इन मुकाबलों में भारत ने जापान को 11-1 और मेजबान अमेरिका को 24-1 से परास्त किया था। इन 35 गोलों में से 12 गोल ध्यानचंद ने , 13 गोल उनके भाई रुप सिंह ने , 8 गोल गुरमीत सिंह खुल्लर ने व एक-एक गोल ब्रूम पीन्निगर और रिचर्ड कार ने किए। उसी ओलंपिक के एक मुकाबले में जापान ने अमेरिका को 9-2 से हरा कर रजत पदक जीता था।

दादा ध्यानचंद ने 31 वर्ष की आयु में रिटायरमेंट लेने से पहले तीन ओलंपिक खेलों में हिस्सा लिया और तीन स्वर्ण पदक जीते। उन्होंने सबसे पहले 1928 में एमेस्ट्रडम ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया। यह पहला मौका था जब भारतीय हाकी टीम ओलंपिक में खेलने गई थी। 1928 में भारत ने लीग मे चार मैच खेले थे। उस समय भारत के पूल में बेल्जियम, डेनमार्क, स्विटजऱलैंड और आस्ट्रिया की टीमे थी। इन चार मैचों में भारत ने कुल 26 गोल किए जबकि भारत पर एक भी गोल नही हो पाया। इस दौरान भारतीय टीम ने आस्ट्रिया को 6-0 से , बेल्जियम को 9-0 से , डेनमार्क को 5-0 से और स्विटजऱलैंड को 6-0 से पराजित किया था।

दूसरे पूल में नीदरलैंड्स ने तीन मैच खेले और दो जीते। यही स्थिति जर्मनी की भी थी। उसने भी दो मैच जीते, फ्रांस ने एक और स्पेन ने कोई मुकाबला नहीं जीता। यहां पर जर्मनी ने बेल्जियम को 3-0 से हार कर कांस्य पदक जीता पर स्वर्णपदक भारत को मिला। जयपाल सिंह के नेतृत्व में गई इस टीम ने फाइनल में नीदरलैंड्स को 3-0 से परास्त किया। भारत के लिए तीनों गोल ध्यानचंद ने किए। इस टूर्नामेंट में ध्यानचंद ने कुल 14 गोल किए। फिरोज खान ने पांच और भारत के ही जार्ज मार्टिन ने भी पांच ही गोल किए। इस प्रकार तीन ओलंपिक खेलों में ध्यानचंद ने 12 मैच खेले और 33 गोल किए।

भारत पर गोल कैसे हुआ?

भारत ने जापान को 11-1 से हराया था। जब अमेरिका के साथ मुकाबला चल रहा था तो भारत ने धड़ाधड गोल करने शुरू कर दिए। अंत में भारत ने इस मैच को 24-1 से जीता। पर जो गोल भारत पर हुआ उसकी एक रोचक कहानी है। भारतीय खिलाड़ी गोल करते-करते इतने बोर हो गए कि उनकी रक्षा पंक्ति ने सोचा कि एक बार तो अमेरिकियों को अपनी ‘डी’ में आने देते हैं। यही सोच उन्होंने अमेरिकी फारवर्डों को खुला छोड़ दिया। पर जब उन्होंने पीछे देखा तो टीम के गोल रक्षक रिचर्ड ऐलन कहीं दिखाई नहीं दिए। पता चला कि रिचर्ड तो गोल पोस्ट के पीछे खड़े अपने प्रशंसकों को ‘आटोग्राफ’ दे रहे थे।