जज को भारी पड़े विवादास्पद फैसले

बाल यौन हिंसा के दो मामलों पर अतिरिक्त न्यायाधीश ने सुनाया था फैसला, सर्वोच्च न्यायालय ने वापस लिया स्थायी न्यायाधीश की नियुक्ति का प्रस्ताव

बॉम्बे उच्च अदालत की नागपुर एकल पीठ की अतिरिक्त न्यायाधीश पुष्पा गनेडीवाला ने यौन उत्पीडऩ सम्बन्धी दो मामलों में जो फैसला सुनाया, उस पर बाल अधिकार व महिला अधिकार संगठनों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। इससे कई गम्भीर सवाल खड़े हो गये हैं। अतिरिक्त न्यायाधीश पुष्पा गनेडीवाला ने 19 जनवरी को पारित एक आदेश में कहा कि किसी हरकत को यौन हमला माने जाने के लिए गन्दी मंशा से त्वचा से त्वचा का सम्पर्क होना ज़रूरी है। उन्होंने अपने फैसले में कहा कि महज़ छूना भर यौन हमले की परिभाषा में नहीं आता। यह बाल यौन अपराध संरक्षण एक्ट (पॉक्सो) के तहत अपराध नहीं माना जा सकता। फिर 28 जनवरी को एक अन्य मामले में फैसला सुनाते हुए उन्होंने कहा कि बच्ची का हाथ पकड़कर पैंट की जिप खोलना पॉक्सो एक्ट के तहत यौन शोषण के दायरे में नहीं आता, बल्कि यह आईपीसी की धारा-354ए (आई) के तहत यौन उत्पीडऩ के दायरे में आता है।

सत्र अदालत ने इस मामले में आरोपी को 12 साल से कम आयु की लड़की के साथ छेड़छाड का दोषी मानते हुए उसे पाँच साल की सज़ा सुनायी थी। नाबालिग लड़की की माँ ने शिकायत दर्ज कराते हुए कहा था कि व्यक्ति ने अपनी पैंट की जिप खोलकर उसकी बेटी का हाथ पकड़ रखा था। आरोपी ने इस फैसले के खिलाफ उच्च अदालत में अपील की थी। दरअसल सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने 27 जनवरी को 19 जनवरी वाले विवादास्पद फैसले पर रोक लगा दी और अब सबकी निगाहें सर्वोच्च अदालत पर टिक गयी हैं। शीर्ष अदालत ने उच्च अदालत के असवेंदनशील फैसले पर रोक लगाकर सही कदम उठाया; क्योंकि उच्च अदालत का यह प्रतिगामी फैसला बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) 2012 की मंशा बाल संरक्षण के उलट है। दरअसल नागपुर दिसंबर, 2016 वाले मामले में आरोपी सतीश पर आरोप है कि वह 12 साल की नाबालिग लड़की को कुछ खिलाने के बहाने अपने घर ले गया था, जहाँ उसके वक्षस्थल को छुआ। पीडि़त बच्ची ने बताया कि 39 साल के सतीश ने उसके शरीर को छूने और निर्वस्त्र करने की कोशिश की थी।

पीडि़त बच्ची के इस बयान को अहम मानते हुए नागपुर की एक सत्र अदालत ने आरोपी को पॉक्सो एक्ट के तहत तीन साल और आईपीसी के तहत एक साल की सज़ा सुनायी थी। आरोपी ने सत्र अदालत के इस फैसले के खिलाफ उच्च अदालत में अपील की और उच्च अदालत ने सत्र अदालत के आदेश में संशोधन करते हुए दोषी को पॉक्सो एक्ट के तहत तो बरी कर दिया और आईपीसी की धारा -54 में एक साल की कैद बरकरार रखी। उच्च अदालत ने कहा कि यह महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने का अपराध बनता है। लेकिन इसके साथ यह भी साफ कर दिया कि चूँकि व्यक्ति ने बच्ची के बदन से कपड़े हटाये बिना उसका स्पर्श किया था, इसलिए उसे यौन उत्पीडऩ नहीं कहा जा सकता है। दरअसल बॉम्बे उच्च अदालत की नागपुर पीठ के इस फैसले से पॉक्सो एक्ट की मूल भावना, मंशा को ही एक तरह से ठेस पहुँची है और इससे यही ध्वनित होता है कि कपड़ों के ऊपर से गलत मंशा से छूना कोई बड़ा अपराध नहीं है। पॉक्सो एक्ट की यह सीमित व प्रतिगामी व्याख्या बहुत खतरनाक है। क्या यह सही है कि किसी नाबालिग को छूना केवल इसलिए वैध मान लिया जाएगा, क्योंकि त्वचा का त्वचा से सम्पर्क नहीं हुआ है। सवाल यह है कि पूरे कपड़ों में क्या शोषण नहीं किया जा सकता? क्या किसी को कपड़े के ऊपर से छूना पॉक्सो एक्ट के तहत यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता? गौरतलब है कि बाल अधिकार संगठनों के कड़े संघर्ष के बाद बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) 2012 बनाया गया। यह अधिनियम यह स्वीकार करता है कि बच्चों को खासतौर पर निशाना बनाया जा सकता है। लिहाज़ा जब पीडि़त कोई बच्चा हो, तो उसके संरक्षण के लिए विशेष कदम, आईपीसी से परे कानून की ज़रूरत होती है।

बाल संरक्षण के लिए है पॉक्सो

गौरतलब है कि पॉक्सो अधिनियम-2012 बच्चों को यौन अपराधों, यौन शोषण और अश्लील सामग्री से संरक्षण प्रदान करने के लिए लाया गया था। इसका मकसद बच्चों के हितों की रक्षा करना व उनका कल्याण सुनिश्चित करना है। इस अधिनियम के तहत बच्चों को 18 साल से कम आयु के व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया और हर स्तर पर बच्चों के हितों और उनके कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए उनके शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास को सुनिश्चित किया गया है। इस कानून के ज़रिए नाबालिग बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों और छेड़छाड़ के मामलों में कार्रवाई की जाती है। इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सज़ा का प्रावधान है। भारत के संविधान का अनुच्छेद-15 (3) राज्य को बच्चों के हित की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है। क्योंकि यह माना जाता है कि बच्चे छोटी उम्र और दूसरों पर निर्भरता की वजह से समाज में अन्य लोगों की तुलना में कमज़ोर होते हैं। संयुक्त राष्ट्र की महासभा के द्वारा पारित बाल अधिकार के मानकों को ध्यान में रखते हुए पॉक्सो अधिनियम बनाया गया था और इस बाल अधिकार कंवेशन पर भारत सरकार ने दिसंबर 1992 में अपनी सहमति दर्ज करायी थी। इस बाल अधिकार कंवेशन के अनुच्छेद-3 में परिवार, स्कूल, स्वास्थ्य संस्थाओं और सरकार पर बच्चों के हितों को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी डाली गयी है।

बॉम्बे उच्च अदालत की नागपुर एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा कि आरोपी के खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं मिले, जिसके आधार पर उसे पॉक्सो के तहत न्यूनतम तीन साल की सज़ा दी जा सके। लिहाज़ा अदालत उसे महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने के जुर्म में आईपीसी की धारा-354ए के तहत एक साल की सज़ा बरकरार रखती है। अदालत का यह निष्कर्ष रूढि़वादी प्रतीत होता है, जिसमें यौन हमलों / उत्पीडऩ के शिकार बच्चों के मनोविज्ञान को नज़रअंदाज़ करना झलकता है। बचपन में यौन हिंसा व अन्य हिंसा के शिकार बच्चे अक्सर ताउम्र उस पीड़ा से गुज़रते रहते हैं। उन्हें अवसाद घेर लेता है और कई बार बच्चे आत्महत्या करने को विवश हो जाते हैं। कई मर्तबा अदालतें सुबूतों की कमी के मद्देनज़र आरोपी को कम सज़ा सुनाती हैं या आरोप से बरी भी कर देती हैं।

बच्चों पर बढ़ते यौन हमलेे

बच्चों के खिलाफ यौन उत्पीडऩ / यौन हमले के मामले बढ़ रहे हैं और ऐसे मामलों में दोषी पाये जाने की दर भी कम है। इसकी कई वजहों में एक तरफ अदालतों व उनसे सम्बन्धित ढाँचे, स्टाफ की कमी, तो दूसरी तरफ पुलिस व न्यायपालिका में कार्यरत अधिकारियों व कर्मचारियों को बाल पीडि़तों के साथ हमदर्दी से प्रशिक्षण देने की कमी आदि है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने अक्टूबर, 2019 में वर्ष 2017 के आँकड़े जारी किये और उन आँकड़ों के मुताबिक, देश में 28,152 बच्चियों के साथ हुए बलात्कार के मामलों को आईपीसी व पॉक्सो अधिनियम के तहत दर्ज किया गया था। इनमें से 151 लड़कियों की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गयी थी। सन् 2017 की यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि फास्ट ट्रैक अदालतों में जिन मामलों की सुनवाई हो रही थी, उनमें से 40 फीसदी से अधिक मामलों को निपटाने में तीन साल से अधिक का समय लगा। फास्ट ट्रैक अदालतों में कई मामले तो 10 साल तक लटके रहते हैं। मुल्क में बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों का रिकॉर्ड रखने के प्रति कितनी उदासीनता व तंत्र की कमज़ोरी को लेकर जुलाई, 2019 में सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की खिंचाई भी की थी।

दरअसल राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के लिए पॉक्सो अधिनियम के अमल की निगरानी करना अनिवार्य है। आँकड़ों को रखना उनकी वैधानिक ज़िम्मेदारी है। लेकिन जब शीर्ष अदालत ने इस आयोग से पॉक्सो अधिनियम के तहत देश भर में दर्ज मामलों के बारे में जानकारी माँगी, तो पता चला कि उनके पास वह जानकारी पूरी नहीं है। इस पर तत्कालीन प्रमुख न्यायाधीश रंजन गगोई ने टिप्पणी की थी कि सात साल से राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग का क्या कर रहा था? दुनिया में महाशक्ति बनने व पाँच खरब वाली अर्थ-व्यवस्था बनने की दिशा में अग्रसर होने का दावा करने और विश्व गुरु बनने का सपना देखने वाले इस देश में बच्चे सुरक्षित नहीं हैं।

यहाँ राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग व राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग का गठन तो कर दिया गया, लेकिन क्या वे अपना दायित्व उस मंशा से निभा पा रहे हैं, जिस मंशा से उन्हें बनाया गया? क्या फंड की कमी, संसाधनों की िकल्लत या अफसरशाही उनकी राह में रुकावट है? पॉक्सो अधिनियम को और प्रभावशाली बनाने के लिए बाद में इसमें संशोधन भी किये गये। न्यूनतम सज़ा बढ़ा दी गयी है। संशोधित कानून में 12 साल से कम आयु के बच्चों के साथ दष्कर्म के दोषी व्यक्ति के लिए फाँसी की सज़ा का उपबन्ध जोड़ा गया है। बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय ने बॉम्बे उच्च अदालत की अतिरिक्त जज पुष्पा गनेडीवाला के उक्त विवादास्पद फैसलों के चलते उन्हें स्थायी न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति प्रस्ताव की मंज़ूरी वापस ले ली है। सर्वोच्च अदालत ने ऐसा करके एक बहुत बड़ा सन्देश देश की आम जनता व कानून की पढ़ाई करने वालों, वकालत करने वालों व न्यायालयों में मामलों का फैसला सुनाने वालों तक पहुँचा दिया है।