छात्रों को निगल रही अंधी सनक

जून की दहकती गर्मी में वायु सेना के सार्जेन्ट पद से सेवानिवृत्त हुए 60 से 65 वर्षीय कुलदीप रस्तोगी तडक़े अपनी बेटी दीपांशी के साथ बदायूँ से जयपुर पहुँचे थे। वह दीवान से टेक लगाये सोफे पर बैठी अपनी बेटी दीपांशी से मुखातिब थे। उनके चेहरे पर ग़ुस्से के तेवर साफ़ नज़र आ रहे थे। बाप-बेटी के बीच किसी गरमागरम मुद्दे को लेकर छिड़ी बहस ने लेकर अब तक दीवान पर लेटने की मुद्रा में पसरे हुए रस्तोगी दीपांशी के जवाब पर एकाएक तमक कर खड़े हो गये। वह आवेश में बेटी से बोले, तो यह तुम्हारा आख़िरी फ़ैसला है कि ‘तुम कोचिंग ज्वाइन नहीं करोगी? तुम हमारी उन उम्मीदों पर पलीता लगाने पर तुली हो, जो हमने यह सोचकर लगा रखी थी कि एक दिन आईआईटियन बनकर परिवार का नाम रोशन करोगी।’

दीपांशी ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा- ‘पापा! आप इतना उखड़ क्यों रहे हैं? जो सब्जेक्ट मेरी च्वाइस में नहीं है, उसे सिर्फ़ आपकी बेजा ख़्वाहिशों की ख़ातिर ढोल की तरह गले में लटकाने से मेरा क्या फ़ायदा? फोटोग्राफी मेरा शौक़ है। मेरा पैशन है। मुझे इसमें कुछ करने दीजिए। इसमें भी तो मैं अपना करियर बना सकती हूँ। इसमें क्या दिक़्क़त है आपको? कैसे बाप हैं आप? जो मेरी भावना की बलि चढ़ाने पर तुले हैं। सिर्फ़ अपनी आन की ख़ातिर, ताकि सोसायटी में ज्ञान बघार सकें कि देखो मैं उस टॉपर आईआईटियन बेटी का बाप हूँ, जिसने कट ऑफ में अपना अव्वल मुक़ाम बनाया है।’ बुरी तरह रुआँसी हो चुकी दीपांशी ने एक पल रुककर कहा- ‘पापा मेरा यह आख़िरी ही नहीं, पहला फ़ैसला था। आख़िरी फ़ैसला तो इसे आप बना रहे हैं। आख़िर जो दवा मुझे पीनी ही नहीं, वो आप मेरे गले में जबरन क्यों उड़ेल रहे हैं?’

दीपांशी के दो-टूक जवाब से तिलमिलाये हुए रस्तोगी उफनते ग़ुस्से पर क़ाबू पाने की बजाय उस पर झपट पड़े। दीपांशी को बुरी तरह झिंझोड़ते हुए बोले- ‘अब मैं क्या मुँह लेकर घर वापस जाऊँगा? तूने तो मेरे अरमानों की अरथी ही निकाल दी। इससे तो अच्छा है, तुझे भी मार दूँ और ख़ुद को भी ख़त्म कर लूँ?

सुबह 10:00 बजे तक भी जब रस्तोगी का कमरा नहीं खुला और दस्तक देने के बावजूद कोई जवाब नहीं मिला, तो क़रीब तीन बार चाय की ट्रे लेकर वापस लौट चुका होटल का वेटर आशंकाओं से शकपकाया हुआ मैनेजर के पास पहुँचा। हाँफते हुए जितना कुछ उसने बताया, मैनेजर ने भी कमरा खुलवाने के लिए वही कोशिश दोहरायी। अंदेशा यक़ीन में बदल चुका, तो आख़िर सबने मिलकर दरवाज़ा तोड़ दिया। कमरे का दृष्य देखते ही मैनेजर की आँखें फटी रह गयीं। दीपांशी सोफे पर मरी पड़ी थी और रस्तोगी की लाश पंखे से लटक रही थी।’

दूसरी घटना सार्थक की है। आईआईटी की तैयारी के लिए उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से आया सार्थक हॉस्टल की बजाय कॉलोनी के मकान में अपने रिश्तेदारों के पास रह रहा था। पिछले पाँच घंटे से अपने ग्राउंड फ्लोर के कमरे में किताबों में सिर गड़ाये हुए था। रात के 10:00 बज चुके थे। लेकिन खाना खाने के लिए नहीं पहुँचने पर परिजनों ने कमरे के बाहर दस्तक दी। खाने के पुरज़ोर आग्रह के बावजूद उसने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि भूख लगने पर वो ख़ुद किचन से लेकर खाना खा लेगा। सार्थक को अनमना देखते हुए घर वालों ने ज़्यादा आग्रह भी नहीं किया। कमरे में उसकी स्टडी टेबल पर किताबों का ढेर लगा हुआ था। लेकिन उसकी उचटती निगाह रह-रहकर पापा के उस पत्र की पंक्तियों में उलझ जाती थी, जिसमें कहा गया था- ‘याद रखना बेटे! तुम्हें 70 प्रतिशत नंबर लाने हैं। वरना सब बेकार चला जाएगा। …बड़े जोड़-तोड़ के साथ इतनी बड़ी रक़म जुटायी है और अगर तुम्हारी मेहनत ठीक नहीं रही, तो हम बुरी तरह क़र्ज़े में डूब जाएँगे। याद रखना बेटा! पूरे परिवार का भविष्य तुम्हारे हाथ में है…।’

यह चिट्ठी आये क़रीब तीन दिन बीत चुके थे। सार्थक को तनाव में देखकर उसके एक सहपाठी वीरेन्द्र ने बड़े आग्रह के साथ पूछा, तो सार्थक बुरी तरह फफक पड़ा,। अब 70 परसेंट नहीं आये, तो क्या होगा?’ वीरेन्द्र ने उसे तसल्ली भी दी- ‘टेंशन क्यों लेता है यार! अपना काम है जमकर मेहनत करना। फिर क्यों नहीं आएँगे 70 परसेंट? लेकिन सार्थक चाहकर भी न तो अपने आपको तसल्ली दे सका और न ही बढ़ते दबाव से मुक्त हो पाया। अगली सुबह घर में मौत का सन्नाटा पसर गया। देर तक दस्तकों के बाद भी कोई हरकत नहीं हुई, तो घरवालों ने दरवाज़ा तोडक़र खोला, सार्थक की लाश पंखे से झूल रही थी। स्टडी टेबल पर एक पुर्जे में चंद वाक्य लिखे थे- ‘पापा! इतना प्रेशर नहीं झेल पाया। यही बात दिनों-दिन खाये जा रही थी कि 70 परसेंट नहीं आये, तो क्या होगा? पापा! आप मेरे भाई को मेरी तरह अपने से अलग मत करना।’

तनाव से बचने के लिए मरहम लगाने वालों के लिए तो यह स्थिति और त्रासद होती है। बावजूद उन्हें भी माँ-बाप की सनक का शिकार होना पड़ता है। कीर्ति नामक काऊंसलर भी अपने आपको इस सनक से नहीं बचा सकी। भावनात्मक पीड़ा से निजात पाने के लिए उसने भी यही राह अपनायी। तीन वाक्यों की चिट्ठी में उसका लावा बह गया- ‘पापा! मैं अंग्रेजी पढऩा चाहती हूँ। आप जबरन मुझ पर विज्ञान थोप रहे हैं। पिता को अपनी ग़लती पर पछतावा तो हुआ; लेकिन तब, जब बेटी मौत के आगोश में चली गयी। इन घटनाओं का डरावना पहलू यह है कि दीपांशु और सार्थक ही अकेले छात्र नहीं हैं, जिन पर माता-पिता की प्रबल इच्छा के चलते भयावह दबाव है। व्हाट्स ऐप पर छात्रा प्रियंका की यह बात बहुत कुछ कह जाती है कि ‘हर पल पापा का उदास चेहरा नज़र आता है, जो उसे आईआईटियन देखने की प्रबल आशंका सँजोये हैं।’

मनोचिकित्सकों का कहना है कि प्रतिभा अब मानो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बन गयी है, जिसे सम्भावित करियर के लिए उर्वर माना जाने लगा है। बढ़ती राष्ट्रीय प्रवृत्ति की बात करें, तो बच्चों को नामवर बनाने की सनक के लिए छटपटाते हुए माँ-बाप हर कहीं मिल जाएँगे; लेकिन उनकी महत्त्वाकांक्षा में जकड़ा कोटा कोचिंग उद्योग कितना पिस रहा है? इसकी सत्य और सटीक मिसाल यह है कि ‘आबादी के मामले में कोटा भले ही मुम्बई से 12 गुना कम है। लेकिन एक करोड़ 24 लाख की आबादी वाले मुम्बई महानगर के मुकाबले कोटा में छात्रों की ख़ुदकुशी के मामले ज़्यादा सामने आ रहे हैं। हर आठवें दिन एक छात्र मौत को गले लगा रहा है। महत्त्वाकांक्षी माँ-बाप पुरानी रूढिय़ों से बाहर निकलकर संतान की सफलता के लिए उनकी ज़िन्दगी का जोखिम उठाने से भी नहीं हिचकते। शिक्षा शास्त्रियों का तो यहाँ तक कहना है कि बच्चे को धकियाकर और धमकाकर इस तरह सफलता के लिए प्रेरित करना हिंसा करने जैसा है।

मनोचिकित्सक डॉ. स्नेहाशीष गुप्ता कहते हैं कि कोई भी विषय जबरन थोपकर बच्चों को होनहार बिरबान नहीं बनाया जा सकता। माँ-बाप बच्चों के माध्यम से अपने सपनों को साकार देखना चाहते हैं। यह करियर थोपने जैसी जबरन कोशिश बच्चों को अवसाद और आत्मघात की ओर धकेल रही है।

यह हठीला सच है कि अभिभावक ख़ूँख़ार हो गये हैं और मध्यम वर्गीय दुश्चक्र से बाहर आने के लिए बच्चों को जबरन अपनी आकांक्षाओं का ज़रिया बनाते हैं। पता नहीं क्यों अभिभावक नहीं जानते कि भारी दबाव के दुष्प्रभाव ही होते हैं। आख़िर वे क्यों नहीं सोचते कि बच्चा भी तो उनकी ही तरह सामान्य इंसान है। छात्र ताराचंद द्वारा की गयी आत्महत्या की मिसाल दें, तो घूम-फिर कर बात वहीं आकर ठहरती है। महावीर नगर थाना क्षेत्र की कॉलोनी में रहकर कोचिंग की तैयारी कर रहे पाली निवासी ताराचंद ने अपने सुसाइड नोट में अपने पिता को सब कुछ साफ़ लिखा है कि मैं आपका सपना साकार नहीं कर पाऊँगा आप मेरे बारे में जैसा सोचते थे, मैं वैसा नहीं था। मैंने कुछ ग़लत काम नहीं किया; लेकिन कुछ सही भी तो नहीं किया। मैंने जो कुछ माँगा, आपने दिया; लेकिन बदले में मैंने आपको क्या दिया? टेंशन?’

मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सक डॉक्टर देवेन्द्र विजयवर्गीय कहते हैं- ‘परिजनों ने उससे जैसी अपेक्षाएँ लगायी थीं, उसकी मानसिकता उसे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी। ज़ाहिर है कि परिजनों ने डॉक्टर बनने की अपनी कामना जबरन बच्चे पर थोप दी, जबकि उस विषय में उसकी कोई रुचि नहीं थी। उसका मन इसको स्वीकार ही नहीं कर पा रहा था, जिसकी परिणति उसे ज़िन्दगी से निजात ही नज़र आयी, और उसने वही किया; यानी एक और छात्र माँ-बाप की बेजा सनक की बलि चढ़ गया।’

पिछले दिनों कोटा में बच्चों के आत्मघात की तीन घटनाएँ क्या हुईं, पूरा शहर हिल गया। इनमें से दो छात्र बिहार के थे और एक अन्य छात्र मध्य प्रदेश के शिवपुरी का था। सब एक ही कोचिंग संस्थान से नीट की तैयारी कर रहे थे। बिहार निवासी अंकुश आनंद तथा उज्ज्वल तलवंडी स्थित एक हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहे थे, जबकि शिवपुरी का प्रणव शर्मा कन्हाड़ी के लेंडमार्क सिटी स्थित हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा था। उज्ज्वल और अंकुश अपने-अपने कमरे में संदिग्ध हालत में मृत मिले, जबकि प्रणव अपने कमरे के बाहर बेसुध मिला। उसे अस्पताल पहुँचाया गया, जहाँ उसने भी दम तोड़ दिया। एसोसिएशन ऑफ इंडस्ट्रियल साईक्रेटी ऑफ इंडिया की सालाना कॉन्फ्रेंस में यह मुद्दा सुलग उठा।

संगठन के रांची निदेशक डॉ. वासुदेव दास का कहना था- ‘बच्चों की परफॉर्मेंस पर बेजा सवाल उठाने की बजाय उससे सामान्य तरीक़े से हालचाल पूछो, तभी आपका बच्चा आपसे अपनी परेशानी साझा करेगा।’

डॉ. दास ने कहते हैं- ‘मेरा बेटा भी इंजीनियरिंग कोचिंग के लिए कोटा आया हुआ है। बतौर पेरेंट्स मैंने बेटे को स्पष्ट कर दिया कि उसकी ख़ुशी से ज़्यादा हमारे लिए कुछ नहीं है।’

तलवंडी स्थित हॉस्टल में रहने वाले छात्र रूह कँपाने वाली यह घटना ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाएँगे। सुबह उठने के साथ ही हॉस्टल में उनके साथ रहने व पढऩे वाले दो सहपाठी अचानक उनके बीच से दुनिया छोड़ गये। भविष्य सँवारने के लिए आये दो छात्र परिजनों को रोता-बिलखता छोडक़र चले गये और उनके साथी तनाव और चिन्ता की शिकन लिये अपने सहपाठियों के शव उठा रहे थे। साथी छात्र ही एंबुलेंस से दोनों मृतक छात्रों के शव लेकर मोर्चरी पहुँचे। एंबुलेंस से शव उतारते हुए ये छात्र डरे-सहमे नज़र आये।

हॉस्टल में रहने वाले छात्र हिमांशु ने बताया कि अंकुश व और उज्ज्वल हॉस्टल की पहली मंजिल पर रहते थे। दोनों के कमरे आसपास ही थे। वह अंकुश के सामने वाले कमरे में रहता है। सुबह वह अपने कमरे में था। उसने दोपहर क़रीब 12:00 बजे अंकुश को कई बार कॉल की; कॉल रिसीव न होने पर वह अंकुश के कमरे तक गया। आवाज़ देने के बाद भी उसने दरवाज़ा नहीं खोला, तो कॉल करके हॉस्टल संचालक को बताया। उसके बाद हॉस्टल संचालक आया और पुलिस को बुलाया। छात्र ने बताया कि अंकुश और उज्ज्वल चार साल से कोटा में रहकर नीट की तैयारी कर रहे थे। उज्ज्वल की बहन भी कोटा में रहकर पढ़ाई कर रही है। वह गल्र्स हॉस्टल में रहती है। हॉस्टल में घटना की बात सुनकर वह आयी थी। जब उसने उज्ज्वल के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया, तो अन्दर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी। इसके बाद पुलिस ने उसे कमरे के दरवाज़े को तोडक़र देखा, तो उज्ज्वल भी संदिग्ध हालात में मृत मिला। हाल ही में बरेली, उत्तर प्रदेश के अनिकेत ने भी कोटा के एक हॉस्टल में कथित तौर पर आत्महत्या कर ली।

कोटा में कोचिंग करने वाले छात्र-छात्राओं की आत्महत्या के अधिकतर मामले पढ़ाई के तनाव के चलते हुए हैं। गत दिनों पढ़ाई के तनाव और टेस्ट में नम्बर कम आने पर एक छात्र कोटा छोडक़र ट्रेन में बैठकर चला गया था। दूसरे के मामले में एक छात्रा की संदिग्ध हालात में मौत हो गयी थी। पुलिस के अनुसार, प्रथम दृष्टया सामने आया था कि छात्रा पढ़ाई को लेकर तनाव में थी। कोचिंग टेस्ट में उसके नंबर कम आये थे। इसी तरह रात को घूमने जाने की बात पर पिता ने डाँटा तो एक छात्रा हॉस्टल छोडक़र ट्रेन में बैठकर चली गयी। छात्र-छात्राओं में पढ़ाई का तनाव इस क़दरहावी है कि उन्हें अच्छे-बुरे का एहसास नहीं है। कोटा में कोचिंग संस्थानों में पढऩे वाले छात्रों की आत्महत्याओं के बढ़ते मामले को कोटा रेंज के आईजी ने बेहद गम्भीर माना है। उन्होंने इस मामले में मंगलवार को एक बैठक बुलायी। बैठक में जिन थानों में छात्रों के आत्महत्या के प्रकरण दर्ज है, उस थाने से सम्बन्धित पुलिस अधिकारियों एवं कोचिंग संस्थानों के संचालकों को बुलाया गया। कोटा मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. बी.एस. शेखावत कहते हैं कि आत्महत्या एक मानसिक बीमारी है। इसके कई कारण होते हैं। विपरीत परिस्थिति होने के कारण भी कोई आत्महत्या जैसा क़दम उठाता है। ऐसे में वह व्यक्ति शुरुआती तौर पर बाहर निकलना चाहता है; लेकिन नेगेटिविटी के चलते वह बाहर नहीं निकल पाता। आत्महत्या के क़दम अक्सर लोग पढ़ाई, प्रेम में असफलता धोखा व क़र्ज़ा होने की स्थिति में उठाते हैं। स्टूडेंट माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते हैं। पढ़ाई का बोझ सहन नहीं कर पाते। कोचिंग में काउंसलिंग के लिए साइकोलॉजिस्ट होना चाहिए, जो ऐसे लोगों को इनकी गतिविधियों से भांपकर काउंसलिंग कर उन्हें समय पर इलाज उपलब्ध करवा सके।

हॉस्टल के कमरे में ख़ुदकुशी करने वाला कोचिंग छात्र उज्ज्वल पढ़ाई में बेहतर था; लेकिन ऑनलाइन गेम पबजी खेलने का शोकीन था। वह पबजी ऑनलाइन टीम के साथ खेलता था। वहीं आत्महत्या करने वाला एक अन्य छात्र अंकुश पढ़ाई में पिछड़ रहा था, जिससे तनाव में था। उज्ज्वल के दोस्त विपुल ने बताया कि उज्ज्वल कई बार उसके सामने भी टीम बनाकर पबजी खेलता था। एक दिन पहले ही उससे इस बारे में बात हुई थी। वह जवाहर नगर स्थित एक मैस से खाना खाकर आ रहा था। तब उज्ज्वल जवाहर नगर पुलिया पर मिला था। बातचीत के बाद वह कमरे में चला गया। उज्ज्वल को असामान्य कभी नहीं देखा गया। उसका व्यवहार भी सही था।

राजस्थान में एक ही दिन में तीन छात्रों का यकायक जीवन से हारकर मौत को गले लगाना सोचने पर मजबूर करता है। आख़िर ऐसे कौन से कारण रहे होंगे, जिनके चलते इन छात्रों को जीने की चाह ख़त्म हो गयी। शिक्षा नगरी कोटा में आत्महत्या करने वाले तीनों छात्र नीट की तैयारी कर रहे थे, जबकि भरतपुर में आत्महत्या करने वाला अलवर का युवा चिकित्सक बनकर लोगों का जीवन बचाने से पहले ख़ुद ही ज़िन्दगी की जंग हार गया। चार प्रतिभाशाली छात्रों का जीने के प्रति मोह भंग क्यों हुआ। इसकी तह तक जाना ज़रूरी है। इसको सामान्य घटना नहीं माना जा सकता। वैसे प्रारम्भिक रूप से इतना तो तय है कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी या प्रोफेशनल कोर्स करने वाले युवाओं पर भारी दबाव होता है। अक्सर कोमल मन यह दबाव झेल नहीं पाता है।

आत्महत्या करने के पीछे कई कारण हो सकते हैं। जैसे, छात्र वर्ग में असफलता को न झेल पाना, अपमानित होने का भय, अपनों से दूरी, ख़ुद को हीन समझ लेना, भावनाओं पर क़ाबू न रख पाना आदि प्रमुख कारण माने जा सकते हैं। इसके अलावा कई सामाजिक आर्थिक, वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक कारण भी होते हैं। एक प्रमुख वजह यह भी है कि परिजन देखा-देखी के चक्कर में बच्चों से वह सब करवाना चाहते हैं, जो कि बच्चों की पसन्द नहीं होता। परिजनों को यह समझना होगा कि हर बच्चा चिकित्सक या इंजीनियर नहीं बन सकता। हो सकता है कि बच्चा किसी दूसरे क्षेत्र में अपनी प्रतिभा दिखाये। इस प्रकार के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। दूसरी बात, सिर्फ़ पढ़ाई के लिए बच्चों को दूसरे शहर में भेजकर परिजनों को इतिश्री नहीं करनी चाहिए। बच्चों के साथ निरंतर संवाद भी पढ़ाई जितना ही ज़रूरी है। अब मानवाधिकार आयोग ने इस मामले में घटनाओं का पूरा ब्योरा तलब करते हुए सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है।