चौराहे पर कांग्रेस!

बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लचर प्रदर्शन के बाद वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने एक बार फिर पार्टी नेतृत्व की आलोचना की है। सिब्बल ने कहा कि देश की जनता ने हमें चुनावों में नकार दिया है और यही लोगों का फैसला है; ऐसे में कांग्रेस को आत्ममन्थन और हार की समीक्षा करने की ज़रूरत है। बिहार विधानसभा चुनाव और उप चुनावों के नतीजों से साफ है कि हम लोगों के पास दूसरे विकल्प भी नहीं हैं। हालाँकि सिब्बल की राय से कई पार्टी नेता सहमत नहीं हैं। नेतृत्व को लेकर पार्टी में मचे घमासान पर सन्नी शर्मा की पड़ताल

कपिल सिब्बल के ट्वीट पर कांग्रेस सांसद कार्ति पी. चिदंबरम ने री-ट्वीट करते हुए लिखा कि पार्टी को आत्मनिरीक्षण, चिन्तन और विस्तृत विचार-विमर्श की ज़रूरत है। बिहार विधानसभा चुनाव में अपने सहयोगियों में सबसे कमज़ोर प्रदर्शन का तमगा कांग्रेस पर ही लगा है। मामला सिर्फ पार्टी में ही उठापटक या बयानबाज़ी तक सीमित नहीं है। राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी के उस बयान से पार्टी की और किरकिरी हुई, जिसमें उन्होंने कांग्रेस को एक ड्रैग पार्टी कहा। उन्होंने कहा कि बिहार में कांग्रेस ने 70 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन 70 बड़ी रैलियाँ तक नहीं कीं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि जब चुनाव प्रचार चरम पर था, तब राहुल गाँधी शिमला हिल स्टेशन पर प्रियंका जी के घर पर पिकनिक मना रहे थे। क्या पार्टी ऐसे ही चलती है?

कांग्रेस की आलोचना बिहार में सहयोगी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी की है। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन न हो पाने से महागठबन्धन बिहार में सरकार बनाने में विफल रहा। सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने उम्मीद जतायी है कि अब अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चे से गठबन्धन के साथ कांग्रेस पार्टी सीट साझा करने में अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनायेगी। इसकी वजह यह भी है कि पश्चिम बंगाल में भगवा पार्टी किसी भी तरह से सत्ता हासिल करने की जुगत में है। भट्टाचार्य ने एक साक्षात्कार में कहा कि पार्टी को पश्चिम बंगाल में सीपीएम-कांग्रेस गठबन्धन में ड्राइवर की सीट पर नहीं होना चाहिए।

विदित हो कि पार्टी में अंतर्कलह को देखते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी तीन समितियों का गठन कर चुकी हैं। खास बात यह है कि इन समितियों में पत्र लिखने वाले असंतुष्टों को भी जगह दी गयी है। इन समितियों के गठन को पार्टी में मचे घमासान के मसले को शान्त किये जाने के तौर पर देखा गया था; लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा।

बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कपिल सिब्बल ने कहा कि पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए उसमें व्यापक बदलाव करने होंगे, तो कुछ नेताओं ने उनका विरोध शुरू कर दिया। हालाँकि उन्होंने स्पष्ट किया कि वह कांग्रेसी हैं और हमेशा कांग्रेसी रहेंगे। उन्होंने उम्मीद जतायी कि देश में लोगों को विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ कांग्रेस फिर से मज़बूती के साथ राष्ट्र निर्माण में अपने मूल्यों के साथ खड़ी होगी। उन्होंने कहा कि सियासी समझ रखने वाले ऐसे अनुभवी लोगों को साथ लेकर उनसे चर्चा करनी होगी, जो देश की राजनीतिक वास्तविकताओं को समझते हैं। ऐसे लोगों को आगे रखना होगा, जो मीडिया में तत्कालीन स्थितियाँ स्पष्ट कर सकें और लोग कब व क्या सुनना चाहते हैं, यह समझ सकें। हमें गठबन्धन के साथ-साथ लोगों के बीच पहुँचने की ज़रूरत है। अब हम लोगों से अपने पास आने की उम्मीद नहीं कर सकते। अभी हम पहले की तरह मज़बूत नहीं हैं। इसलिए सब ठीक हो जाएगा, कहकर मामले को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।

सिब्बल के इस सार्वजनिक बयान पर लोकसभा में कांग्रेस के नेता और सीडब्ल्यूसी के सदस्य अधीर रंजन चौधरी ने नाराज़गी ज़ाहिर की है। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि जो पार्टी नेतृत्व से नाखुश हैं, वे पार्टी छोडऩे के लिए स्वतंत्र हैं। उन्होंने आश्चर्य जताते हुए पूछा कि बिहार चुनाव के दौरान सिब्बल ने पार्टी के लिए प्रचार क्यों नहीं किया? चौधरी ने कहा कि पार्टी के लिए कुछ भी किये बिना बोलने का मतलब आत्मनिरीक्षण नहीं है। वहीं सिब्बल के बयान का चिदंबरम ने समर्थन किया था।

आज़ादी के बाद देश की सबसे पुरानी पार्टी इस समय बाहरी और अंदरूनी सियासत के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है।

हालाँकि कांग्रेस बिल्कुल चुप नहीं बैठी है, लेकिन उसके सरकार पर प्रहार अपर्याप्त हैं। पार्टी कहती रही है कि संविधान के मूल और मूल्यों पर निरंतर हमले किये जा रहे हैं। लेकिन उसे समझना होगा कि भाजपा और उसके सहयोगियों का साम्प्रदायिक और विभाजनकारी एजेंडा राजनीतिक आख्यानों पर हावी हो रहा है। यह महात्मा गाँधी और गणतंत्र देश के संस्थापकों व अन्य के बीच विचारों का संघर्ष है। भय और असुरक्षा के माहौल ने देश को उलझा दिया है। ऐसे में कांग्रेस का कर्तव्य है कि वह इस चुनौती का डटकर मुकाबला करे। कांग्रेस को लोगों को आश्वस्त करना होगा कि वही उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करेगी और उनको सुरक्षित माहौल प्रदान करेगी। ऐसा कांग्रेस को पुनर्जीवित करके ही किया जा सकता है। इसके लिए प्रगतिशील और लोकतांत्रिक शक्तियों को एकजुट करना होगा। इस समय देश एक गम्भीर सामाजिक और आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, किसान संकट और आर्थिक मंदी ने बड़ी आबादी को हाशिये पर पहुँचा दिया है। कोरोना महामारी ने इन चुनौतियों को और बढ़ाया है। इससे लाखों श्रमिकों की नौकरियाँ चली गयी हैं; काम-धंधा ठप हो गया और कई उद्योग बंद हो चुके हैं। इस आर्थिक संकट के तत्काल निवारण की आवश्यकता है। कांग्रेस को इन मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठाकर व्यापक पहल करनी होगी।

पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ सीमा पर सैन्य गतिरोध भी गम्भीर चिन्ता का विषय है। भारत की विदेश नीति की हालत, पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों का तनाव जो हमेशा मैत्रीपूर्ण रहा है, वह अब गम्भीर हो गया है। इसमें सुधार की व्यापक ज़रूरत है।

2014 और 2019 में आम चुनाव के अलावा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति कमज़ोर हुई है। इसके कारणों की पड़ताल करके तत्काल उनमें सुधार की आवश्यकता है। अन्यथा कांग्रेस इस कदर पतन की ओर चली जाएगी कि उसे दोबारा उबरना मुश्किल हो जाएगा। अपने आधारभूत वोट बैंक का खिसकना और युवाओं का पार्टी पर से विश्वास उठना उसके लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है। पिछले दो आम चुनावों में भारत में 18.7 करोड़ वोटर ने पहली बार मतदान किया। 2014 में 10.15 करोड़ और 2019 में 8.55 करोड़ युवा मतदाता जुड़े। युवाओं ने मोदी और भाजपा के लिए भारी मतदान किया। भाजपा का वोट शेयर 2009 में 7.84 करोड़ से बढक़र 2014 में 17.6 करोड़ और 2019 में 22.9 करोड़ हो गया। इसके विपरीत कांग्रेस ने जहाँ 2009 में 1.23 करोड़ वोटर गँवाये। हालाँकि बाद में स्थिति में मामूली सुधार हुआ। लेकिन 2019 के चुनावी फैसले के करीब सवा साल बाद भी कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन में निरंतर गिरावट के कारणों का ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण नहीं किया है।

कई राज्यों में पार्टी छोडऩे वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ समर्थकों में कमी देखी गयी है। सीडब्ल्यूसी प्रभावी रूप से भाजपा सरकार के विभाजनकारी एजेंडे और जनविरोधी नीति के खिलाफ जनमत जुटाने में सही मार्गदर्शन नहीं कर पा रही है। अब जो बैठकें भी होती हैं, वो अंतर्कलह में उलझी होती हैं, जिससे राष्ट्रीय एजेंडा और देश के अहम मुद्दे दब जाते हैं।

सीपीपी के नेताओं की बैठक के वर्षों में सीपीपी नेता और प्रचलित होने वाले संबोधनों को कम कर दिया गया है। मुद्दों पर होने वाली चर्चा भी कुछ समय से बन्द कर दी गयी है। पिछले कई वर्षों में यह भी देखा है कि पीसीसी अध्यक्षों और पदाधिकारियों और डीसीसी अध्यक्षों की नियुक्तियों में देरी हो रही है। राज्य में सम्मान और स्वीकार्यता की कमान सँभालने वाले नेताओं को समय पर नियुक्त नहीं किया जाता है। पीसीसी और ज़िला स्तरीय समितियाँ, राज्य की जनसांख्यिकी के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। पीसीसी को कार्यात्मक स्वायत्तता नहीं दी जाती है। नेतृत्व के विफल होने पर जवाबदेही भी तय नहीं होती।

युवा और छात्र

कांग्रेस पार्टी ने ऐतिहासिक रूप से नेतृत्व को तवज्जो दी है और इसमें बड़ी संख्या में युवाओं को प्रोत्साहित किया है। युवा नेता एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के माध्यम से आगे बढ़े। इन नेताओं में वैचारिक स्पष्टता और प्रतिबद्धता थी। वरिष्ठों के अनुभव और युवाओं की ऊर्जा के मिश्रण ने कांग्रेस को मज़बूत और जीवंत बनाये रखा। लेकिन हाल के वर्षों में योग्यता आधारित और सर्वसम्मति समर्थित चयन की संस्थागत प्रक्रिया बाधित हुई है। कैडर फीडिंग संगठनों एनएसयूआई और आईवाईसी में चुनाव की शुरुआत ने संघर्ष और विभाजन पैदा किया है। संसाधन सम्पन्न व्यक्तियों या शक्तिशाली संरक्षकों द्वारा समर्थित लोगों ने इन संगठनों पर कब्ज़ा कर लिया। इसने युवा नेताओं की एक साधारण पृष्ठभूमि से उनकी सेवाएँ पार्टी को नहीं मिल सकीं, जिससे ऊपरी संगठन कमज़ोर हुआ है।

कांग्रेस पार्टी परम्परागत तरीके से राज्यों और राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में प्रदर्शन नहीं कर सकी। एआईसीसी के साथ-साथ पीसीसी सत्रों में कोई नियमित विचार-विमर्श नहीं होता है, जो विभिन्न राष्ट्रों के सामाजिक सरोकारों को सम्बोधित करने वाली नीतियों और कार्यक्रमों से जुड़े होते हैं। पार्टी को पुनर्जीवित करने और लाखों कार्यकर्ताओं की भावनाओं को देखते हुए अहम सुझाव पेश हैं-

पूर्णकालिक और प्रभावी नेतृत्व आईसीसी और पीसीसी मुख्यालय में उपलब्ध हो, जिसका असर हर क्षेत्र में नज़र आये।

पीसीसी और ज़िला समितियाँ समावेशी प्रतिनिधित्व वाली होनी चाहिए। पीसीसी को संस्थागत जवाबदेही के लिए स्वायत्तता दी जाए।

देश की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान से विभाग और प्रकोष्ठों के डीसीसी अध्यक्षों या पदाधिकारियों को नियुक्त करने की प्रथा बन्द की जानी चाहिए। पीसीसी अध्यक्षों और राज्य के प्रभारी के साथ समन्वय के ज़रिये डीसीसी अध्यक्षों की नियुक्ति की जानी चाहिए।

केंद्रीय संसदीय बोर्ड (सीपीबी) को संगठनात्मक मामलों, नीतियों और कार्यक्रमों पर सामूहिक सोच और निर्णय लेने को समिति गठित करे।

एक राष्ट्रव्यापी सदस्यता अभियान शुरू किया जाना चाहिए और नामांकन अभियान प्राथमिकता के आधार पर शुरू हो।

ब्लॉक, पीसीसी प्रतिनिधियों और एआईसीसी सदस्यों के चुनाव पारदर्शी तरीके से कराये जाएँ।

सीडब्ल्यूसी सदस्यों का चुनाव कांग्रेस पार्टी के संविधान के अनुसार हो।

केंद्रीय चुनाव समिति (सीईसी) को संगठनात्मक पृष्ठभूमि और सक्रिय क्षेत्र के जानकारों और अनुभवी नेताओं को शामिल किया जाए।

संसद और विधानसभा उम्मीदवारों के लिए स्क्रीनिंग कमेटी में संगठनात्मक और चुनावी अनुभव वालों को मौका मिले।

स्वतंत्र चुनाव प्राधिकरण हो, जिससे स्वतंत्र, निष्पक्ष व लोकतांत्रिक तरीके से चुना जाए। इसमें वरिष्ठ नेताओं के अनुभव का इस्तेमाल करें।

इसके अलावा वर्तमान चुनौती को लड़ाई में नेतृत्व करने के अवसर में बदलने के लिए कांग्रेस को तैयार रहना चाहिए। फिर से युवाओं, महिलाओं, छात्रों, किसानों, अल्पसंख्यकों, दलितों और कारखाने के श्रमिकों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खड़े होने का समय आ गया है। कांग्रेस को भाजपा के एजेंडे का सामना करने और उसे हराने के लिए लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के राष्ट्रीय गठबन्धन बनाने की पहल करनी चाहिए। इसके लिए राजनीतिक दलों के एक मंच के नेताओं को लाने का ईमानदार प्रयास किया जाना चाहिए। अभूतपूर्व चुनौतियों के मद्देनज़र कांग्रेस का पुनरुद्धार देश के लिए ज़रूरी है।

हालिया चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन ने एक बार फिर कांग्रेस के कामकाज पर सवालिया निशान खड़े किये हैं। पार्टी के भीतर एक लोकतांत्रिक परिवर्तन की माँग बढ़ गयी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी अस्तित्व के संकट से गुज़र रही है और पार्टी के पास नेतृत्व के बारे में ठोस निर्णय लेने का उचित समय है। कांग्रेस पार्टी के लिए बेहतर विकल्प यही है कि बहुत ज़्यादा देर हो जाए उससे पहले नेतृत्व की कमान गाँधी या गैर-गाँधी के बीच चयन कर दिया जाना चाहिए। हालाँकि कांग्रेस को उम्मीद है कि कांग्रेस ने हर संकट के बाद उबरने की क्षमता रखती है और पहले भी ऐसे हालात का सामना बखूबी किया है। महज़ फिलहाल इस ऐतिहासिक पार्टी का मकसद खुद को विकल्प के रूप में पेश करना ही नहीं, बल्कि पुनर्जीवित करना होना चाहिए।

पार्टी में तत्काल चुनाव हों : आज़ाद

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने कहा है कि पार्टी को पाँच सितारा संस्कृति छोडऩी होगी; इससे चुनाव नहीं जीते जाते। पार्टी में मज़बूती के लिए ब्लॉक, ज़िला और राज्य स्तर की समितियों के पुनर्गठन के लिए तत्काल चुनाव कराये जाने चाहिए। पदाधिकारियों को भी समझना होगा कि नियुक्ति के साथ ही उनकी ज़िम्मेदारी शुरू हो जाती है। आज़ाद ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को पत्र लिखने वाले पार्टी के विद्रोही नहीं, बल्कि सुधारवादी हैं; जो पार्टी की बेहतरी के लिए बोल रहे हैं। हम कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ नहीं हैं। बल्कि हम सुधारों का प्रस्ताव देकर नेतृत्व को मज़बूत कर रहे हैं। आज़ाद ने कहा कि पार्टी को सबसे बड़ा खतरा चापलूसों से है। बहुत-से पदाधिकारी अपना पद बचाने के लिए शीर्ष नेतृत्व की हाँ-में-हाँ मिलाते हैं। इनको लगता है कि हर हाल में पार्टी जीतेगी; जबकि ऐसा नहीं है। जो पार्टी का असली शुभचिन्तक होगा, वह हमेशा सच बतायेगा और उसकी भलाई के लिए सुधार की दिशा में काम करेगा।

नेतृत्व का संकट नहीं : सलमान

पार्टी में मचे घमासान के बीच वरिष्ठ पार्टी नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि कुछ नेताओं की ओर से पार्टी के शीर्ष नेताओं की आलोचना से सहमत नहीं हैं। खुर्शीद ने कहा कि पार्टी में नेतृत्व का संकट नहीं है और सभी सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के समर्थन में हैं। हर व्यक्ति इसे देख सकता है; सिवाय उसके, जो देख नहीं सकता।