चुनाव: धर्मानुराग बनाम धर्मयुद्ध

”धर्म और धार्मिक जीवन के क्षेत्र में यह स्वतंत्रता, हमारी ज्ञान परंपरा से ही निर्मित हुई है। इसी के कारण यह संभव हो सका कि भारत में राज्य-सत्ता की भांति धर्म ने स्वंय को एकसत्ता नहीं बनने दिया और धार्मिक जीवन का रूप संगठनिक नहीं हो पाया।

डा. कपिल तिवारी

भारतीय लोकतंत्र की आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह ”युद्ध’’ और ”चुनाव’’ के बीच के अंतर को समाप्त करता जा रहा है। युद्ध फिर वह भले ही ”धर्मयुद्ध’’ ही क्यों न हो अपने विचारों को बलात् थोपने या स्थापित करने का प्रयास है। वहीं ”चुनाव’’ किसी व्यक्ति की निजी प्राथमिकता होती है। दक्षिणपंथी ताकतें कभी भी ”चुनाव’’ की सुविधा देने की पक्षधर नहीं रही। वहीं धुर वामपंथी ताकतें भी चुनाव के बहुत पक्ष में नहीं दिखाई पड़ी। वामपंथी शासन व्यवस्था का 80 साल में विलुप्ति के कगार पर पहुंच जाना यह दर्शाता है कि एक बेहतर विचार धारा में असहमति को नकारना कितना आत्मविध्वंसभ होता है। ठीक ऐसा आज भारत की दक्षिणपंथी ताकतें कर रहीं हैं। वे ज़्यादा तेजी से अपने विलुप्त होने के सामान तैयार कर रही हैं। इसकी एक वजह यह है कि उनके पास असहमति को नकारने के लिए ”धर्म’’ का आधार मौजूद है और इसी वजह से यह इन्हें अधिक विध्वंसक भी बना रहा है।

उपरोक्त संदर्भ में यदि हम भोपाल, लोकसभा क्षेत्र के चुनाव को लें तो बहुत सारी स्थितियां परिस्थितियां स्वंयमेव ही स्पष्ट हो जाती हैं। यहां 12 मई को मत डाले जाने हैं। गौरतलब है इसी शहर में तीन दिसंबर 1984 को भयानक गैस त्रासदी हुई थी और उससे संबंधित प्रकरण अभी भी न्यायालय में अटके पड़े हैं और हजारों लोग असमय मृत्यु का शिकार होते जा रहे हैं। परंतु राजनीति में बीता कल मायने नहीं रखता और आने वाला कल केवल सत्ता में काबिज होने के लिए बना है। बीच के काल में सिर्फ आम आदमी को पहुंच रही यातनाएं हैं, जो कि विशेष रूप से भारतीय नागरिक झेल रहे हैं। राजनीति में करो या मरो की स्थिति कम ही बन पाती है और समझदार व दूरदर्शी राजनीतिज्ञ इससे बचते हैं। परंतु नव-धनाढ्य की तरह नवराजनीतिज्ञ भी अंदर से डरे रहते हैं। क्यों? इसमें अपने-अपने कारण होते हैं। भोपाल में कांग्रेस के दिग्विजय सिंह के समक्ष प्रज्ञा सिंह ठाकुर को चुनाव मैदान में उतार कर भाजपा ने अपने सीमित संसाधनों की वास्तविकता आम जनता के सामने ला दी है। प्रज्ञा सिंह ठाकुर कब, क्यों, किसलिए साध्वी बनी यह कुतुहल का विषय है। साध्वी बनने के बावजूद उन्होंने अपने मूल नाम से नाता नहीं तोडऩा भी आश्चर्य का विषय है। मामा शिवराज ने ही उन्हें एक आरएसएस प्रचारक की हत्या के आरोप में गिरफ्तारी को स्वीकारा था। तब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री थे अब वे प्रज्ञा ठाकुर के सबसे बड़े हितैषी। यही विरोधाभास भारतीय राजनीति को एकसाथ रोचक व भ्रष्ट दोनों ही बनाता है। प्रज्ञा ठाकुर का साध्वी के रूप में कभी भी बहुत नाम नहीं रहा। वे अन्य कारणों जैसे मालेगांव बम कांड या सुनील जोशी हत्याकांड से ज़्यादा चर्चा में रही।

मध्यप्रदेश के भिण्ड जि़ले में जन्मी प्रज्ञा अब करीब 49 वर्ष की हैं और इतिहास में एमए हैं परंतु इतिहास की उनकी समझ एकांगी और इसमें विश्लेषण का अभाव साफ नजऱ आता है। यह समस्या सभी हिंदूवादी समुदायों के साथ है। वे आज़ादी के पहले के करीब 1,000 साल के इतिहास से आंख चुराते हैं और अपने आप को ”बाबरी मस्जिद’’ के बनने और ढ़हने के आगे कहीं पहुंचाना भी नहीं चाहते। ऐसा ही साध्वी प्रज्ञा ने भी किया। पहले उन्होंने पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे को बुरा-भला कहा और बाद में बाबरी मस्जिद तोडऩे का भार अपने कंधों पर उठा लिया। वे एक ऐसी साध्वी प्रतीत होती है, जिनका संसार से कभी मोह छूटा ही नहीं। वास्तविकता तो यही है कि धर्म और राजनीति का मेल हमेशा ही नकारात्मक परिणाम लाता रहा है। अतएव भविष्य में इसके परिणाम सकारात्मक निकलेंगे इसके आसार भी कम ही हैं।

वहीं दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपना पूरा जीवन राजनीति को समझने और समझाने में बिताया है। उनकी हार जीत के बारे में यही कहा जा सकता है कि दिग्विजय को सिर्फ दिग्विजय ही हरा सकते हैं और कोई नहीं। शिवराज सिंह चैहान और उमा भारती दोनों उन्हें पानी पी-पी कर कोसते रहे। उन्हें मिस्टर बंटादार निरपित करते रहे लेकिन उनके सामने चुनाव लडऩे का साहस नहीं जुटा पाए। दिग्विजय सिंह आधी लड़ाई तो यहीं जीत गए थे। अब बाकी आधी जीत के लिए (साध्वी) प्रज्ञा सिंह ठाकुर उनके सामने हैं। चुनावी संघर्ष को अब पूरी तरह से धार्मिक उन्माद की ओर ढकेलने का प्रयास उनके द्वारा किया जा रहा है। वे उन्हें दी गई कथित यातनाओं को अपना ”यूएसपी’’ बना कर चुनाव जीत लेना चाहती हैं। अपने सन्यासी जीवन में वे महामण्डलेश्वर अवधेशा नंद के संपर्क में भी रहीं हैं। इसके बावजूद उनमें ओजस्विता का अभाव साफ नजऱ आता है। वे व्हील चेयर पर बैठकर नामांकन पत्र भरने गई। परंतु कुछ ही समय पश्चात बेहद फुर्ती से चलती फिरती भी नजऱ आ गई। वे मतदाताओं को प्रभावित करने के बजाय सम्मोहित करने की ओर ज़्यादा ध्यान दे रही हैं। भाजपा की समस्या यह है कि अब प्रधानमंत्री स्वंय अपने सर्वश्रेष्ठ कार्यों जैसे नोटबंदी, जीएसटी का उल्लेख तक नहीं कर रहे हैं। दावानल की तरह बढ़ती बेरोजग़ारी को नकार रहे हैं, कृषि की बर्बादी उन्हें दिखाई ही नहीं दे रही, शिवराज सिंह चैहान के राज में हुए पोषण आहार घोटाले को कांग्रेस की झोली में डाल रहे हैं। व्यापम घोटाला पीछा नहीं छोड़ रहा हो आदि-आदि ऐसे में प्रज्ञा ठाकुर या देश भर के अन्य भाजपा प्रत्याशियों के सामने कुछ भी करने को रह ही नहीं जाता। यही स्थिति भोपाल में प्रज्ञा ठाकुर की बन गई है। उनका अपना कोई सामाजिक या राजनीतिक योगदान भोपाल तो क्या पूरे मध्यप्रदेश में कहीं भी दिखाई नहीं देता और भाजपा ने बताने या गुणगान लायक कुछ किया नहीं ऐसे में सिवाय आरोप लगाने, चुनाव को युद्ध में बदलने और राम मंदिर को फिर मुद्दा बनाने के कुछ नहीं बचता। मज़ेदार बात यह है कि स्वंय भाजपा के लिए इस चुनाव में राममंदिर मुख्य मुद्दा नहीं है।

वहीं दूसरी ओर भोपाल लोकसभा में बड़ी संख्या में मुस्लिम मतदाताओं की उपस्थिति दिग्विजय सिंह को आशवस्ति प्रदान कर रही है। प्रदेश में कांग्रेस सरकार की मौजूदगी भी एक तरह से उनके लिए साहस बढ़ाने का काम कर रही है। दिग्विजय ने स्वंय को हिंदू बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी परंतु उनकी संतुलन बनाने की असाधरण क्षमता उन्हें प्रज्ञा ठाकुर से मीलों आगे खड़ा कर रही है। प्रशासनिक तबकों में उनकी पैंठ अभी भी मौजूद है। वहीं दूसरी ओर साध्वी को टिकट देने और हिंदुत्व वादी राजनीति के लिए भोपाल को केंद्र बनाने से, भोपाल के नागरिकों का बड़ा समूह विचलित हो उठा है। तमाम सारे ऐसे लोग जो भले ही दिग्विजय सिंह के प्रशंसक न हों, वे भोपाल को हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला के रूप में विकसित नहीं होने देना चाहते अतएव अनिच्छा से ही सही वे भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ हो गए हैं।

इस बीच यह साफ तौर पर तो नहीं कहा जा सकता कि साध्वी को उतारना हिंदू आतंकी ब्रिगेड की स्थापना है, लेकिन इससे अतिवादी समूहों को नई प्राणवायु अवश्य मिल रही है। हाशिये पर पड़े तमाम कार्यकर्ता जहां सामने आए हैं वहीं वास्तविक राजनीतिक कार्यकर्ताओं का भविष्य खतरे में पड़ गया है। चूंकि विकास और बढ़ती आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विषमताएं भाजपा के चुनावी मुद्दे नहीं रह गए हैं और दिग्विजय सिंह ने उनकी ओर बखूबी ध्यान दिया है, साथ ही भोपाल को एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) की तरह विकसित करने का प्रस्ताव सामने रखा है तो इसके भी सकारात्मक परिणाम कांग्रेस को मिलने की संभावना है।

रवींद्रनाथ टैगोर भारत के बारे में कहते हैं,”अपने इतिहास के आरंभिक दौर में भारत सभी तरह की मुठभेड़ों व षड्यंत्रों के प्रति तटस्थ रहा। उसके घर, उसके खेत, उसके मंदिर, उसके विद्यालय, यहां विद्यार्थी तथा शिक्षक सरलता, धर्मानुराग व विद्यार्जन के भाव से इक_े रहते थे। उसके स्वशासन के सरल कानून व शातिपूर्ण प्रशासन से युक्त गांव- यह सब उसका वास्तविक स्वरूप है। उसके सिंहासन उसकी चिंता के कारण नहीं रहे। वे तो उसके सिर के ऊपर से बादलों की तरह गुजर जाते रहे हैं। ये बादल अपने साथ विध्वंस ज़रूर लाते हैं। लेकिन प्राकृतिक विपदाओं की तरह शाीघ्र ही भुला दिए जाते हैं।’’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इसी भावना से काम किया है। आरएसएस व भाजपा आज फिर बीती शताब्दियों के सिहासनों की याद दिला कर भविष्य के सिंहासन पर कब्जा करना चाहती है। भारतीय जनता यदि इंदिरा गांधी को अस्वीकार कर पुन: स्वीकार कर सकने की क्षमता रखती है तो वह नरेंद्र मोदी को स्वीकार कर उन्हें अस्वीकार करने का माद्दा भी रखती है।

भोपाल लोकसभा के चुनावों को भारत के भविष्य से जोडऩा एक हद तक ही वाजिब है। यह परिवर्तन भारी सि़द्ध नहीं होगा क्योंकि भोपाल अकेला भारत नही है। इसकी विविधता ही इसकी पहचान है और बनी रहेगी। इसमें उतार-चढाव आते रहेंगे। दिग्विजय व प्रज्ञा ठाकुर का चुनावी संघर्ष भारतीय लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण घटना ज़रूर सिद्ध हो सकता है। भोपाल की जनता इस चुनाव में हमें धर्मानुराग व धर्मयुद्ध के बीच का अंतर ज़रूर समझा सकती है। परंतु आखिरकार हम सब कयास ही लगा सकते हैं, निर्णय तो 23 मई ही बताएगी। तब तक सजग बने रहें। जो विध्वंसकारी राजनीति के पैरोकार हैं वे खुर्शाीद उल इस्लाम के इस शेर पर ध्यान दें-

देखा उन्हें करीब से हमने तो रो दिये,

जिन बस्तियों को आग लगाने चले थे हम।