चाटुकारिता का नवयुग

शिवेंद्र राणा

देश में नये राष्ट्रपिता उदित हुए हैं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान उप मुख्यमंत्री फडणवीस साहब की पत्नी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में देश को इस तथ्य से परिचित करवाया। उन्होंने कहा था कि महात्मा गाँधी पुराने भारत के राष्ट्रपिता हैं, जबकि नरेंद्र मोदी नये भारत के राष्ट्रपिता। सामान्यत: संवैधानिक पद पर बैठे हुए किसी व्यक्ति के परिवार से ऐसे ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयानों की अपेक्षा नहीं होती है। किन्तु छिछले एवं निम्न कोटि के वैचारिक काल में ऐसे वक्तव्य कोई बहुत बड़ी घटना नहीं है, फिर भी इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि सभ्य समाज का मौन ऐसे विकृत मानसिकता के लोगों को और अधिक असभ्यता के लिए उकसाता है।

फडणवीस की पत्नी की इस चाटुकारितापूर्ण बयान पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक जीवन में ऐसे लोग आसानी से उपलब्ध हैं, जो जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने एवं सस्ती प्रसिद्धि पाने हेतु ऐसी ऊल-जुलूल बातें करते हैं। आश्चर्य है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत का दावा करने वाली पार्टी के किसी भी नेता ने अब तक ऐसे अमर्यादित बयान की भत्र्सना क्यों नहीं की? ऐसा वक्तव्य एक बारगी तो प्रधानमंत्री को प्रसन्न कर सकता है, किन्तु अंतत: उन्हें और उनके समर्थकों को आलोचना और उपहास का पात्र ही बनाता है। समझना कठिन है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी एवं पं. दीनदयाल उपाध्याय की परम्परा इतनी भ्रष्ट कैसे हो सकती है?

वह पं. दीनदयाल, जिन्होंने जीवन भर अपने नाम को प्रचारित करने के बजाय परदे के पीछे काम किया। उनकी परम्परा में ऐसे बकवादी एवं प्रचार-जीवी नेता कैसे पैदा हो गये हैं? जनसंघ-भाजपा में चाहे जो भी बुराई रही हो, किन्तु चाटुकारिता की परम्परा कभी भी नहीं रही थी। यह पुरानी परम्पराएँ तूट रही हैं, क्योंकि नयी परम्परा स्थापित कर रही इस पार्टी में अब कुछ भी सम्भव दिखता है। सम्भवत: यह सत्ता की निकटता का दोष हो, क्योंकि सत्ता का विकट आकर्षण कभी भी व्यक्ति के सिद्धांतों को पतित कर सकता है। देश में कट्टरपंथ का आसन्न संकट दिख रहा है। बेरोज़गारी चरम पर है। उधर कश्मीर में रोज़ हिन्दुओं की हत्याएँ हो रही हैं, और इधर साहेब देश-विदेश में अपनी छवि चमकाने में लगे हैं।

दरअसल असल में समस्या कुछ और है। कांग्रेस एवं नेहरू-इंदिरा की आलोचना करते हुए मोदी के नेतृत्व में भाजपा उसी राह पर चल पड़ी है। व्यवहार में मोदी भले ही जताते न हो; लेकिन नेहरू-इंदिरा की भाँति उन्हें भी चाटुकारों से घिरे रहना ख़ूब भाता है। वैसे ही उनका अहंकार उनकी कार्यशैली में दिखता है।

हालाँकि प्रधानमंत्री की निर्णयन क्षमता प्रशंसनीय है। उन्होंने जिस तरह कश्मीर मामले और अनुच्छेद-370 से निपटा, सीएए-एनआरसी के माध्यम से अवैध घुसपैठ को चिह्नित करने का प्रयास किया, डीबीटी (डायरेक्ट मनी ट्रांसफर) जैसे सफल प्रयोग, भारतीय विदेश नीति की प्रभावशीलता स्थापित करने इत्यादि के लिए वह नि:संदेह साधुवाद के पात्र हैं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह सर्वाधिकारवाद को प्रश्रय देने लगे। कुछ यही स्थिति इंदिरा गाँधी की भी थी। कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा ‘एक ज़िन्दगी काफ़ी नहीं’ में लिखते हैं- ‘इंदिरा गाँधी की निर्णय क्षमता उनकी बहुत बड़ी ख़ूबी थी। लेकिन धीरे-धीरे उनके कामकाज के तौर-तरीक़ों में अधिकारवाद की झलक दिखायी देने लगी।’

जैसा कि पूर्व में इंदिरा गाँधी और उनकी कांग्रेस स्वयं को लोकतांत्रिक संस्थाओं ही नहीं, बल्कि आलोचनाओं तक से ऊपर मानती थीं। उसी प्रकार मोदी और भाजपा भी ख़ुद को आलोचना से परे समझते हैं। अपने आलोचकों को अमेरिकी एजेंट और भारत विरोधी बताना इंदिरा गाँधी के प्रत्युत्तर का तरीक़ा था। उसी प्रकार किसी भी नेता, लेखक या पत्रकार तथ्यात्मक समालोचना पर भी भाजपा अपने मंत्री-नेताओं, पार्टी काडर और समर्थकों के साथ उस पर टूट पड़ती हैं। उसे तुरन्त देशद्रोही, विदेशियों का एजेंट और ग़द्दार बताया जाने लगता है। आधिकारिक आँकड़ों के जवाब में साहेब अपने त्याग एवं भावुकता के तर्कों से संवाद का रुख़ परिवर्तित कर देते हैं और फिर देश भर के उनके समर्थकों के लानत-मलानत तथा गालियों के बीच आलोचक नितांत अकेला रह जाता है। यह राजतंत्र अथवा अधिनायकवादी देश के लिए तो ठीक है; लेकिन एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के भविष्य के लिए ऐसा व्यवहार अनैतिक एवं निंदात्मक है। ध्यातव्य है कि कांग्रेस द्वारा नेहरू परिवार की चरण वंदना की पुरातन परम्परा अब तक अनवरत गतिशील रही है। सोनिया गाँधी को राजमाता और राहुल गाँधी को युवराज कहने वाले कांग्रेसी अपनी निरंतर राजनीतिक दुर्गति के बावजूद अब भी सुधरने को तैयार नहीं हैं। अब पूर्व विदेश मंत्री सलमान ख़ुर्शीद ने राहुल गाँधी की तुलना भगवान श्रीराम से करते हुए उन्हें योगी और तपस्वी बता दिया।

डॉ. आंबेडकर ने कभी व्यक्ति पूजन की इसी विकृत मानसिकता को लोकतंत्र के लिए घातक रोग कहकर भत्र्सना की थी, जिसे कांग्रेस के पश्चात् भाजपा ने अपना लिया है। भाजपा में व्यक्ति आधारित सर्वसत्तावाद का दौर वर्तमान से पूर्व कभी नहीं रहा था, तब भी नहीं जब अटल-आडवाणी युग शिखर पर था। अत: मोदी जितनी भी पं. नेहरू-इंदिरा की मुखर आलोचना करें; लेकिन वास्तविक यह है कि उनके विभाजित व्यक्तित्व में नेहरू भी हैं और इंदिरा भी। यथार्थ यही है कि अब भाजपा की कार्यशैली भी कांग्रेस से भिन्न नहीं रह गयी है। जैसा कि प्रो. शंकर शरण अपनी किताब ‘संघ परिवार की राजनीति’ में लिखते हैं- ‘भाजपा केवल बेहतर कांग्रेस बनने में लगी हुई है, जो वस्तुत: उसकी पुरानी चाह भी थी।’

देश अपने अतीत से सीखने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं है। आपातकाल के दौर में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरुआ एवं बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जैसे चाटुकारों के ‘इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया’ जैसे नारों ने इंदिरा गाँधी की तानाशाही प्रवृत्ति को लोकतंत्र के लिए विध्वंसक बना दिया। उन्होंने आपातकाल के दौरान घोषणा की थी- ‘देश बिना विपक्ष के चल सकता है। भारत के इतिहास में विपक्ष अप्रासंगिक है।’

उसी प्रकार मोदी के नेतृत्व में भाजपा भी भारतीय राजनीति को विपक्ष-विहीन करने की मुहिम पर निकल चुकी है। वैसे भी कांग्रेस मुक्त भारत पिछले नौ वर्षों में पार्टी का सबसे लोकप्रिय नारा है। कांग्रेस में एकाधिकार के विपरीत संघ-भाजपा में नेता विशेष के स्वेच्छाचारी निर्णयन का दौर कभी भी नहीं रहा है। अगर ऐसा होता, तो गुजरात दंगों के पश्चात् अटल जी के इच्छानुरूप मोदी मुख्यमंत्री पद से हटाकर नेपथ्य में फेंक दिये गये होते, क्योंकि भाजपा का एक प्रभावशाली गुट उन्हें अपदस्थ करने पर तुला हुआ था। तब आडवाणी मोदी की ढाल बन गये।

उस दौर में भी पार्टी लाइन से इतर विचार रखने वालों की कमी नहीं थी, बल्कि खुलेआम वाद-प्रतिवाद भी होते थे। इससे पहले भी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में शामिल कुछ नेताओं का निष्कासन हुआ। जैसे कि बलराज मधोक, जब उन्होंने पार्टी विचारधारा के सार्वजनिक ख़िलाफ़त की अति कर दी, तब जाकर सामूहिक निर्णयन से उनका निष्कासन हुआ। लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘माय कंट्री माय लाइफ’ में इसका विस्तृत विवरण देते हैं। वही अटल बिहारी वाजपेयी, जिनके व्यक्तित्व और पार्टी धर्म की राजनीति में क़समें खायी जाती हैं; से व्यक्तिगत टकराव में जब कल्याण सिंह जैसे क़द्दावर नेता ने अटल के ख़िलाफ़ निरंतर अभद्र सार्वजनिक टिप्पणियाँ कीं, तब पार्टी ने उन्हें निष्कासित किया। लेकिन आज परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि मोदी-शाह से असहमति रखने वालों को एक पल में नेपथ्य में फेंक दिया जाएगा। नेहरू परिवार की कांग्रेस की ही भाँति अब भाजपा में भी कोई भी ‘साहेब और उनके चाणक्य’ के एकाधिकार के विरुद्ध प्रतिवाद करने का साहस नहीं कर सकता।

वैसे भी साहेब का अतीत रहा है कि जिससे भी उनको चुनौती मिली है या मिलने की सम्भावना रही है, उसको उन्होंने नेस्तनाबूत करके ही दम लिया है। संजय जोशी, प्रवीण तोगडिय़ा जैसे प्रतिबद्ध संघियों ही नहीं, बल्कि आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार जैसे भाजपा नेताओं के साहेब और उनकी सेना ने क्या हाल किया, यह सर्वविदित है। वही व्यापक जनाधार वाले नितिन गडकरी एवं शिवराज चौहान जैसे लोकप्रिय नेताओं को पहले राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर किया गया, अब धीरे-धीरे नेपथ्य में धकेला जा रहा है।

हाँ, इसी बीच मोदी-शाह के चरणवंदक चाटुकार लॉबिस्टों, दूसरे दलों से भाजपा में आये पूर्व के घोर संघ-भाजपा विरोधियों, नौकरशाहों एवं फ़र्ज़ी बुद्धिजीवियों आदि विभिन्न वर्ग के अवसरवादियों की पौ-बारह है। भारतीय राजनीति में व्याप्त जिस नेहरूवाद की भाजपा कटु आलोचक रही थी, उसकी सरकार में वही सब दोगुनी तीव्रता से हो रहा है।

मुख्य मुद्दे पर लौटें, फडणवीस की पत्नी का प्रधानमंत्री को राष्ट्रपिता के रूप में संबोधित करना भाजपा नेताओं एवं समर्थकों की उसी आलोचना प्रक्रिया का भाग है, जो निकट कुछ वर्षों से प्रचलन में है। आख़िर गाँधी की समालोचना में समस्या कहाँ है? नेतृत्व, सिद्धांत, विचार, कार्यशैली, व्यक्तिगत व सार्वजनिक व्यवहार के आधार पर उनकी आलोचना होनी भी चाहिए और निरंतर होती भी रही। आख़िर यह किसी व्यक्ति का संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है (अनुच्छेद-9,क)। समीक्षा और आलोचना की कसौटी मानव जीवन में कभी भी अपवाद स्वरूप नहीं होनी चाहिए। एक बौद्धिक समाज के लिए समीक्षा के अधिकार से परे तो ईश्वर भी नहीं होता, फिर मत्र्य मानव को कैसे परे रखा जा सकता। लेकर दिक्क़त भाषा और अभिव्यक्ति की मर्यादा बनाये रखने की। निकट कुछ वर्षों में गाँधी की आलोचना के लिए उद्धत वर्ग छिछले स्तर पर उतर आया।

इसी का प्रभाव है कि पिछले दुर्गा पूजा महोत्सव के दौरान कोलकाता में महिषासुर की जगह महात्मा गाँधी की तरह दिखने वाली प्रतिमा रखी गयी। सम्भवत: अपने सम्पूर्ण जीवन-काल में गाँधी जी के कुछ विचार, सिद्धांत, कार्य-व्यवहार किसी व्यक्ति, वर्ग या समाज विशेष को अनुचित प्रतीत हो सकते हैं। परन्तु उन्हें एक राक्षस के रूप में प्रदर्शित करने जैसे कृत्यों को मानसिक विक्षिप्तता की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। भावनाओं के ज्वार में मर्यादाओं के मानक ध्वस्त नहीं होने चाहिए।

यह तब और आवश्यक हो जाता है, जब आपके आलोचनाओं का केंद्र एक ऐसा व्यक्ति हो, जिसका देश राष्ट्रपिता के रूप में सम्मान करता हो। वैसे भी नेताजी सुभाषचंद्र बोस की विरासत के उत्तराधिकार का दावा करने वालों से इतनी उम्मीद की ही जा सकती है कि जिन सुभाष बाबू ने गाँधी जी को राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित किया था, कम-से-कम उनकी भावना का सम्मान करते हुए सार्वजनिक मर्यादा तो बनाये रखी ही जा सकती है।

(लेखक राजनीति व इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)