घर से बाहर तक होता है नौकरीपेशा महिलाओं का उत्पीडऩ

महिला चाहे गृहणी के रूप में हो या नौकरीपेशा, क्रूर और हिंसक प्रवृत्ति के पुरुषों की किसी-न-किसी प्रकार की प्रताडऩा का कभी-न-कभी शिकार हो ही जाती है; फिर चाहे ये पुरुष उनके घर के सदस्य हों या बाहर के। नौकरीपेशा महिलाएँ घर से बाहर तक किसी-न-किसी प्रकार की प्रताडऩा का शिकार होती हैं, यह बात तब और मज़बूती से पता चली जब ‘तहलका’ की स्वतंत्र संवाददाता मंजू मिश्रा ने अनेक नौकरीपेशा महिलाओं से बातचीत की। पेश है इसी बातचीत पर आधारित रिपोर्ट :-

आपने क्राइम पेट्रोल, सावधान इंडिया जैसे सच्ची घटनाओं पर आधारित सीरियल देखें ही होंगे। इन सीरियलों में अधिकतर में महिलाओं की प्रताडऩा, हत्या और यौन हिंसा पर सामने आते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन घटनाओं में अधिकतर पीडि़ताएँ नौकरीपेशा या कामकाज से बाहर निकलने वाली ही होती हैं। कुछ घर पर रहने वाली महिलाएँ अक्सर कहती हैं कि नौकरीपेशा महिलाओं को क्या? वे तो नौकरी करती हैं; उनके आनंद-ही-आनंद हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। सच्चाई इससे बहुत परे है। दरअसल, आज हम भले ही आधुनिक युग में जी रहे हैं, लेकिन महिलाओं को दासी समझने वाले संकीर्ण सोच के लोग आज भी दुनियाभर में बड़ी तादाद में हैं; खासतौर से भारत और दूसरे पिछड़े देशों में। हमारे देश के सम्भ्रांत लोगों ने भले ही हमारे पुरुष समाज को सिखाया है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, तत्र रमंते देवता’; परन्तु अधिकतर पुरुषों के लिए नारी एक दासी और भोग की वस्तु से ज़्यादा आज भी कुछ नहीं दिखती। यही कारण है कि हर क्षेत्र में पुरुषों के कन्धे-से-कन्धा मिलाने वाली नारी आज भी पुरुष प्रधानता के आगे बौनी और प्रताडि़त है। यह बात हम यूँ ही नहीं कह रहे हैं। इसके लिए हमने बाकायदा नौकरीपेशा महिलाओं की पीड़ा सुनी और समझी है। इन महिलाओं में अधिकतर ने बताया कि वे घर में किसी-न-किसी बहाने से प्रताडि़त होती हैं। अहमदाबाद के नारोल क्षेत्र में स्थित अनुनय फेब्रिक प्रा.लि. नामक कम्पनी में तकरीबन 60 से अधिक महिलाएँ नौकरी करती हैं। इनमें से एक हैं सीमा कुमारी। सीमा बताती हैं कि उन्हें घर पहुँचने में दो-चार मिनट की देरी हो जाए, तो उनका पति उन्हें भद्दी-भद्दी गालियाँ देने लगता है। इतना ही नहीं, जब उसे किसी बात पर गुस्सा आता है, तो वह मुझे ही पीटने लगता है। सास भी अपने बेटे का ही पक्ष लेते हुए कहती है कि बाहर क्या निकली है, बिगड़ गयी है। सीमा कहती हैं कि अगर वह घर में बैठती हैं, तो भी उनकी पिटाई होती है। कहा जाता है कि बैठे-बैठे खा-खाकर भैंस हो रही है। यह कहते-कहते सोनी की आँखें भर आती हैं और गला रुँध जाता है। इसी कम्पनी में दूसरी महिला रुचि कहती हैं कि उनका पति मारते तो नहीं हैं, पर कभी-कभी शक करते हैं। हाँ, कभी मेरी तबीयत खराब हो और मैं घर में काम न कर पाऊँ या नौकरी पर न जाऊँ, तो गाली-गलौज देने लगते हैं। लेकिन मैं कोशिश करती हूँ कि ऐसी नौबत ही न आने दूँ।

यह तो सामान्य घरों की महिलाएँ हैं। बड़े और सम्भ्रांत घरों की महिलाएँ भी घरों में कम प्रताडि़त नहीं होती हैं। ऐसे ही संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखने वाली एक महिला पूजा भास्कर (बदला हुआ नाम) हैं। पूजा भास्कर कहती हैं कि मेरे पति अधिकारी हैं और मैं क्लर्क। मेरे पिता ने एक अधिकारी से यही सोचकर मेरी शादी की थी कि मैं हमेशा सुखी और खुश रहूँगी, लेकिन यह सोच गलत साबित हुई। कभी-कभी सोचती हूँ कि मेरा पति भले ही गरीब होता, पर कम से कम मेरी इज़्ज़त और मेरा भरोसा करने वाला होता। कई बार सोचा कि तलाक ले लूँ, लेकिन फिर माता-पिता की इज़्ज़त और समाज के बारे में सोचकर खामोश रह गयी। पूजा बताती हैं कि उनका पति कभी-कभी उन्हें इतनी भद्दी-भद्दी गालियाँ देता है कि उससे ज़्यादा सम्भ्रांत अनपढ़ लोग लगते हैं।

यह तो चन्द उदाहरण हैं समाज में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के, अगर पूरे देश में देखें, तो 85 फीसदी महिलाएँ किसी-न-किसी तरह पुरुषों की प्रताडऩा की शिकार होती रहती हैं। आज जब अंतरिक्ष से लेकर शिक्षा, कानून, पत्रकारिता, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, खेल, सेना, राजनीति, व्यापार, पुरातत्त्व विभाग और दूसरे क्षेत्रों में महिलाएँ पुरुषों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर उल्लेखनीय सेवाएँ दे रही हैं, तब भी पुरुष मानसिकता उनके प्रति उतनी नहीं बदली है, जितनी कि बदलनी चाहिए थी।

दोहरी ज़िम्मेदारी उठाती हैं नौकरीपेशा महिलाएँ

बड़े दु:ख की बात है कि हमारे समाज में महिलाओं और पुरुषों को दो अलग-अलग दृष्टियों से देखा जाता है। यह दृष्टि का अन्तर जन्म से ही शुरू हो जाता है। हालाँकि अनेक पुरुषों की सोच बदली है और वे बेटियों को बेटों से कम नहीं समझते, लेकिन वहीं ऐसे भी लोग हैं, जो गर्भ में ही बेटियों की हत्या करने तक से नहीं हिचकते। ऐसे ही लोग महिलाओं को दासी और भोग की वस्तु समझते हैं। यही वजह है कि अधिकतर घरों में बेटियों को बचपन से पढ़ाई के बोझ के साथ-साथ घर के कामकाज में धकेल दिया जाता है। अधिकतर देखा जाता है कि पुरुष पैसा कमाने के अलावा बाकी काम करने से बचते हैं। खासतौर से वे घर के कामकाज से तो काफी दूर ही रहते हैं। लेकिन वहीं महिला अगर नौकरीपेशा भी हो, तो भी उसे घर का काम करना ही पड़ता है। यानी नौकरीपेशा महिलाओं पर दोहरी ज़िम्मेदारियों का बोझ होता है। कई बार तो कुछ महिलाओं पर इतना ज़्यादा काम पड़ता है कि उनका पूरा जीवन तनाव में ही व्यतीत हो जाता है।

दोहरी ज़िम्मेदारियाँ कर देती हैं बीमार

90 फीसदी नौकरीपेशा महिलाएँ दोहरी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाती हैं। ऐसी महिलाओं पर घर के काम का बोझ बमुश्किल कम होता है। नेहा नाम की 26 वर्षीय विवाहित युवती बताती हैं कि वह प्राइवेट नौकरी करती हैं। हर रोज़ 8:30 से 9:00 घंटे के दफ्तर में काम करने के बाद वह घर का भी सारा काम करती हैं। वह सुबह 5 बजे उठती हैं और रात को 11:00-12:00 घर के कामों से फ्री हो पाती हैं। इस पर भी ज़रूरी नहीं कि उन्हें तुरन्त सोने को मिल जाए। दिन-रात काम में लगे रहने के चलते वह थकान, तनाव, पैरों में दर्द और कमज़ोरी महसूस करने लगी हैं। अहमदाबाद के नारौल में महिला विशेषज्ञ डॉक्टर सविता बेन कहती हैं कि ऐसी महिलाओं की परेशानी को घर वालों को भी समझना चाहिए, वरना आगे चलकर गम्भीर बीमारियों से महिलाएँ घिर जाती हैं। डॉक्टर सविता बेन सलाह देती हैं कि महिलाओं को भी चाहिए कि वे अपने लिए समय निकालें। एसोचैम की एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, 78 फीसदी नौकरीपेशा महिलाओं के जीवन में कोई-न-कोई तनाव है। जबकि 42 फीसदी महिलाएँ अधिक काम करने के चलते उम्र से पहले पीठ दर्द, पैर दर्द, सिर दर्द, कमर दर्द, थाइराइड, कमज़ोरी, मोटापा, हृदयाघात, अवसाद, तनाव, भूख न लगना या कम खाना खाने, मधुमेह, उच्च रक्तचाप में से एक या कई बीमारियों से पीडि़त हैं। सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार, 60 फीसदी महिलाओं में 35 साल की उम्र तक हृदयाघात तक की शिकायत मिली है। इन बीमारियों का एक बड़ा कारण यह भी है कि 83 फीसदी महिलाएँ किसी तरह का व्यायाम नहीं करतीं, जबकि 57 फीसदी महिलाएँ पौष्टिक आहार नहीं ले पाती हैं।

कम खाकर भी करती हैं अधिक काम

अक्सर महिलाएँ कम खाकर भी अधिक काम करती हैं। ऐसा देखने में आया है कि महिलाएँ पहले पूरे परिवार का खयाल रखती हैं, फिर अपना। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर पाया जाता है कि कुछ महिलाएँ बिना सबको खिलाये खाना ही नहीं खातीं। इसी तरह से नौकरीपेशा महिलाएँ भी अधिकतर सबको खाना खिलाने के या सबके लिए खाना बनाकर ही साथ में खाना खा पाती हैं। ऐसे में अधिक काम और कम वजन या कम पोषण वाला भोजन करने से उनको परेशानी होने लगती हैं।

घर से बाहर तक होती हैं प्रताडि़त

नौकरीपेशा महिलाएँ घर में ही प्रताडि़त नहीं होती, बल्कि बाहर भी प्रताडि़त होती हैं। क्योंकि जब ऐसी महिलाएँ घर से बाहर निकलती हैं, तब कहीं-न-कहीं गलत लोगों की नज़रों से बच नहीं पातीं। कई तो उनका पीछा करने लगते हैं, छेडख़ानी तक कर डालते हैं। यहाँ तक कि कई बार यौन शोषण की शिकार भी हो जाती है। यही नहीं, घर में वे कई तरह से प्रताडि़त होती हैं, जैसे काम न करने पर या कोई परेशानी होने पर काम से छुट्टी लेने की कोशिश करने पर बिना कारण ही पति अथवा परिजनों की खरी-खोटी सुननी पड़ती है।

देखी जाती हैं संदेह की नज़र से

नौकरीपेशा महिलाएँ कई बार संदेह की नज़रों से घर में ही देखे जाने लगती हैं। हमारे आसपास ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जिनमें महिलाओं को संदेह की नजरों से न केवल घर में देखा जाता है, बल्कि उनकी उन्हें प्रताडि़त भी किया जाता है। सपना (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि अगर वे नौकरी न करें, तो उनका पति उन्हें मारता है और अगर वह घर में नौकरी करने के लिए बाहर जाती हैं, तो उनको संदेह की नज़रों से देखा जाता है। ऐसे में वह बहुत परेशान हैं। समझ नहीं पा रही कि क्या करें? उन्होंने कई बार पति को समझाने की कोशिश की, लेकिन वह अपनी आदतों से बाज़ नहीं आता।

पुरुषों से अधिक सहनशील होती हैं महिलाएँ

एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया है कि पुरुषों से अधिक संवेदनशील महिलाएँ होती हैं। न केवल संवेदनशील बल्कि दूसरों का खयाल रखने में महिलाएँ अगर नहीं होती हैं। महिलाओं की यही आदत उन्हें घर में ज़्यादातर काम करवाने के लिए विवश करती है और दूसरों का खयाल रखने के लिए विवश करती है। जबकि पुरुषों में यह पाया गया है कि पुरुष महिलाओं का उतना खयाल नहीं रखते, जितना उन्हें रखना चाहिए। यही कारण है कि कई महिलाएँ तनाव या ग्रस्त हो जाती हैं और कई बार तो आत्महत्या तक कर लेती हैं।

अपनी बात कहने पर भी होती है पाबंदी

महिलाओं के साथ एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि वह अपने मन की बात अपनी पीड़ा, अपना दु:ख-दर्द भी कहने से डरती हैं या उन्हें कहने नहीं दी जाती। बहुत कम महिलाएँ हैं, जो अपना दु:ख-दर्द अपने घर में शेयर कर देती हैं। और घर वाले उनके दु:ख-दर्द को समझते हैं। वरना अधिकतर यही होता है कि जब भी वे अपनी कोई तकलीफ बताती हैं, पति और परिजन, खासतौर से सास-ससुर उसे बहानेबाज़ी बताकर उनकी बात को दबाने की कोशिश करते हैं। यही नहीं पति तो महिला की तकलीफों पर ध्यान ही नहीं देता और पत्नी को उपभोग की वस्तु समझकर सिर्फ इस्तेमाल करने की कोशिश करता है।

बिना जुर्म किये भी ठहरा दी जाती हैं अपराधी

कई बार देखा गया है कि यदि कोई महिला नौकरीपेशा है और मैं बाहर जा रही है और यदि बाहर उस पर किसी तरह की फब्तियाँ कसी जाती हैं अथवा उसे से किसी प्रकार की छेड़छाड़ होती है और वह इस बात को घर में कह भी देती है, तो उस पर ही उलटे आरोप लग जाते हैं। बहुत कम लोग हैं, जो महिलाओं की बातों पर विश्वास करते हैं या उनके की गयी शिकायत को ध्यान में रखकर बाहरी अराजक तत्त्वों को रोकने की कोशिश करते हैं। दु:ख इस बात का है कि कई बार पुलिस भी ऐसे मामलों में एकदम कोई ठोस कदम नहीं उठाती, जब तक कि कोई अनहोनी न हो जाए। यही वजह है कि महिलाओं पर अत्याचार रुक नहीं रहे हैं।

क्या कहती है सर्वे रिपोर्ट?

एसोचैम की एक सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि माँ बनने वाली महिलाओं के लिए दफ्तर और घर में काम करने में सबसे ज़्यादा मुश्किल आती है। सर्वे के मुताबिक, 40 फीसदी महिलाएँ ऐसे समय में नौकरी छोडऩे पर मजबूर होती हैं। सर्वे में यह भी कहा गया है कि कामकाजी महिलाओं की तुलना में घरेलू महिलाओं में अवसाद और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही।