‘घर का दीपक’

आज श्रवणलाल की नींद जल्दी खुल गई। सुबह के छह बज गये थे। शीला गहरी नींद में सो रही थी। अभी पत्नी को जगाना उसने उचित नहंी समझा। बिस्तर पर से उठकर सबसे पहले वह मंदिर में गया। नतमस्तक होकर उसने भगवान को प्रणाम किया। फिर दैनिक कार्यों से निपट कर उसने रसाई घर का दरवाजा खोला। गैस का चूल्हा जलाकर चाय बनाई और दोनों हाथों में चाय के कप उठाकर वह बेडरूम में आया। ऊंचे स्वर में उसने पत्नी को पुकारा।

‘उठो शीला, सुबह के सात बज गए हैं। आज दीपावली है और तुम अभी तक सो रही हो!’

पत्नी ने आंखें खोली। एक लम्बी जम्हाई ली और पलंग पर उठ बैठी। श्रवणलाल के हाथ में से चाय का कप पकड़कर उसने गहरी नि:श्वास छोड़ी।

‘हां, परंतु हमारी क्या दीपावली। हमारे घर का दीपक तो रूठ गया है हमसे। मन में दीपावली मनाने की इच्छा ही नहीं होती है।’

‘तुम ठीक कहती हो शीला, मन में कोई उत्साह, उमंग नहीं है लेकिन साल का बड़ा त्यौहार है कुछ तो करना ही पड़ेगा।’

पति की बात का कोई उत्तर नहीं दिया पत्नी ने। आंखे मूंदकर वह चुपचाप चाय सुड़कने लगी। श्रवणलाल ने चाय का कप टेबल पर रखा और आज का अखबार खोलकर कुर्सी पर बैठ गया। चाय के साथ वह अखबार पढऩे लगा। शीला ने चाय खत्म की और दोनों कप उठाकर किचन में चली गई। श्रवणलाल का मन आज पढऩे मेें नहीं लगा। नज़रें शब्दों पर से हट गई। वह निर्वात में ताकने लगा। क्षणमात्र में ही उसका मन उड़कर जीवन के तीन दशक पार कर गया।

श्रवणलाल ने जब इस शहर में कदम रखा था। तब उसकी उम्र केवल सत्रह साल की थी। गांव के स्कूल से उसने दसवीं कक्षा पास की थी और रोज़गार की तलाश में इस शहर में चला आया था। सड़कों पर दौड़ती रंग बिरंगी मोटरें, ऊंची ऊंची आलीशान इमारतें, धुआं उगलती बड़ी बड़ी फैक्ट्रियां। रात में बिजली के बल्बों की रोशनियों में चमकते हुए इस शहर की वैभवता को देखकर उसकी आंखें फटी रह गई थी। उनमें रंगीन सपने तैरने लगे थे।

थोड़े से ही प्रयास में श्रवणलाल को नायलोन फैक्ट्री में हेल्पर की नौकरी मिल गई। फैक्ट्री के पीछे ही गांधीनगर कच्ची बस्ती में उसने एक किराये का कमरा ले लिया था। जिसकी छत टिन की चद्दरों की थी और फर्श लाल पत्थरों का बना हुआ था। दिनभर वह फैक्ट्री में मेहनत से काम करता था और रात को  इस कमरे में आकर सो जाता। उसका जीवन मशीन की तरह चलने लगा था।

वह कमाने लगा तो एक वर्ष बाद ही माता पिता ने शीला के साथ उसका विवाह कर दिया था। काली आंखों वाली दुबली पतली लम्बी शीला को पत्नी के रूप में पाकर वह प्रसन्न हो गया था। शीला ने यहां आकर कुछ ही दिनों में उसके घर को संवार दिया था। वह सुबह शाम उसके लिए खाना बनाती थी और दिनभर घर के कामों में लगी रहती थी। घर में एक एक वस्तु को वह व्यवस्थित सजाकर रखती थी। मिट्टी और पत्थरों की इस झोपड़ी को भी शीला ने स्वर्ग सा सुंदर बना दिया था। शाम को वह फैक्ट्री से घर लौटता तो दरवाजे पर हंसकर वह उसका स्वागत करती। शीला की काली आंखों में देखकर ही उसकी दिनभर की थकावट दूर हो जाती थी।

शीला घर में आ गई तो उसकी किस्मत भी खुल गई थी। फैक्ट्री में उसकी नौकरी पक्की हो गई थी और हेल्पर से प्रमोशन पाकर वह मैकेनिक बन गया था। कुछ समय बाद शीला गर्भवती हो गई थी। अब वह पत्नी का विशेष खयाल रखने लगा था। वह उसे समय समय पर नर्सिंग होम ले जाता था और डॉक्टर से चेकअप करवाता था। वह उसे दवाइयां लाकर देता था, उसके खाने पीने पर भी पूरा ध्यान देने लगा

था।

उस दिन दीपावली थी। शाम का समय था। पूरा शहर रंगबिरंगी रोशनियों से जगमगा उठा था। यत्र तत्र शहर में पटाखों के धमाके गंूजने लगे थे। वह नार्सिंग होम के बाहर बैंच पर बैठा था बेचैन और व्याकुल। ऑपरेशन थियेटर के अन्दर शीला प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी। कुछ समय बाद ही नर्स ने बाहर आकर उसे खुशखबरी सुनाई थी – ‘आपके घर में दीपक आया है।’ यह सुनकर वह प्रसन्नता से उछल पड़ा था।

सात दिन बाद घर में सूरज पूजन का कार्यक्रम हुआ था। बेटे के जन्म की खुशी में उसने मिठाइयां बंटवाई थी। घर के द्वार पर ढोल बाजे बजवाए थे और उन्होंने अपने बेटे का नाम रखा था दीपक।

हंसी खुशी के माहौल में समय तेजी से गुजर गया। दीपक बड़ा हो गया। 12वीं कक्षा पास करते करते कद मेें वह श्रवणलाल से भी लम्बा निकल गया। पढ़ाई में भी बेटे ने उसकी नाक ऊंची कर दी। गांधी नगर के सरकारी स्कूल में वह प्रथम स्थान पर रहा था। वह 84 प्रतिशत अंकों से पास हुआ था। यह खबर सुनकर श्रवणलाल का सीना गर्व से फूल गया था।

श्रवणलाल को अपना सपना साकार होते हुए नज़र आने लगा था। आगे पढ़ लिखकर वह डॉक्टर बनना चाहता था। एक ऐसा डाक्टर जो $गरीबों की सेवा करे। रोगियों और दुखियों का इलाज करके उनका दुख दूर करे। परंतु माता पिता की गरीबी के कारण यह संभव नहीं हो सका था। उसे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी थी। समुचित इलाज के अभाव में ही उसके माता पिता का असमय देहांत हो गया था। उसी समय श्रवणलाल ने मन ही मन अपने बेटे को डॉक्टर बनाने का निश्चय कर लिया था।

बाहरवीं कक्षा पास करने के बाद उसने बेटे दीपक का दाखिला स्टार कोचिंग सेंटर में करवा दिया था। वहां वह पीएमटी की कोचिंग लेने लगा था। दीपक को मन मांगी मुराद मिल गई थी। वह मन लगाकर पीएमटी की तैयारी में जुट गया था। देखते ही देखते एक साल गुज़र गया। वह दीपक को पीएमटी की परीक्षा दिलवाने जयपुर ले गया। एक महीने बाद ही इस परीक्षा का परिणाम घोषित हो गया था। दीपक का नाम मैरिट में नहंी आया था। यह देखकर उसके पूरे घर में निराशा छा गई थी। परंतु वह निराश नहीं हुआ था। निराशा में डूबे हुए बेटे को वह हिम्मत बंधाने लगा था। धीरे-धीरे उसने दीपक को एक साल और कोचिंग में पढऩे के लिए तैयार कर लिया।

उस वर्ष उसके जीवन में दो बड़ी खुशियों ने कदम रखे थे। एक तो लाटरी में उसके नाम हाऊसिंग बोर्ड का यह मकान आ गया था और दूसरा दीपक का चयन पीएमटी में हो गया। उसे इतनी अच्छी रैंक मिली थी कि उसका एडमिशन मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज में हो गया। श्रवणलाल स्वयं मुंबई गया था और बेटे का एडमिशन मेडिकल कॉलेज मेें करवा कर लौटा था।

अपने स्वयं के घर में आकर श्रवणलाल व शीला खुश हो गये थे। हर महीने वह आसान किश्तों में इस मकान की कीमत चुकाने लगा था। बेटा दीपक मुंबई में डॉक्टरी पढऩे लगा था। जब भी मौका मिलता माता पिता से मिलने वह घर आ जाता था। एक दो दिन उनके साथ रहकर वह वापिस लौट जाता था। हर वर्ष दीपावली की छुट्टियों में दीपक घर अवश्य आता था। दीपावली के साथ श्रवणलाल व शीला बेटे का जन्मदिन भी धूमधाम से मनाते थे। इस घर का कोना कोना खुशियों से भर उठता था।

इसी तरह छह साल का समय आसानी से गुजर गया था। दीपक की डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी हो गई थी। बेटे की एमबीबीएस की डिग्री देखकर श्रवणलाल की आंखों में खुशी का पानी छलछला आया था। हर्षित होकर उसने दीपक को गले लगा लिया था।

श्रवणलाल व शीला की उम्र अब ढल गई थी। उनके शरीर दुर्बल व कमज़ोर हो गये थे। वे दोनों चाहते थे कि बेटे की शादी हो जाये और अब वह उनके पास ही आकर रहे। लेकिन एक दिन बेटे ने जब मुंबई छोड़कर यहां आने से और शादी से इंकार कर दिया तो उन दोनों को पैरों तले की ज़मीन खिसक गई थी। पिछली बार जब दीपक घर आया था तो श्रवणलाल ने बेटे को समझाने का प्रयास किया था।

‘बेटा तू अब बड़ा और समझदार हो गया है, डॉक्टर बन गया है। तुझे अपने कंधों पर अब कुछ जिम्मेदारियों उठाने की ज़रूरत है। अब तुझे शादी करके अपनी गृहस्थी बसाने की आवश्यकता है। हमारे गांव के लोग बहुत बीमार व दुखी हैं, तुझे उनकी सेवा करने की आवश्यकता है। मैं और तेरी मां बूढ़े हो गये हैं। हमें भी अब तेरे सहारे की ज़रूरत है बेटा।’

उसके इन शब्दों में दीपक पर विपरीत असर किया था। उसकी बात को सुनकर वह भड़क उठा था।

‘ये आदर्श की बातें आप अपने पास रखिए पापा। आपके समाज से मुझे कोई लेना देना नहीं है। मेरा समाज तो मुंबई में है। आप मुझे इमोश्नल ब्लेकमेल करने की कोशिश मत कीजिए पापा। मैं आज ही मुंबई चला जाऊंगा।’

और उसी दिन उनका दीपक घर छोड़कर मुंबई चला गया था। वह उससे इतना अधिक नाराज़ हो गया था कि उसने उसके मोबाइल के नम्बर को भी बलाक कर दिया था। अब वह मोबाइल पर भी उससे बात नहीं कर सकता था। महीनों गुजर गये थे। कभी कभी वह मां से अवश्य बात कर लेता था। इस बार उसने दीपावली पर घर आने से भी इंकार कर दिया था।

‘कहां खोये हुए हैं आप, लीजिए चाय पीजिए।’

अचानक शीला की पुकार सुनकर उसके विचारों का प्रवाह टूट गया। अपने अतीत में डूबा हुआ श्रवणलाल वर्तमान में लौट आया। पत्नी के हाथ में से चाय का कप पकड़ कर वह बोला-

‘दीपक को मुझे कुछ नहीं बोलना चाहिए था शीला। अगर मैं उसे दो बात नहीं सुनाता तो आज दीपावली के दिन हमारा घर सूना नहीं रहता, दीपावली मनाने वह घर पर अवश्य आता।’

‘आपने तो सच बात बोली है उसे। अगर बेटा बेटी को माता पिता की बात ही कड़वी लगे तो हम क्या कर सकते हैं। आप परेशान मत होइये, यूं समझ लीजिए की हमारी किस्मत में औलाद का सुख लिखा ही नहीं है।’

अब दोनों पति पत्नी के बीच में वार्तालाप बंद हो गया। उनके बीच में गहरी खामोशी छा गई। भारी मन से दोनों चुपचाप चाय पीने लगे। कुछ क्षणों के बाद ही सहसा घर के द्वार पर घंटी बज उठी – ‘टिंग…टोंग…।’

चाय के खाली कपों को टेबल पर रखकर दोनों उठ खड़े हुए। धीरे-धीरे वे दरवाजे की ओर बढ़े। जैसे ही उसने दरवाजा खोला सामने अपने दीपक को खड़ा  हुआ देखकर दोनों चौंक पड़े। दूसरे ही क्षण बेटा आगे बढ़ा और माता पिता के चरणों में आ झुका।

‘आप मुझे क्षमा कर दें मम्मी पापा, आप मुझे क्षमा कर दें। मैं रास्ता भटक गया था। मुंबई को मैं हमेशा के लिए छोड़ आया हूं। अब जैसा आप चाहेंगे, मैं वैसा ही करूंगा।’

बेटे के शब्दों को सुनकर श्रवणलाल व शीला हार्षित हो उठे। कदमों से उठाकर उन्होंने दीपक को गले लगा लिया। उनकी आंखों में खुशी का पानी छलछला गया।