घरेलू हिंसा पर कोई बात क्यों नहीं?

देश में 15 साल की उम्र के बाद से हर तीसरी महिला को विभिन्न रूपों में घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है। इसके कई कारण हैं, बता रही हैं परी सैकिया।

29 दिसंबर की आधी रात को, तहलका संवाददाता ने अपनी माँ से व्हाट्सएप संदेश प्राप्त किया, जो संवाददाता को अंदर तक हिला देता है। जो कुछ उसके सामने था, यह संदेश संवाददाता की माँ की पहचान वाली महिला के बारे में था। महिला के व्यथित कर देने वाले संदेश थे, जिसमें वह अपने पति के अपमानजनक और गाली-गलोच करने वाले व्यवहार से छुटकारे की गुहार लगा रही थी। संवाददाता की माँ ने भय से भरे स्वर में पूछा- ‘क्या हम उसकी मदद कर सकते हैं?’

व्हाट्सएप पर और भी सन्देश थे, वीडियो और तस्वीरें थीं, जहाँ महिला को रोते हुए देखा जा सकता था। उसके सिर पर एक चोट से खून बह रहा था, जो कथित रूप से उसके पति ने उसे पहुँचायी थी। इस संवाददाता ने अपनी माँ से जानकारी लेने के बाद, बिना देर किये महिला को फोन किया और उसे पुलिस के हेल्पलाइन नंबर 100 पर कॉल करने की सलाह दी। शुरू में उसके मन में पुलिस को फोन करने को लेकर इसलिए संकोच था कि ऐसा करने से उसके प्रति होने वाली घरेलू हिंसा बढ़ सकती है; क्योंकि वह जिन लोगों पर भरोसा कर सकती थी, वे सभी उस रात शहर में नहीं थे; जिनमें संवाददाता की माँ भी शामिल थी। लेकिन, बहुत समझाने के बाद उसने आिखर पुलिस को फोन किया।

पहले से ही दो घंटे बिना किसी चिकित्सा सहायता के बीत चुके थे और उनका खून बह रहा था। इससे भी बद्तर, पुलिस कंट्रोल रूम में किसी ने भी उसके कॉल का जवाब नहीं दिया। संवाददाता ने तब घरेलू हेल्पलाइन नम्बर मिलाने की कोशिश की, जो 24 घंटे खुली रहती है। 181 महिला हेल्पलाइन कार्यालय की एक सदस्य ने जवाब दिया और संवाददाता महिला को टीम के साथ कनेक्ट करने में सफल हुई। हालाँकि बहुत देरी से, पुलिस को कई बार फोन करने के बाद और महिला को आश्वासन देने कि उसे बचा लिया जाएगा। लेकिन पुलिस सुबह 4:00 बजे पीडि़ता के घर पहुँची।

उसे अस्पताल ले जाया गया और उसके साथ गाली-गलोच करने वाले पति को जेल भेज दिया गया। यह सब उन वीडियो और व्हाट्सएप संदेशों के कारण ही हो सका और हम उस रात उसकी मदद कर सके। लेकिन, इस घटना से होने वाले नुकसान उसके जीवन में कहीं अधिक गहरे परिणाम वाले होते और अंतत: उसके 20 वर्षीय दो बेटों के ऊपर इसका असर होता। दरअसल, ऐसे मामले सामान्य नहीं हैं, खासकर कामकाजी महिलाओं के मामले में। इस मामले से एक सप्ताह पहले संवाददाता दो बच्चों की एक माँ से मिली, जिसने अपनी दर्दनाक कहानी बतायी। उसने बताया कि उसके पुरुषवादी मानसिकता वाले पति से रोज़ गालियाँ मिलती हैं और अपमान सहना पड़ता है। महिला ने बताया कि दुनिया के लिए, मैं एक सम्मानित, आधुनिक, स्वतंत्र, कामकाजी महिला हूँ। दुर्भाग्य से, मैं अभी भी घरेलू हिंसा का शिकार हूँ। दु:खद यह है कि 33 साल के वैवाहिक जीवन में उसे पति ने इतना प्रताडि़त किया है कि अब वह अवसाद से बचने वाली दवाइयों पर निर्भर हो गयी है और भावनात्मक उपचार के लिए आध्यात्मिक ज़रियों का सहारा लेती है। दिसंबर में घरेलू हिंसा का यह तीसरा मामला था, जिसे संवाददाता ने सीधे सम्पर्क के माध्यम से या किसी ज्ञात व्यक्ति के माध्यम से देखा था।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएफएस-4) की रिपोर्ट के अनुसार, 15 वर्ष की आयु के बाद से देश में हर तीसरी महिला विभिन्न तरीकों से घरेलू हिंसा का सामना करती है। यह रिपोर्ट केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से जारी की गयी थी। 33 फीसदी विवाहित महिलाएँ शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा शिकार हुई हैं। सबसे सामान्य प्रकार की हिंसा शारीरिक हिंसा (30 प्रतिशत) है, जिसके बाद भावनात्मक हिंसा (14 प्रतिशत) है। एनएचएफएस-4 की रिपोर्ट के अनुसार, हर विवाहित महिला में से सात प्रतिशत ने यौन हिंसा का अनुभव किया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि जो महिलाएँ कामकाजी हैं, वे उन महिलाओं की तुलना में शारीरिक हिंसा का ज़्यादा सामना करती हैं, जो कामकाजी नहीं हैं। उदाहरण के लिए, 39 प्रतिशत महिलाओं जिन्होंने पैसे के लिए नौकरी की, उन 26 फीसदी महिलाओं की तुलना में, जो कामकाजी नहीं हैं; ने 5 साल की उम्र से शारीरिक हिंसा का सामना किया है। रिपोर्ट के अनुसार, शहरी इलाकों में 25 फीसदी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों की 32 फीसदी महिलाएँ शारीरिक हिंसा की शिकार होती हैं।

समाज में घरेलू हिंसा को कैसे लिया जाता है?

महिलाओं के िखलाफ हिंसा के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में घरेलू हिंसा को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- ‘परिवार में होने वाली शारीरिक, यौन और मनोवैज्ञानिक हिंसा, जिसमें महिलाओं को पीटना, घर में महिला और कन्याओं का यौन शोषण, दहेज-सम्बन्धी हिंसा, विवाह बाद बलात्कार के अलावा महिला विरोधी पारम्परिक प्रथाएँ शामिल हैं, जिनमें शोषण से सम्बन्धित हिंसा भी शामिल है।’

समाज के प्रमुख मुद्दों में से एक, जो कभी भी चर्चा के केन्द्र तक नहीं पहुँचता, घरेलू हिंसा है। घरेलू हिंसा के मुद्दे को आमतौर पर समाज में दुव्र्यवहार के बजाय किसी के व्यक्तिगत मामले के रूप में लिया जाता है, जिसके कारण महिलाओं को अभी भी भेदभाव, उत्पीडऩ और विभिन्न तरह के दुव्र्यवहार का शिकार होना पड़ता है, चाहे वह घर या हो या कार्यस्थल पर। चाहे परिवार हो, रिश्तेदार या दोस्त हों, हम उन्हें घरेलू हिंसा के मामले में शायद ही कभी समर्थन या हस्तक्षेप करते हुए देखते हैं। घरेलू हिंसा हमेशा शारीरिक हमले- मार-पीट करना, के रूप में नहीं होती है  बल्कि भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, मौखिक और यौन स्तर की भी हो सकती है।

हिंसा के मामले क्यों, कैसे-कैसे?

महिला और बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में एक राज्य स्तरीय विश्लेषण में महिलाओं के िखलाफ घरेलू हिंसा के विभिन्न रूपों का अध्ययन अपराधों के विभिन्न मामलों जैसे डाटा का उपयोग करके किया गया है, जिसमें महिलाओं के िखलाफ घरेलू हिंसा, दहेज के लिए हत्या या उत्पीडऩ, सम्मान हत्या (ऑनर किलिंग), पति और रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता और परिवार के सदस्यों द्वारा बलात्कार, महिलाओं की सहमति के बिना गर्भपात, घरेलू हिंसा अधिनियम का उल्लंघन और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 गर्भपात के इरादे से की गयी हत्याएँ शामिल हैं।

घरेलू हिंसा के िखलाफ कानून

घरेलू हिंसा अधिनियम (घरेलू हिंसा अधिनियम से महिलाओं की सुरक्षा, 2005), घरेलू हिंसा से महिलाओं को सुरक्षा की गारंटी देता है। अधिनियम महिलाओं को न केवल शारीरिक हिंसा के िखलाफ ही सुरक्षा प्रदान नहीं करता है, बल्कि हिंसा के अन्य रूपों- भावनात्मक, मौखिक, यौन और आर्थिक दुरुपयोग से भी सुरक्षा प्रदान करता है। सिविल कानून जो जम्मू, कश्मीर और लद्दाख को छोडक़र पूरे भारत में लागू है, मुख्य रूप से सुरक्षा आदेशों के लिए है और इसमें आपराधिक आधार पर दंडित करने का प्रावधान नहीं है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 में घरेलू हिंसा अधिनियम से महिलाओं के संरक्षण के तहत कुल 437 मामले सामने आये। बिहार में सबसे अधिक (171 मामले) और केरल (111 मामले) दर्ज हुए। केरल में उच्चतम अपराध दर (1) पायी गयी। सभी केन्द्रशासित प्रदेशों ने इस अपराध के तहत रिपोर्ट किये गये शून्य मामलों के साथ शून्य की अपराध दर दर्ज की।

फिर, भारतीय दंड संहिता की धारा-498/ए है जो घरेलू हिंसा को व्यापक परिभाषा प्रदान करती है। धारा 498/ए के तहत अपराध संज्ञेय, गैर-जमानती और गैर-समझौता है (यह अपवाद आंध्र प्रदेश में है, जहाँ 498/ए को कंपाउंडेबल (समझौता आधारित) बनाया गया था।

धारा-498/ए (आईपीसी) के अनुसार, किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार उस पर क्रूरता करते हैं- कोई भी, किसी महिला के पति का पति के रिश्तेदार होने के नाते, ऐसी महिला से क्रूरता करते हैं को तीन साल तक कैद की सज़ा हो सकती है और ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है। स्पष्टीकरण इस खंड के प्रयोजन के लिए, क्रूरता का अर्थ है- कोई भी दुराग्रह भरा आचरण जो इस तरह की प्रकृति का है, जिसमें महिला को आत्महत्या करने या महिला के जीवन, अंग या स्वास्थ्य (चाहे मानसिक या शारीरिक) के लिए गम्भीर चोट या खतरे की सम्भावना हो या उस महिला का उत्पीडऩ, जहाँ यह उसे या उससे सम्बन्धित किसी भी व्यक्ति के साथ गैर-कानूनी माँग को पूरा करने के लिए हो।

आवाज़ उठाने का समय

भारती बेन बिपिन भाई तंबोली बनाम गुजरात राज्य और अन्य के मामले में घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत प्रावधानों पर व्यापक चर्चा करते हुए, गुजरात उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की- ‘इस देश में घरेलू हिंसा बड़े पैमाने है और कई महिलाएँ किसी-न-किसी रूप में या लगभग हर रोज़ हिंसा का सामना करती हैं।’ महिलाओं के लिए बनाये गये मौज़ूदा कानूनों के प्रति अज्ञानता और सामाजिक रवैया भी महिलाओं को कमज़ोर बनाता है।

घरेलू हिंसा के ज़्यादातर मामलों की रिपोर्ट कभी नहीं की जाती है, यह सामाजिक कलंक के भय और खुद महिलाओं के रवैये के कारण होता है, जहाँ महिलाओं से अपने पुरुष समकक्षों ही नहीं, बल्कि पुरुष रिश्तेदारों के भी अधीन रहने की उम्मीद की जाती है। वर्ष 2005 तक, घरेलू हिंसा की शिकार महिला के लिए उपलब्ध ज़रिये सीमित थे। महिलाओं को या तो तलाक के लिए दीवानी अदालत में जाना पड़ता था या आईपीसी की धारा-498/ए के तहत दंडनीय अपराध के लिए आपराधिक अदालत में मुकदमा दायर करना होता था। दोनों कार्यवाही में पीडि़त को कोई आपात राहत नहीं मिलती है। साथ ही, शादी से बाहर के रिश्तों को मान्यता नहीं दी गयी थी।

परिस्थितियों के इस चक्र ने यह सुनिश्चित किया कि अधिकांश महिलाएँ, अपनी मर्ज़ी नहीं, बल्कि मजबूरी में चुप रहकर पीडि़त होती रहें। इन सभी तथ्यों के सम्बन्ध में, संसद ने घरेलू हिंसा अधिनियम को लागू करना उचित समझा। अधिनियम का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को एक पुरुष या एक महिला की तरफ से की हिंसा से सुरक्षा प्रदान करना है। यह एक प्रगतिशील अधिनियम है, जिसका एकमात्र उद्देश्य महिलाओं को सुरक्षित रखना है, चाहे वह आरोपी के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध रखती हो। अधिनियम के तहत पीडि़त की परिभाषा इतनी व्यापक है कि इसके दायरे में ऐसी महिलाएँ भी आती हैं, जो लिव-इन-रिलेशनशिप में अपने पार्टनर के साथ रह रही हैं।

हर तीन में से एक महिला घरेलू हिंसा का शिकार है, जो भारत में लगभग हर रोज़ होती है। यह सम्भावना कम ही है कि सभी मामले तलाक और जुदाई शब्द से जुड़े लांछन के कारण देखे जाएँगे। समाज के ठेकेदार महिला को तलाक के लिए अपमानित और सवालों के घेरे में खड़ा करते हैं; क्योंकि समाज के यह ठेकेदार उन्हें रूढि़वादी हठधर्मिता के चश्मे से देखते हैं। हालाँकि कई रिपोर्ट और निष्कर्ष बड़े दावे करते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में तलाक की दर में कमी आयी है; लेकिन वास्तव में तलाक की दर बढ़ रही है। कारण है महिलाओं का घरेलू हिंसा के िखलाफ रवैये में बदलाव और इससे जुड़ा लांछन। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि अधिक संख्या में महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं और आवाज़ उठा रही हैं। पुराने समय के मुकाबले महिलाएँ आर्थिक रूप से भी स्वतंत्र होती जा रही हैं। वे अब ज़्यादतियों को अपने जीवन के अंतिम भाग्य के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहती हैं। हालाँकि, जब तक समाज घरेलू हिंसा पर गम्भीर चर्चा से नहीं जुड़ता, घरेलू हिंसा के अभियुक्तों को कड़ी सज़ा नहीं देता, बहुत सी महिलाएँ अपने उत्पीडक़ के िखलाफ सामने आकर रिपोर्ट करने या बोलने में संकोच करेंगी।

पुस्तक मेला

पुस्तकों में छिपा खजाना

आज भले ही सोशल मीडिया के युग में युवा कितना ही तकनीकी ज्ञान हासिल क्यों न कर लें, लेकिन पुस्तकों से जो ज्ञान प्राप्त हो सकता है, वह मोबाइल या कम्प्यूटर से नहीं मिल सकता। पुस्तकों में ज्ञान का खजाना छिपा है। यही कारण है कि समझदार देशी-विदेशी लोग पुस्तक प्रेम में दिल्ली के प्रगति मैदान में हर साल लगने वाले विश्व पुस्तक मेले में खिंचे चले आते हैं। नयी-नयी जानकारियों और साहित्य के लिए युवाओं को प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले का इंतज़ार रहता है।

 हर साल 9 दिवसीय विश्व पुस्तक मेला इस बार 28वीं बार लगा, जिसमें दूर-दराज से पुस्तक प्रेमी आ रहे हैं। 4 जनवरी से 12 जनवरी तक यह मेला चला। इस बार मेले की थीम महात्मा गाँधी पर आधारित है, जिसमें महात्मा गाँधी पर लिखी पुस्तकों की खासी माँग है। इस बार पुस्तक मेला में देश विदेश के लगभग 6,00 प्रकाशकों ने भाग लिया। वहीं इस बार पाकिस्तान, बंगाल और अफगानिस्तान को आमंत्रित नहीं किया। इसकी वजह मौज़ूदा हालात हैं। इतना ही नहीं, इस बार किसी भी देश को अतिथि भी नहीं बनाया गया। इसकी वजह प्रगति मैदान मेंं निर्माण कार्य का होना बताया गया। फिर भी इस बार के पुस्तक मेले में 25 देशों ने भाग लिया है।

मेले का उद्घाटन केन्द्र्रीय मंत्री रमेश पोखिराल निशंक ने किया। उन्होंने कहा ऐसे समय मे आज जब पूरी दुनिया में आतंकवाद जैसी घटनाएँ भय फैला रही हैं और लोग निहित स्वार्थ के लिए राजनीति कर रहे हैं। लोगों में विश्वास एक-दूसरे के प्रति कम हो रहा है। ऐसें में दुनिया महात्मा गाँधी के बताये रास्ते चलने की ज़रूरत महसूस कर रही है। उन्होंने कहा कि महात्मा गाँधी के सत्य और अहिंसा ही एक ऐसा हथियार है, जो दुनिया में एकजुटता और विश्वास ला सकता है। निशंक ने कहा कि यह मेला छात्रों, लेखकों और प्रकाशकों के लिए मील का पत्थर साबित होगा। पुस्तक मेला साहित्य और नयी-नयी जानकारियों का महाकुम्भ है। बता दें कि यह मेला राष्ट्रीय पुस्तक न्यास एनबीटी के सौजन्य से आयोजित किया जाता है। एनबीटी के अध्यक्ष प्रो. गोविन्द प्रसाद शर्मा का कहना है कि महात्मा गाँधी के 150वीं जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में मेले में गाँधी मंडप तैयार किया गया है, जिसमें महात्मा गाँधी के लेखों और उन पर विभिन्न भाषाओं में लिखी गयी 500 से अधिक पुस्तकें की प्रदर्शनी लगायी गयी हैं।   वाणी प्रकाशन के हॉल नम्बर 12-ए में नरेन्द्र कोहली की महासमर और शंभूनाथ की हिन्दी साहित्य ज्ञानकोश इसी तरह डायमंड बुक्स आर ऑक्सफोर्ड के बुक स्टॉल्स में छात्र-छात्राओं ने बताया कि मेले में दिल्ली के बुक स्टॉल्स में कोई विशेष अन्तर नहीं है। पर यहाँ पर पुस्तकों के चयन को लेकर बहुत से विकल्प मिल जाते हैं। एनबीटी के स्टॉल पर जाने- माने कानून के जानकार सुभाष कश्यप की हमारी संसद और हमारा संविधान की पुस्तक को लेकर कानून के छात्रों ने खूब पसंद किया।

मेले में साहित्कार अनुज शर्मा ने कहा कि अब मेले में उनके विचारों को मानने वालों को कोई खास महत्त्व नहीं दिया जा रहा है। जैसे गाँधीवादी विचारधारा और सामाजवादी विचार की जगह इस बार सरकारवादी विचारधारा का रंग ज़्यादा दिख रहा है। पुस्तक मेला में नीरज शुक्ल ने बताया कि वह बीते पाँच वर्षों से प्रगति मैदान मेले में बनारस से आते हैं और मनपसंद की किताबों को लेते हैं। उनका मानना है कि जो पुस्तकों का प्यार यहाँ खींच लाता है। ज्ञान का भंडार यहाँ जितना मिलता है, वह कहीं नहीं होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा स्वाति गुप्ता ने बताया कि पुस्तक मेले में वह चुटकलों की पुस्तकों के साथ-साथ अन्य मनपसंद पुस्तकें खरीदती हैं। उनकी माँग है कि मेले में छात्रों को पुस्तकों पर अतिरिक्त छूट मिलनी चाहिए। क्योंकि ऐसा न होने के चलते छात्र कम ही किताबें खरीद पाते हैं।

 एनईजी के निदेशक मकसूद अहमद ने कहा कि शिक्षा और पुस्तकें भविष्य का पासपोर्ट होती हैं। पुस्तकों के बिना ज्ञान नहीं, पुस्तकें ही इंसान की सच्ची दोस्त होती हैं, जो इंसान को मुसीबत से बचाती हैं। पुस्तक मेले में अनेक पुस्तकें एक ही जगह पर मिल जाती हैं, यानी एक ही जगह पर ज्ञान का भण्डार आसानी से उपलब्ध है।