घट रहा असली दूध का उत्पादन

दुधारू पशुओं में लम्पी बीमारी और पशुपालकों की निराशा से पैदा हो रही समस्या

तक़रीबन अस्सी के दशक में मैं जब छोटा था, तो जब भी किसी बुज़ुर्ग को, ख़ासतौर पर बुज़ुर्ग महिलाओं को नमस्ते करने पर एक आशीर्वाद ज़रूर मिलता था- ‘दूधो नहाओ, पूतों फलो’ यानी तुम्हारे घर में ख़ूब दूध-घी हो और तुम्हारे कुल की वंश-बेल ख़ूब फले-फूले यानि घर बच्चों की किलकारियों से भरा रहे। लेकिन न तो अब यह आशीर्वाद किसी को मिलते देखने-सुनने में आता है और न ही दूध ही सबको मिल पा रहा है। कहने को हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है।

पूरी दुनिया में कुल उत्पादित दूध का 22 फ़ीसदी दूध हिन्दुस्तान में होता है। दूध के इतने उत्पादन के बावजूद न तो देश की पूरी आबादी को दूध उपलब्ध हो पा रहा है, और न ही उन सबको शुद्ध दूध मिल पा रहा है, जिन्हें दूध उपलब्ध हो पा रहा है। क्योंकि दूध तो पहले ही पानी की मिलावट के लिए जाना जाता है, और अब तो न सिर्फ़ तरह-तरह की मिलावट हो रही है, बल्कि बड़ी मात्रा में जानलेवा केमिकल्स से नक़ली दूध भी बन रहा है। लेकिन इससे दु:खद यह है कि देश में प्राकृतिक दूध उत्पादन घटता जा रहा है। प्राकृतिक इसलिए कहा, क्योंकि ये दूध गाय, भैंस और बकरी आदि से प्राकृतिक रूप से प्राप्त होता है। इस प्राकृतिक दूध की कमी के चलते केमिकल से बनने वाले नक़ली दूध में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है।

गाय-भैंस के दूध का उत्पादन घटने के कई कारण हैं। पहला तो यह कि पिछले तीन-चार दशक में हरे चारे के मैदान तक़रीबन ख़त्म हो चुके हैं। दूसरा यह कि अब पशुओं के चारे और दाने में भी पहले जैसी ताक़त और गुणवत्ता नहीं है। तीसरा यह कि पिछले कुछ दशकों से चारा लगातार महँगा होता जा रहा है। चौथा बड़ा कारण कि पशु महँगे होते जा रहे हैं और पशुओं को बीमारियाँ पहले से ज़्यादा होने लगी हैं। इन सब कारणों से ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन कम होता जा रहा है। दूध की बढ़ती माँग और असली दूध के घटते उत्पादन का परिणाम यह हुआ कि केमिकल से नक़ली दूध बनाने वाले अनाप-शनाप पैदा हो गये।

आज उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कई शहर नक़ली दूध उत्पादन के अड्डे बने हुए हैं। नक़ली दूध बनने का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वित्त वर्ष 2010-11 में हिन्दुस्तान में कुल 1,218 लाख टन दूध का उत्पादन होता था, जो वित्त वर्ष 2019-20 में बढक़र 1,984 लाख टन हो गया। लेकिन ये आँकड़े हैं; और इनमें सच्चाई कितनी है, इस पर ठीक से नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जब गाय-भैंस का पालन गाँवों में घटा है, तो फिर उत्पादन कैसे बढ़ गया? ज़ाहिर है कि देश में तेज़ी से बढ़ रहीं नक़ली दूध की फैक्ट्रियाँ दूध उत्पादन के आँकड़ों में इज़ाफ़ा कर रही हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि जितना असली दूध गायों और भैंसों से मिल रहा है, उससे तक़रीबन चार गुना ज़्यादा दूध लोगों तक पहुँच रहा है। जानकार बताते हैं कि कई दुग्ध डेयरियों में मिल्क पाउडर, पाम ऑयल और केमिकल से नक़ली दूध तैयार किया जाता है। एक किलो मिल्क पाउडर से 11 लीटर दूध तैयार किया जाता है। एक बोरी में 50 किलोग्राम मिल्क पाउडर होता है। यानी एक बोरी से 550 लीटर नक़ली दूध तैयार किया जाता है।

सवाल यह है कि अगर प्राकृतिक यानी गाय-भैंस के दूध का उत्पादन घट रहा है, तो फिर दूध उत्पादन के आँकड़े बढ़ कैसे रहे हैं? ज़ाहिर है कि नक़ली दूध ख़ूब सप्लाई हो रहा होगा; लेकिन इन नक़ली दूध बनाने वालों पर कोई शिकंजा कसने वाला नहीं है, जिससे असली दूध समझकर इसे पीने वालों को भयंकर शारीरिक नुक़सान हो रहा है।

दूध उत्पादन सहयोग समितियाँ धीरे-धीरे बन्द होती जा रही हैं। डेयरी मालिकों और प्रबंधकों ने पशुपालकों और किसानों से तो दूध कौड़ी भाव में ख़रीदना शुरू कर दिया है; लेकिन उसे बेचते सोने के भाव हैं। गाँवों में अभी भी भैंस का दूध 38-40 रुपये लीटर और गाय का दूध 23-24 रुपये लीटर ही बिकता है। यह भाव दूध की ख़रीदारी करने वाली सहकारी और निजी डेयरी समितियों के हैं। इसलिए किसानों और पशुपालकों का पशुपालन से लगातार मोह भंग होता जा रहा है। हाल यह है कि देश में दूध समितियों की संख्या घटकर क़रीब 70 फ़ीसदी रह गयी है। हालाँकि ऐसी दुग्ध डेयरी भी हैं, जो शुद्ध दूध और उससे बने उत्पादों के लिए विश्वसनीय हैं। लेकिन उनकी हदें हैं, यानी वो पूरे देश में तो दूध की सप्लाई नहीं कर सकतीं।

दरअसल गोरक्षा के नारे के बाद लोगों ने गायों का पालन कम कर दिया है, जिससे आवारा गायों और गोवंश की संख्या बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है। ऐसे में सरकारों और बैंकों को चाहिए कि पशुपालन के बढ़ावे के लिए सब्सिडी पर लोन मुहैया कराकर ग्रामीणों के साथ-साथ शहरों में भी पशुपालन के लिए प्रोत्साहित करें। साथ ही किसानों और पशुपालकों में जागरूकता लाने की भी ज़रूरत है। ज़ाहिर है कि अगर दूध उत्पादन बढ़ेगा, तो न तो दूध पीते बच्चों को दूध की परेशानी होगी और न ही किसी को नक़ली केमिकल युक्त दूध का इस्तेमाल करना पड़ेगा। ऐसा होने पर लोग स्वस्थ रहेंगे। दूध और दूध से बने उत्पाद हर एक इंसान, ख़ासतौर पर बच्चों के विकास के लिए बहुत ज़रूरी आहार है।

आज हिन्दुस्तान में लगातार कुपोषण के बढ़ते मामले इस बात के गवाह हैं कि दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देश हिन्दुस्तान में ही लोग दूध को तरस रहे हैं। पहले शहरों में असली दूध और दूध से बने उत्पादों की चीज़ों की दिक़्क़त थी; लेकिन अब गाँवों में भी दूध और दूध से बनी चीज़ों की कमी होने लगी है।

दरअसल असली हिन्दुस्तान तो गाँवों में बसता है और इन गाँवों से ही लोगों का पेट भरता है। ज़ाहिर है कि अगर गाँवों में चीज़ें कम पैदा होंगी, तो उनकी दिक़्क़त तो पूरे देश के लोगों को होगी ही। दूध के मामले में भी यही सब हो रहा है। गाँवों में गायों और भैंसों का पालन घटने से दूध जैसे पोषक तत्त्वों से भरपूर उत्पाद की कमी लगातार नक़ली दूध बनाने वालों को प्रोत्साहित कर रही है। उत्तर प्रदेश के एक गाँव के रहने वाले किसान ने बताया कि उनके बचपन में भी उनके घर में पाँच-छ: भैंसें और गायें पलती थीं; लेकिन अब इन्हें पालना बहुत महँगा हो गया है, क्योंकि चारा बहुत-ही महँगा है; जबकि दूध वही 35-40 रुपये लीटर ही बिकता है, इसलिए वह केवल घर में दूध-घी के लिए अब एक ही भैंस पालते हैं। पहले हमारे घर में घी के घड़े भरे रहते थे। कई-कई हाँडी दूध हर रोज़ उबलता था। जिनके घर दूध नहीं होता, उन्हें मुफ़्त में दूध दे दिया करते थे। मट्ठे और दही के पैसे कभी किसी से नहीं लिये। अब सब उलट हो रहा है।

ज़ाहिर है कि ऐसे बहुत-से किसान और पशुपालक होंगे, जो केवल घर में दूध-घी की ज़रूरत को देखते हुए ही अब एकाध गाय या भैंस पाल रहे हैं। ऐसे में दूध की कमी तो होगी ही होगी। हाल यह है कि अब शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी न पहले की तरह दूध बचा है और न घी। हालात इतने बुरे हैं कि अधिकतर बच्चों को पिलाने के लिए थैली वाला दूध पिलाना मजबूरी बनता जा रहा है, जिसमें केमिकल मिला हुआ है। इसमें कुछ हद तक मिलावटी या पूर्णतया नक़ली दूध भी हो सकता है। हैरानी की बात तो यह है कुछ लोगों को अब यह थैली वाला दूध भी जुटाना किसी चुनौती से कम नहीं है। लोगों में डर है कि उनके बच्चे बीमार न हो जाएँ, दूसरा बहुत से लोगों की कमायी काफ़ी कम हो गयी है और बहुत-से लोग पूरी तरह बेरोज़गार हो गये हैं। ऐसे में उनके रोटी के लाले पड़े हैं, फिर वो बच्चों के लिए दूध कहाँ से लाएँगे? इधर लम्पी प्रकोप ने पशुओं को ग्रस लिया है।

प्राप्त जानकारियों के अनुसार, लम्पी बीमारी से उत्तर प्रदेश में दूध के उत्पादन में तक़रीबन 21 फ़ीसदी, राजस्थान में तक़रीबन 20 फ़ीसदी, मध्य प्रदेश में तक़रीबन 20 फ़ीसदी, हरियाणा में तक़रीबन 19 फ़ीसदी और पंजाब में तक़रीबन 15 फ़ीसदी की गिरावट आयी है। इसके अलावा कई अन्य प्रदेशों में भी लम्पी बीमारी का प्रकोप जारी है। विभिन्न रिपोर्ट्स के अनुसार, तक़रीबन 10 लाख पशु इस बीमारी की चपेट में है, जबकि हज़ारों की मौत हो चुकी है। हालाँकि लम्पी बीमारी का टीका बन गया है और टीकाकरण हो भी रहा है। सरकारों को इस बीमारी से निपटने की दिशा में और महती क़दम उठाने की आवश्यकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)