गिरगिट की व्यथा

गिरगिट के आंसू देखे नहीं जा रहे थे। वह गिरगिट था, इसलिए उन आंसुओं को मगरमच्छ के आंसू तो कह नहीं सकते। वैसे भी हमने नेताओं के इतने घडिय़ाली आंसू देखे हंै कि अब हमें असली और मगरमच्छ के आंसुओं में फर्क साफ नजऱ आ जाता है। उस गिरगिट के आंसू गिरगिट के ही थे। उसकी सुबकियों में एक दर्द और वेदना थी। वह पीडा़ थी जो आज के दौर में किसी इंसान को दिखाई नहीं देती। पर खुदा का शुक्र है कि हम इंसान नहीं हैं। हम जानवर हैं वे भी ‘मूर्ख’ प्रजाति के, इसलिए हमें दूजों के दुख-दर्द साफ नजऱ आते हैं। हम उन्हें महसूस कर सकते हैं। हम ताबूतों की परिक्रमा दिखावे के लिए नहीं अपितु श्रद्धा के भाव से करते हैं। श्रद्धा दिखाने के लिए हमें कैमरों की ज़रूरत भी नहीं होती। हमारे यहां राजनैतिक व्यवस्था नहीं है इसलिए हम लाशों पर राजनीति नहीं करते। हम सीधे प्राणी हैं, और केवल अपना जीवन बचाने की कोशिश करते रहते हैं।

जाहिर था गिरगिट के आंसुओं में वही पीड़ा थी जो किसी भी नेता को उसकी कुर्सी जाने पर हो सकती है। पर गिरगिट के पास तो कोई कुर्सी नहीं थी तो वह इतना व्याकुल, परेशान और दर्द में डूबा क्यों था। हमने उससे व्यथा पूछी, तो वह अपने आंसुओं को पलकों पर रोकने का असफल प्रयास करते हुए बोला-‘अब क्या बताऊं’? रंग बदलने का मेरा एकाधिकार खतरे में आ गया है। मुझ से जल्दी तो नेता रंग बदलने लगे हैं। मैं अपनी जान बचाने के लिए रंग बदलता हूं पर वे तो कुर्सी हथियाने के लिए यह सब कर रहे हैं।

जिनकी राष्ट्र भक्ति को जीएसटी, आधार कार्ड और एफडीआई फूटी आंख नहीं सुहाते थे, आज उन्होंने ऐसा रंग बदला कि उसी जीएसटी, आधारकार्ड और एफडीआई में उन्हें सबसे बड़ी देशभक्ति दिखने लगी है। यह कलाबाजी हमारी छोटी सी बुद्धि में नहीं आई। उनके रंग और भी न्यारे हैं कहते हैं हर साल युवाओं को दो करोड़ नौकरियां देंगे पर पहले ही साल में 37 लाख नौकरियों की बलि ले ली। हर एक के खाते में 15 लाख रुपए आने की बात को तो उन्होंने ‘जुमला’ बता कर दरकिनार ही कर दिया। अरे भाई जब कुछ करने की नीयत ही नहीं है तो फिर इतनी लंबी-लंबी छोडऩे की ज़रूरत क्या है? अब, जब नेता मेरी जगह लेने लग गए हैं तो मेरा क्या काम? मैं ‘मिनिस्टर बिदाऊट पोर्टफोलियों ‘ तो नहीं रह सकता, नेता रह सकते हैं पर मुझ में आत्मसम्मान है। मैं आत्महत्या करने की सोच रहा हंू।

हमने उसे समझाने का प्रयास उसी अंदाज में किया जिस अंदाज में कभी भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में किया था। हम ने बताया कि आत्महत्या पाप है। जान लेने का हक केवल उसी को है ‘जिसने जान दी है।’ गिरगिट ने तीखी नजऱों से हमें देखा और बोला-‘पूरी तरह ग़लत, आज तो जान लेने का हक ‘भीड’़ के पास है। चाहे जि़ंदा जला दे, चाहे पीट-पीट कर मार दे, किसी को घर में घुस कर मार दे, फ्रिज की तलाशी लेकर मार दे, किसी राजनेता की आलोचना करने पर मार दे, अखबार में लिखने पर मार दे। गोदरा, दिल्ली, मुजफ्फरनगर इसकी जिंदा मिसालें हैं। वैसे भी ‘आनर किलिंग’ के नाम पर कितनी जानें जाती हैं, कभी गिना है?’ अर्थ यह कि अब मारने का विभाग यमराज के पास नहीं ‘भीड़’ के पास या मवालियों के पास है, जिन्हें राजनैतिक सरंक्षण प्राप्त है।

गिरगिट की बात कड़वी पर सच्ची थी। हमारे पास इसका कोई जवाब नहीं था। नेताओं का जो रूप हमारे सामने आ रहा था उससे हम पूरी तरह अनभिज्ञ तो नहीं थे पर उसे भूल आवश्य चुके थे। गिरगिट की बातों ने हमारी यादाश्त पर पड़ा पर्दा हटा दिया और हमें गिरगिट के साथ न जाने क्यों सहानुभूति हो गई। अब हमें नेता और गिरगिट में से गिरगिट का अस्तित्व बचाना ज़रूरी लग रहा था। पर डर था कि कहीं यदि नेता जी को पता चल गया कि हम लोग गिरगिट को उन से बेहतर मान रहे हैं तो अपनी खैऱ नहीं। वैसे भी गौरी लंकेश को सबक सिखाने वाला या वाले अभी तक बाहर ही सैर कर रहे हैं। नेता जी का एक इशारा और हमारी आत्मा हमारा नश्वर शरीर त्याग कर परमात्मा में लीन हो जाएगी।