गहलोत फिर सवासेर

क्या किसी प्रतिष्ठित और संघर्षों का इतिहास संजोये राजनीतिक दल को संकट की आहट सुनते ही फ़ौरन से पेशतर अहतियाती क़दम नहीं उठा लेना चाहिए या फिर महज़दस्तूर निभाने के लिए मुश्किलों की गणेश परिक्रमा करते रहना चाहिए। ख़ासतौर से राजनीति में समय अमूमन दूरदर्शी राजनेताओं से ही बग़लगीर होता है। ख़ासतौर से कांग्रेस जैसे शीर्ष राजनीतिक दल को तो ज़ाहिर तौर पर समझ लेना चाहिए कि तनावों से पैबस्त कोई भी सियासी ड्रामेबाज़ी चर्मोत्कर्ष पर पहुँचे, ऐसी नौबत आने से पहले ही तूफ़ान का रूख़ मोड़ देना चाहिए।

राजनीतिक लड़ाइयाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं। इसलिए अंदेशों का एहतराम करते हुए इस बात के हिज्जे तो समझ लेने चाहिए कि जहाँ तक हो सके झटकों से बचने और उबरने की जुगलबंदी बनाये रखी जाए, ताकि तनाव की बजाय मानसिक सुकून का दायरा बढ़ सके। कांग्रेस ने कब-कब ऐसी रणनीति बनायी? इसका ककहरा बाँचने के लिए हमें चार दशक पहले लौटना होगा। सन्

1985 की वो चंपई अँधेरों से लुकाछिपी करती सुरमई शाम शहर पर ख़रामा-ख़रामा उतर रही थी। गोरमेंट होस्टल की धवल इमारत किसी दरवेश की तरह बिंदास खड़ी एक इतिहास की साक्षी बनने को तैयार खड़ी थी।

हॉस्टल की लम्बी चौड़ी इमारत की राहदारी से रिसते ठहाकों की गूँज पूरी राजधानी में सुनायी दे रही थी। उस दौरान राजनीतिक रंगमंच की मशहूर हस्तियाँ तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीदेव जोशी, क़द्दावर राजनेता और कालांतर में उनके वारिस बने शिवचरण माथुर तथा सत्ता की राजनीति के भद्र जमावड़े की मौज़ूदगी में तक़रीबन 34-35 वर्षीय युवा सभी की निगाहों का मरकज़ बना हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव के मंत्रिमंडल में अपने बेहतरीन प्रदर्शन से कांग्रेस की सियासी पिचों पर झण्डे गाडऩे वाले इस युवा नेता की अग्नि परीक्षा अब राजस्थान की रेतीली राजनीति में होनी थी। जब हरिदेव जोशी ने अशोक गहलोत की तैनाती को लेकर भावनात्मक भाषण पूरा कर लिया, तब तक गहलोत ने चुप्पी साधे रखी। दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष नरसिंहराव ने इस युवा को राजस्थान का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेजा था।  इस फैसले के पीछे भारतीय राजनीति के वैचारिक ध्रुव लोकतंत्र की समावेशी अदृश्य शक्ति का सन्देश समझ रहे थे। प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में सक्रियता के नये सोपान की शुरू करने वाले इस युवक का नाम अशोक गहलोत था।

गहलोत के लिए वो दिन सबसे अभिमानास्पद था, तो उतना ही अहम भी था। प्रदेश अध्यक्ष की पाग पहली बार पहनने वाले गहलोत इस महती आयोजन में बेहद सहज लग रहे थे। उन्होंने तीन बार भद्र राजनीतिक जमावड़े पर अपने प्रति उत्साह को परखा और रहस्यमय चुप्पी तोड़ते हुए राजगुरु की तरह मौज़ूद हरीदेव जोशी और शिवचरण माथुर की तरफ़ फलों से लदी डाल की मानिंद झुक गये- ‘मुझे अपना बच्चा ही समझें, आपका आशीर्वाद ही मुझे राह दिखाएगा।’

अभिभूत कर देने वाले इस दृश्य पर खचाखच भरा हॉल गहलोत ज़िन्दाबाद के नारों से गूँज उठा। जिस समय गहलोत आला पद पाने की बधाइयाँ बटोर रहे थे, सभागार में तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री राजेश पायलट के संदेशवाहक ने दस्तक दी। संदेशवाहक ने राजेश पायलट की तरफ़ से गहलोत को प्रदेश कांग्रेस की कमान सँभालने की न सिर्फ़ बधाई दी, बल्कि यह कहते हुए फूलों का गुलदस्ता थमाया कि अब आपको संगठन में जान फूँकने के लिए पुराने नारों और जुमलों से आगे बढऩा होगा। आप जैसा मज़बूत नेता यह काम बख़ूबी अंजाम दे सकेगा। तपस्वियों की भाँति देवदार के दरख़्तों की तरह खड़े गहलोत राजेश पायलट की बधाई से अभिभूत हो उठे।

अब इसे इत्तेफ़ाक़ कहें या कुछ और कि तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री राजेश पायलट ने अशोक गहलोत को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर क़ासिद (पत्र वाहक) के ज़रिये पैग़ाम-ए-मोहब्बत के साथ बधाइयों का गुलदस्ता नज़्र किया था। लेकिन आत्मीय रिश्तों के ख़ुशनुमा नज़रे यहीं थम कर रह गये। आने वाले दिनों में राजेश पायलट के फ़रज़ंद सचिन पायलट ख़ुशनुमा रिश्ते नहीं निभा सके। उन्होंने इन रिश्तों को राजनीति की अलगनी पर सूखने को डाल दिये। उन्होंने उसी मन्दिर के पुरोहित की आलोचना का अध्याय शुरू कर दिया, जिसके साथ बैठकर प्रार्थना की थी। नतीजतन बतौर उप मुख्यमंत्री इतिहास में सबसे छोटा हनीमून सचिन पायलट के हिस्से में ही बदा। इस अध्याय की गहराई जो भद्र राजनेता समझते हैं, वे हैरान ही नहीं, सन्न भी हैं। विश्लेषकों का कहना कि सियासत में नाइत्तेफ़ाक़ी के खड़ंजे बेशक जल्दी भर जाते हैं; लेकिन रंज और रंजिश की खाइयाँ कभी नहीं भरतीं; क्योंकि ये दिनोंदिन और गहरी होती चली जाती है। विनम्रता और तामझाम से दूर रहने वाले गहलोत गाहे-बगाहे ही उग्र तेवर अपनाते हैं। पायलट के प्रतिघात का घाव ही सम्भवत: इस क़दर गहरा रहा होगा कि उन्होंने ज्वालामुखी की तरह फटते हुए आक्रोश के लावे में नाकारा, निकम्मा सरीख़े सारे ब्रह्मास्त्र पायलट पर झोंक दिये। अब भले ही पायलट बड़े दावों का खेल खेलते रहें; लेकिन क्या कभी प्यार और इसरार की कालीन पर लौट पाएँगे? शायद नहीं। वजह साफ़ है दोनों के बीच मेल-मिलाप का दूध इस क़दर फट चुका है कि उसका छैना, तो क्या रायता भी नहीं बन सकता। ऐसे में रेशा-रेशा हो चुके रिश्तों में रफू-पेबंद की गुंजाइश कहाँ बचती है।

बेशक सचिन पायलट अपने लोगों की अपनी महफिल में भीड़ के उमड़ते सैलाब को ख़ुशामदीद कहने से नहीं चूकते; लेकिन क्या सियासी ढलान से ग़ाफ़िल होना क़ुबूल कर पाएँगे। बहरहाल राजनीतिक पंडितों की मानें तो पूरा एपिसोड पायलट को झिंझोडक़र बता गया कि उन्होंने शीशम के दरख़्तों के जंगल को चीड़वन समझकर विरोध के ऐसे अंधड़ चला दिये, जो उन्हीं पर भारी पड़े। गहलोत तो अपने विश्वास का निवेश करते हुए अब मुख्यमंत्री की तीसरी पारी खेल रहे हैं। अरमानों और स्फूर्ति से लबरेज गहलोत पहली बार सन् 1999 में मुख्यमंत्री बने, लेकिन इस बीच सन् 1994 और सन् 1997 में प्रदेश अध्यक्ष भी बने। लेकिन मुख्यमंत्री बनने की ज़िद नहीं की। राजनीतिक जीवन में गहलोत का अहमतरीन सूत्र रहा है- ‘अगर राजनीति में आगे बढऩा है, तो अपने वरिष्ठों का मान-सम्मान करते हुए सीखने की प्रवृत्ति बनाये रखो। उनसे टकराव लेने और तंजकशी के तेवर आत्मघाती सिद्ध होते हैं।

सचिन पायलट की अपनी समझ के मुताबिक, राजस्थान में कांग्रेस की जीत का भूगोल बेशक उन्होंने रचा; लेकिन चुनावी पड़तालों में इनके जवाब मिलना आसान नहीं है। क्योंकि जातीय रुझानों और चेहरों की दीवानगी के आँकड़ों से परे हक़ीक़त की एक गोल-मोल दुनिया भी है, जहाँ मतदाता का मिजाज़ आँका जा सकता है। यह मिजाज़ चुनावी माहौल में गुलाल की तरह उड़ते नारों में मिल जाता है कि मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं। तो ज़ाहिर है कि असल राजस्थान के चुनावी नतीजे तो तय थे। क्या यह सच नहीं है कि राजस्थान में चुनावी साल में आर्थिक विकास दर पिछले पाँच साल के औसत से कम थी। क्रिसिल की रिपोर्ट इस बात की तसदीक़ भी करती है।

आँकड़ों की रोशनी में खँगालें, तो वसुंधरा के शासन-काल में राजस्थान की आर्थिक और विकास की दर औंधे मुँह गिर चुकी थी। लिहाज़ा सत्ता की चाबी तो इस गणिताई ने मुहैया करवायी ऐसे में सचिन पायलट के खाते में यह विजयश्री कैसे जा सकती थी? अलबत्ता एक प्रदेश अध्यक्ष के नाते वसुंधरा सरकार को आईना दिखाने में उनके प्रयास कहीं भी कमतर नहीं थे। लेकिन कुल मिलाकर वो उलटे बाँस बरेली को ही थे।

सियासत में नयी उम्र की नयी फ़सल की सोच में सबसे बड़ा लोचा है कि शिखर पर पहुँचने के उसके अनगढ़ तौर-तरीक़े उसकी उम्मीदों की जड़ों को जमने ही नहीं देते। इस मामले में गहलोत की तंज़कशी बेमानी नहीं कही जा सकती कि आख़िर पायलट उनकी पीठ पर बेवफ़ार्इ करके कैसे शिखर कुर्सी पर बैठने की ठान बैठे। पायलट संगठन में क़दम-दर-क़दम पायदान तय करते, तभी उन्हें रगड़ाई का मोल समझ में आता?

गहलोत कहते हैं- ‘बेहतर होता कि वह तजुर्बों के मकतब में बैठकर राजनीति के पारम्परिक मैदान में अपने आपको चुस्त-दुरुस्त करते। लेकिन जब कोई नुमाइशी प्रदर्शन से सिक्का जमाने की कोशिश करें, तो क्या होगा?’

गहलोत ने मुख्यमंत्री की पाग तो उन्होंने सन् 1991 में पहनी। इससे पहले उन्होंने सन् 1985 के बाद प्रदेश अध्यक्ष की दो और पारियाँ सन् 1994 और सन् 1997 में खेलीं। इस दौर का जनादेश अस्वाभाविक नहीं था। उन्होंने भाजपा नीत शेखावत का तख़्ता पलटकर एक जबरदस्त जुनून रचा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि सूखा और शेख़ी से ओत-प्रोत भाजपा नीत शेखावत सरकार के लिए विरोधाभासी लहर साफ़ दिख रही थी। शेखावत जैसा क़द्दावर नेता अपनी पूरी साख झोंककर भी अपनी सरकार की हिफ़ाज़त नहीं कर पाया। उस समय लोगों में सरकार विरोधी जनून भी तारी था।

यह वो दौर था, जब परसराम मदेरणा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। कांग्रेस की फ़तह के बाद मदेरणा के मन भी मुख्यमंत्री की ताजपोशी की लहर ज़ोर मार रही थी। लेकिन सूरज तो गहलोत का तप रहा था। बावजूद इसके सत्ता की ताजपोशी का पहाड़ा गहलोत और परसराम मदेरणा के बीच पायलट सरीखी बदमिजाज़ी के मंज़र में डूबा हुआ नहीं गुजरा। गहलोत मंत्रिमंडल ने परसराम मदेरणा को मंत्री पद से भी नवाज़ज़; लेकिन बदमिजाज़ी और अय्याशी उन्हें ले डूबी।

राजनीतिक विश्लेषकों की बेबाक राय का ककहरा समझें, तो ऐसी मिसाल शायद ही मिले, जिसने सियासत को अतीत और वर्तमान के संदर्भों में पूरी निष्ठा से पढ़ा। विश्लेषक राजनीति के प्रति रुझान रखने वालों के लिए गहलोत के सियासी रोज़नामचे को एक पाठ्यक्रम सरीखी मिसाल देते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि गहलोत ने राजनीति को ताक़त और अवसरों के केंद्रीकरण से बचाये रखा। उन्होंने चुनावी झोंक में कभी भी योजनाओं और वादों की चिंदियाँ नहीं उडऩे दीं।

दम्भ, दबदबे और अंतर्विरोधों से किनाराकशी करने वाले गहलोत राजपूत और जाट सरीखी परम्परागत राजनीति बिरादरी से नहीं आते, बल्कि माली समुदाय से आते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि सियासी चातुर्य और कूटनीतिक कौशल की बात करें, तो पार्टी का कोई भी नेता गहलोत के पास नहीं ठहरता। जिस समय भाजपा के इशारों पर मध्य प्रदेश और राजस्थान में तख़्तापलट का खेल चल रहा था। सिर्फ़ गहलोत ही जादूगर साबित हुए, जिन्होंने सरकार के पायों को हिलने तक नहीं दिया। जबकि कमलनाथ एक ही झोंके में पतझड़ के पत्तों की तरफ़ सरकार का तियाँ-पाँचा करवा बैठे। ऐसा जादू क्योंकर हुआ? गहलोत के निकटतम सूत्रों की मानें, तो उन्होंने एक गीत गुनगुना दिया- ‘पत्ते कहीं खडक़े, हवा आयी, तो चौंके हम…।’

गहलोत को वक़्त रहते साज़िश का पता चल गया था। नतीजतन उनके आगे पायलट ग़ुब्बारे की तरह ही फूल-फटकर रह गये। सूत्रों की मानें, तो गहलोत हमेशा दो क़दम आगे की सोचते रहे; पहला-पायलट किस हद तक जा सकते हैं? पायलट की छलाँग को वक़्त रहते ही भाँप चुके थे। नतीजतन दलबदल रेसकोर्स के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह गहलोत का दाँव समझ ही नहीं पाये। लेकिन धुर्रे तो पायलट के ही उड़े।