गली-गली में शंकराचार्य

guruबनारस में गंगा महासभा के कार्यालय में चौपाल लगी है. बात धार्मिक गुरुओं से होते हुए शंकराचार्यों तक जा पहुंचती है. सवाल उछलता है कि जब चार शंकराचार्यों की ही व्यवस्था थी तो अब इतने शंकराचार्य कैसे हो गए. गंगा महासभा के आचार्य जितेंद्र तुरंत यह सवाल लपकते हैं और हिसाब-किताब की भाषा में समझाने की कोशिश करते हैं, ‘आप खुद सोचें कि ढाई हजार साल पहले जब आदि गुरु शंकराचार्य ने चार शंकराचार्यों और चार मठों की व्यवस्था बनाई थी तब अभी का जो भारत है उस दायरे में हिंदुओं की आबादी करीब एक करोड़ की रही होगी. अब यह लगभग 80 करोड़ है, जबकि असली-नकली, सभी को मिलाकर अभी भी शंकराचार्यों की संख्या 86 तक ही पहुंच सकी है. आदि गुरु शंकराचार्य के ही फॉर्मूले और दृष्टि को देखें तो बढ़ी हुई हिंदू आबादी को सनातनी बनाए रखने के लिए आनुपातिक रूप से 320 शंकराचार्यों की जरूरत तो है ही. इसीलिए सोच रहा हूं कि अब भी 234 शंकराचार्यों की जो कमी है उनके लिए वैकेंसी निकाल दूं!’

आचार्य जितेंद्र यह बात व्यंग्य-विनोद में कहते हैं. भले ही वे कोई वैकेंसी नहीं निकालेंगे, लेकिन संभव है कि वास्तव में अगले कुछ साल के भीतर देश के भीतर शंकराचार्यों की फौज मौजूद हो और उनकी संख्या 320 का आंकड़ा भी पार कर जाए. अभी ही देश में कितने शंकराचार्य हो गए हैं इसका सही-सही अनुमान लगा पाना आसान नहीं. रांची से लेकर हरियाणा तक हर जगह कोई न कोई शंकराचार्य दिख जाता है. एक-एक शहर में भी कई शंकराचार्य देखे जा सकते हैं और बनारस का तो हाल यह है कि एक ही मकान में दो-दो शंकराचार्य नजर आते हैं. अगर आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख मठों की ही बात हो तो वहां भी असली शंकराचार्यों के साथ कई और शंकराचार्य अपनी-अपनी दावेदारी के साथ मौजूद हैं और मठ किसका हो, इस पर सालों से जंग लड़ रहे हैं.

कई जानकारों की मदद से हम इस समय देश में शंकराचार्यों की संख्या का अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं. सभी अपने आंकड़े देते हैं और आखिर में यह जोड़ते हैं कि इतने तो हमारी जानकारी में हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि इतने ही हों, और भी होंगे. बनारस स्थित भारतीय विद्वत परिषद के सार्वभौम संयोजक कामेश्वर उपाध्याय की जानकारी में फिलहाल देश में 59 शंकराचार्य हैं. गंगा महासभा के आचार्य जितेंद्र यह संख्या 86 बताते हैं. पुरी गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती के मुताबिक शंकराचार्यों का कुल आंकड़ा 100 के पार होगा. अखिल भारतीय छद्म शंकराचार्य अन्वेषी समिति बनाकर 2011 के माघ मेले में फर्जी शंकराचार्यों की तलाश करने वाले राकेश 55 शंकराचार्यों से मिल चुके हैं और विवरण के साथ उनके पैंफलेट भी छाप चुके हैं.

शंकराचार्यों की संख्या में दनादन हो रही वृद्धि, इस बढ़ोतरी की प्रक्रिया और इसके परिणामों को समझने के लिए कुछ जगहों पर भटकने पर कई दिलचस्प जानकारियां सामने आती हैं. बनारस में भटकने पर तो हैरान करने वाला यह तथ्य भी सामने आता है कि इस धर्मनगरी में पिछले कई सालों से शंकराचार्यों का उत्पादन भी हो रहा है. फैक्टरी के किसी प्रोडक्ट की तरह.

हाल में चार पीठों के शंकराचार्य तब सुर्खियों में आए जब उन्होंने इलाहाबाद में चल रहे कुंभ का बहिष्कार करने का एलान किया. शंकराचार्य चाहते थे कि कुंभ मेले में संगम किनारे चारों पीठों को अलग-अलग जगह देने के बजाय उन्हें एक जगह जमीन दी जाए. लेकिन प्रशासन ने इनकार कर दिया लिहाजा शंकराचार्यों ने महाकुंभ का बहिष्कार कर दिया. हालांकि प्रशासन की कई कोशिशों के बाद उन्होंने बाद में यह बहिष्कार खत्म कर दिया.

बनारस में हमारी मुलाकात सबसे पहले स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद से होती है. वे ज्योतिषपीठ और शारदापीठ के जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के प्रतिनिधि हैं और बनारस श्रीविद्या मठ के प्रमुख भी. अविमुक्तेश्वरानंद हमें मठामनाय महानुशासन नामक एक पुस्तिका देते हुए कहते हैं, ‘आप स्वयं देख लें, इसमें आदि गुरु शंकराचार्य के मठों के बारे में सब कुछ साफ लिखा हुआ है. चार मठ होंगे देश में और चार ही शंकराचार्य भी. अब जो इन चारों के अलावा शंकराचार्य बने हैं, वे कैसे बने हैं, यह समझा जा सकता है और उनसे ही पूछिए.’ अविमुक्तेश्वरानंद की मानें तो कुछ शंकराचार्य तो चंदे के लिए बने हैं और कुछ आवश्यकता के आविष्कार की तर्ज पर माफियाओं और राजनीतिज्ञों के बीच मध्यस्थता करके धंधा चलाने के लिए बनाए गये हैं. उनके मुताबिक बहुत-से शंकराचार्यों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन जैसी संस्थाओं और दूसरे राजनीतिक दलों ने भी खड़ा किया है. वे कहते हैं, ‘चूंकि हिंदू धर्म में ईसाई धर्म या इस्लाम की तरह धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था आरंभिक अवस्था से नहीं है, सो इसे लेकर लोग सचेत नहीं रहते या विरोध नहीं करते. इसलिए यह सब आसानी से हो भी रहा है.’  अविमुक्तेश्वरानंद काशी विद्वत परिषद के बारे में भी समझाते हैं. कहते हैं, ‘बताइए, आदि गुरु शंकराचार्य का 2,519वां साल चल रहा है और विद्वत परिषद 110 साल पुरानी संस्था है, वह कैसे अभिषेक वगैरह करवाकर शंकराचार्य घोषित कर देती है किसी को?’

अविमुक्तेश्वरानंद से लंबी बातचीत के बाद हम उनके मठ से कुछ ही दूरी पर असी घाट किनारे बने शंकराचार्यों के एक मठ में पहुंचते हैं. यहां एक मकान में फिलहाल दो महानुभावों ने जगदगुरु शंकराचार्य उपनाम के साथ अपने-अपने बोर्ड लगा रखे हैं, एक नरेंद्रानंद और दूसरे चिन्मयानंद. दोनों ही खुद को ऊर्ध्वामनाय सुमेरु पीठ काशी का शंकराचार्य कहते हैं. अविमुक्तेश्वरानंद की मानें तो कुछ साल पहले तक इस एक मकान में छह व्यक्ति जगदगुरु ऊर्ध्वामनाय सुमेरु पीठ के शंकराचार्य बनकर ही रहा करते थे.

शंकराचार्यों के इस बसेरे में हमारी मुलाकात नरेंद्रानंद सरस्वती से होती है. वे भी जगदगुरु शंकराचार्य हैं! अक्सर विश्व हिंदू परिषद के आयोजनों में गर्जना के साथ मौजूद दिखते हैं. कुछ समय पहले पटना में भी अशोक सिंहल, सुब्रहमण्यम स्वामी के साथ दिखे थे और खून खौलाओ- स्वाभिमान जगाओ जैसे वाक्यों के साथ खूब गरजे थे.

नरेंद्रानंद बातचीत करने के लिए हमें उस मकान के एक छोटे-से कमरे में ले जाते हैं. कमरे में आसन से लेकर सिंहासन तक का प्रबंध दिखता है. बिना इधर-उधर की बात किए हमारा पहला सवाल यही होता है, ‘मठामनाय महानुशासन पुस्तक के हिसाब से तो चार शंकराचार्य ही होने चाहिए, आप शंकराचार्य कैसे हुए?’ नरेंद्रानंद सामने की तख्ती से एक पुस्तिका जैसा कुछ निकालते हैं और उसे पढ़ते हुए कहते हैं, ‘अज्ञानियों ने भरमाया और समझाया है आपको! खेमराज प्रेस से प्रकाशित ब्रह्मसूत्र शारीरिक मीमांसा भाष्य है भ्रांति टीका के साथ, इसके पृष्ठ संख्या 23/24 को पढि़ए, इसमें 35 शंकराचार्यों और मठों का उल्लेख है.’ नरेंद्रानंद किसी मठामनाय उपनिषद और मठामनाय सेतुग्रंथ का हवाला देते हुए तर्क देते हैं कि उसमें भी सात आमनायों यानी दिशाओं और सात मठों का जिक्र है. वे कहते हैं, ‘सच यह है कि स्वरूपानंद, निश्चलानंद और भारती तीर्थ, जो खुद को असली शंकराचार्य कहते हैं, वे खुद ही शास्त्रीय आधार पर सही शंकराचार्य नहीं हंै. मैं तो काशी सुमेरु पीठ का शंकराचार्य हूं, सभी सीमारक्षक शंकराचार्यों के बीच राष्ट्रपति की तरह. मुझसे आकर सभी को सर्टिफिकेट लेना होगा, मुझे किसी के प्रमाण पत्र की दरकार नहीं.’

बोलते-बोलते नरेंद्रानंद कुछ भी बोलने लगते हैं. वे आगे कहते हैं, ‘सोचिए, प्रलय आने पर सभी मठ ध्वस्त हो जाएंगे, लेकिन शंकर के त्रिशूल पर बसे होने के कारण यह काशी नगरी जस की तस रहेगी और यहां का शंकराचार्य ही बचा-बना रहेगा.’ नरेंद्रानंद कहते हैं कि जिस मठामनाय महानुशासन की बात हमें समझाई गई है उस किताब की असली पांडुलिपि कोई दिखा दे तो वे उसकी गुलामी करेंगे. वे चुनौती देते हुए कहते हैं, ‘और स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती, जो 90 वर्ष की अवस्था पार करने के बावजूद आदि गुरु शंकराचार्य के दो मठों पर कब्जा जमाए हुए हैं, जब चाहें तब आकर हर की पौड़ी में हमसे शास्त्रार्थ कर लें, जो हारेगा वह अपनी संपत्ति दे देगा और वहीं पर जल समाधि ले लेगा.’

नरेंद्रानंद बड़ी-बड़ी बातें एक सुर में बोल जाते हैं. उनके बारे में वैसे भी कहा जाता है कि वे बोलने के उस्ताद हैं. वे जो कह रहे हैं, यह उनका दंभ है, भ्रम है, अतिआत्मविश्वास है या सच्चाई, यह तो वही जानें, लेकिन उनकी बातों से यह साफ हो जाता है कि शंकराचार्यों की इस दुनिया में जो झोलझाल है, वह राजनीति की दुनिया में होने वाले दांव-पेंच से कोई कम जटिल और मजेदार नहीं. यह भी साफ होता है कि शंकराचार्यों की इस दुनिया में सभी एक-दूसरे की पोल खोलने को हर वक्त तैयार बैठे हैं, बस उन्हें जरा-सा उकसाने की दरकार है. नरेंद्रानंद काशी के जिस सुमेरु पीठ का शंकराचार्य होने का दावा करते हैं, उस पर फिलहाल जगदगुरु शंकराचार्य चिन्मयानंद भी दावेदारी में लगे हुए हैं. उस पीठ पर तरह-तरह के विवाद होते रहते हैं. विद्वानों का एक वर्ग हवाला देता है कि काशी को ऊर्ध्वामनाय (ऊपर की ओर स्थित) माना जाता है, इसलिए इसे ऊर्ध्वामनाय पीठ या सुमेरु पीठ कहते हैं. कुछ विद्वान कहते हैं कि 1950 के दशक में हिंदू धर्म सम्राट के नाम से प्रसिद्ध करपात्रीजी महाराज के सौजन्य से यह पीठ अस्तित्व में आया था और पहली बार यहां शंकराचार्य बनाने का चलन शुरू हुआ था. हालांकि नरेंद्रानंद सरस्वती ने अपने लिए जो बुकलेट छपवा रखी है उसमें वे खुद को काशी में 62वें शंकराचार्य के रूप में दिखाते हैं. दूसरी ओर शंकराचार्य के प्रतिनिधिगण इसे महज कल्पना बताते हैं. स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद कहते हैं, ‘जिस सात आमनायों के जरिए सात मठों का हवाला दिया जा रहा है, उसमें तीन अप्रत्यक्ष हैं. यदि कोई ऊर्ध्वामनाय का ही शंकराचार्य बनना चाहता है तो उसे काशी के बजाय कैलाश में बैठना चाहिए, क्योंकि ऊर्ध्वामनाय कैलाश को कहा गया है, काशी को नहीं.’

यह तो काशी में रहने वाले दो प्रमुख संतों जिनमें एक खुद शंकराचार्य हैं और दूसरे शंकराचार्य के प्रतिनिधि, उनके बीच सवाल-जवाब से पैदा हुई नोक-झोंक और विवाद की झलक भर है. देश के अलग-अलग हिस्सों में जब शंकराचार्यों की पड़ताल करने की थोड़ी कोशिश भर करते हैं तो और भी अजब-गजब तर्क सामने आते हैं और अजब-गजब शंकराचार्य भी. शो रूम में चमकने वाले कुछ शंकराचार्यों के किस्से जानकर गोदाम की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है.

पिछले दिनों एक शंकराचार्य उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर इलाके के एक रेलवे क्रॉसिंग के पास खुद मारुति 800 कार चलाते हुए दिखे थे. रेलवे क्रॉसिंग पर उनकी गाड़ी लगी थी, उनसे पूछा गया कि शंकराचार्य की गाड़ी है, वे किधर हैं. उनका जवाब था, ‘बताइये क्या बात है, मैं ही शंकराचार्य हूं.’ यह पूछने पर कि क्या अकेले ही चलते हैं, उनका जवाब था, ‘हां, इसी में सिंहासन-आसन सब रख लेता हूं, घूमता रहता हूं, एक चेला भी रहता है साथ में, लेकिन अभी नहीं है.’

एक अंगदशरणजी महाराज के शंकराचार्य बन जाने की कथा भी कई जगह सुनाई जाती है. अविमुक्तेश्वरानंद और आचार्य जितेंद्र उनके बारे में लगभग एक सा ही किस्सा बताते हैं. अंगदजी कथा-प्रवचन किया करते थे. लेकिन एक रोज कुछ विद्वानों को मैनेज करके वे खुद ही शंकराचार्य बन बैठे और अपने नाम के आगे जगदगुरु शंकराचार्य लगाकर घूमने लगे. अविमुक्तेश्वरानंद कहते हैं, ‘अंगदजी महाराज चार-चार बार शंकराचार्य बने, फिर वापस कथा-प्रवचन की दुनिया में लौटे. अब वे दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी पत्नी अपर्णा भारती प्रथम महिला शंकराचार्य बन गई हैं. हरियाणा के यमुनानगर जिला के रादौर नामक एक स्थान में भी शंकराचार्य पाए जाते हैं, जिन्हें अब रादौर पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य महेशाश्रमजी महाराज कहा जाता है.’ आचार्य जितेंद्र बताते हैं, ‘ये शंकराचार्य बिहार के गोपालगंज जिले के बरनैया गांव के रहने वाले हैं, वहां पहुंचकर उन्होंने पहले खुद एक पीठ बनाया, फिर उसके ईश्वर यानी पीठाधीश्वर बने और फिर नाम के आगे शंकराचार्य लिखने लगे.’ झारखंड की राजधानी रांची में भी कुछ साल पहले तक वनांचल पीठ बनाकर एक जगदगुरु शंकराचार्य रहा करते थे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. पुणे में भी एक शंकराचार्य के किस्से सुनाए जाते हैं कि कैसे कुछ साल पहले वहां एक साधु पहुंचते हैं, 27 नक्षत्रों को लेकर पांच एकड़ जमीन में एक पार्क बनवाते हैं, यज्ञ करवाते हैं और बाद में कुछ विद्वान उन्हें शंकराचार्य बना देते हैं. अमृतानंद, जो मालेगांव बम विस्फोट के बाद चर्चा में आए, उन्हें भी काशी के कुछ विद्वानों ने सर्वज्ञ पीठ का शंकराचार्य बनाया था. इसी तरह विशाखापत्तनम में स्वामी स्वरूपानंदेंद्र, कर्नाटक के सिमोगा में राघेश्वर भारती स्वामी, विद्याविनव विद्यारण्यमहास्वामी, कर्नाटक के ही सिरसी में गंगाधरेंद्र सरस्वती महास्वामी, बेंगलुरु में स्वामी केशवानंद भारती, अभिनव विद्याशंकर भारती स्वामी, कर्नाटक के ही चिकमंगलूर में स्वामी कृष्णनंदातीर्थ, स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती महास्वामी, महाराष्ट्र के कोल्हापुर में विद्यावारसिम्हाभारती स्वामी, बेल्लारी में विद्यानंदभारती स्वामी, आंध्र प्रदेश के पुष्पागिरी में विद्यानरसिम्हा भारती स्वामीगल जैसे कई नाम मिलते हैं. ये सभी देश के अलग-अलग हिस्सों में जगदगुरु शंकराचार्य बनकर अध्यात्म और उसके संग धर्म के कारोबार को फला-फूला रहे हैं. इतने लोगों ने शंकराचार्य की उपाधि कैसे ले ली, पूछने पर जवाब मिलेगा- बनारस है ना! बनारस के विद्वान हैं ना!

दरअसल बनारस में पहले एक काशी विद्वत परिषद हुआ करती थी. अब पिछले कुछेक सालों में अलग-अलग नामों से विद्वत परिषदों की संख्या आधे दर्जन तक पहुंच चुकी है. इनमें कई विद्वत परिषद और उनसे जुड़े कुछेक विद्वान यहां ऐसे रहे हैं जो चट मंगनी-पट ब्याह की तर्ज पर शंकराचार्य बनाने का माद्दा हर समय रखते हैं. हालांकि अमृतानंद के मालेगांव कांड में आरोपित बनने के बाद बनारस की विभिन्न विद्वत परिषदें थोड़ी सचेत हुई हैं और अब दे-दनादन शंकराचार्य बनाने से बचती हैं. फिर भी चुनाव के समय इधर-उधर से छिप-छिपाकर वे कुछ शंकराचार्यों का उत्पादन कर ही देती हैं.

यह तो कथित तौर पर फर्जी या मनमर्जी से बने शंकराचार्यों की बात है. लेकिन जो असली शंकराचार्य हैं और आदि गुरु शंकराचार्य के स्थापित मठों में रहते हैं, वहां का विवाद तो इनसे भी ज्यादा गहरा और पेचीदा है. पहला विवाद तो यही है कि चार पीठ हैं तो फिर पिछले कई सालों से तीन ही शंकराचार्य उन्हें क्यों देख रहे हैं.

दरअसल स्वामी स्वरूपानंद 1973 से ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य तो थे ही, 1982 में वे द्वारका पीठ के शंकराचार्य भी बन गए. अब सवाल उठ रहे हैं कि इतने वर्षों में किसी एक मठ पर दावेदारी छोड़कर वे अपने किसी शिष्य को यह जिम्मा क्यों नहीं दे रहे, जबकि उनकी खुद की उम्र 90 के करीब पहुंच चुकी है. दिलचस्प बात यह है कि जब स्वरूपानंद दूसरे मठ का भी जिम्मा संभालने लगे तो यह तर्क भी दिया गया था कि जैसे किसी राज्य में आपात स्थिति में व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक राज्यपाल को दूसरे राज्यपाल का भी जिम्मा दे दिया जाता है वैसे ही यह व्यवस्था हुई है. लेकिन स्वरूपानंद के विरोधी अब यह सवाल पूछते हैं कि राज्यपाल हमेशा के लिए ही दो राज्यों की देखरेख नहीं करता.

दूसरा विवाद यह है कि अब भी चारों प्रमुख मठ यानी द्वारका, ज्योतिष, गोवर्धन और शृंगेरी पीठ के शंकराचार्य तमिलनाडु के कांचीपुरम स्थित कांचीपीठ को आदि पीठ नहीं मानते और न ही वहां के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को शंकराचार्य कहने को राजी होते हैं. यह अलग बात है कि वक्त की मांग पर जयेंद्र सरस्वती का आसन भी शंकराचार्यों के समानांतर लगाया जा चुका है. फिलहाल यदि कांची पीठ और जयेंद्र सरस्वती के विवाद को हटा भी दें तो तीसरा अहम पक्ष यह है कि पिछले कई सालों से आदि गुरु शंकराचार्य के इन चार पीठों, जिनका जिक्र मठामनाय महानुशासन में है, में कई-कई शंकराचार्य अपनी-अपनी दावेदारी की लड़ाई लड़ रहे हैं. पुरी के गोवर्धन पीठ पर स्वामी निश्चलानंद सरस्वती तो जगदगुरु शंकराचार्य हैं ही, वहां अधोक्षजानंद सरस्वती भी पिछले कई सालों से खुद को उसी पीठ का शंकराचार्य कहते हैं. अधोक्षजानंद के बारे में कहा जाता है कि वे कांग्रेस के समर्थन से बने. शारदा पीठ द्वारका पर स्वामी स्वरूपानंद तो जगदगुरु शंकराचार्य हैं ही, उसी पर राज राजेश्वर आश्रम का भी दावा है जो ज्यादातर हरिद्वार में रहते हैं और उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें संघ का समर्थन प्राप्त है. बद्रीनाथ में ज्योतिष पीठ है. वहां के भी शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद तो हैं ही, लेकिन स्वामी वासुदेवानंद भी खुद को उसी मठ का शंकराचार्य कहते हैं और इन दोनों के बीच वर्षों से चलने वाली जुबानी जंग चर्चित रही है. इसी मठ पर तीसरी दावेदारी माधवाश्रम की भी है. दक्षिण यानी कर्नाटक में बसे मठ शृंगेरी की बात करें तो वहां के शंकराचार्य भारती तीर्थ हैं, लेकिन उनके समानांतर 14 अन्य स्वामीगण शंकराचार्य उपनाम से जगदगुरु बने हुए हैं और सभी अपना-अपना काम चला रहे हैं, ज्यादा किचकिच नहीं है.

यह सब खेल उस आदि गुरु शंकराचार्य के नाम पर चल रहा है जो महज 32 साल की उम्र में ही दुनिया से विदा हो गए थे, जिन्हें घुमक्कड़ संन्यासी कहा गया था, जो शास्त्रार्थ के महारथी थे, जो बौद्ध धर्म के विस्तार को रोकते हुए हिंदुओं के लिए नायक सरीखे उभरे थे, जिन पर अब तक 1,500 से अधिक रिसर्च पेपर तैयार हो चुके हैं और तीन करोड़ से अधिक थीसिस लिखे जा चुके हैं. अखिल भारतीय विद्वत परिषद के संयोजक कामेश्वर उपाध्याय कहते हैं, ‘आदि गुरु शंकराचार्य तो दंड और कमंडल के अलावा कुछ नहीं लेकर चलते थे लेकिन अब के शंकराचार्य के आसन-सिंहासन को ही देखकर उनकी भव्यता और फिर उनके मठों तक पहुंचकर उनकी अकूत संपत्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है.’ प्राचीन इतिहास के जानकार डॉ. एचएस पांडेय भी कुछ ऐसा ही कहते हैं. वे बताते हैं, ‘दरअसल यह संपत्ति और वर्चस्व की लड़ाई है क्योंकि इसके जरिए आमदनी के अथाह स्रोत भी खुलते हैं.’

संपत्ति और वैभव-ऐश्वर्य के साथ नाम की लड़ाई है, यह तो साफ पता चलता है. जानकार यह भी बताते हैं कि हिंदू धर्म के इस शीर्ष पद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदुत्ववादी संगठन और देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने मिलकर तरीके से इस्तेमाल भी किया है और बर्बाद भी. उनके मुताबिक हालिया अपने-अपने शंकराचार्य खड़े करने की परंपरा रामजन्मभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद परवान चढ़ी. पुरी गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती कहते हैं कि बाबरी ध्वंस के बाद शृंगेरी मठ के शंकराचार्य, वैष्णवाचार्य आदि का दिल्ली में चातुर्मास हुआ. उसी समय रामालय ट्रस्ट की स्थापना भी हुई. स्वरूपानंद की अगुवाई में बने इस ट्रस्ट के बारे में कहा जाता है कि इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने विश्व हिंदू परिषद के नियंत्रण वाले रामजन्मभूमि न्यास के मुकाबले खड़ा किया था. निश्चलानंद कहते हैं, ‘हमारे पास भी 67 करोड़ रुपये दिए जाने का प्रस्ताव आया बशर्ते हम एक कागज पर हस्ताक्षर कर दें. ऐसा नहीं करने पर हमारे मठ, पद आदि को बर्बाद करने की धमकी भी दी गई थी.’ निश्चलानंद कहते हैं कि उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उस कागज पर मंदिर के साथ मस्जिद का भी जिक्र था. उसके बाद गोवर्धन पीठ पर चंद्रास्वामी की मदद से एक दूसरे शंकराचार्य स्वामी अधोक्षानंद को खड़ा कर दिया गया. बताया जाता है कि बाद में यह चलन भाजपाइयों ने लपका.  कांग्रेस ने एक शंकराचार्य खड़ा किया तो जवाब में भाजपाइयों और संघियों ने पूरे देश को शंकराचार्यों से पाट दिया.

उधर, स्वरूपानंद के प्रतिनिधि अविमुक्तेश्वरानंद उलट बात कहते हैं. वे बताते हैं, ‘रामजन्मभूमि आंदोलन के समय संघ-विहिप के लोगों ने स्वरूपानंद से संपर्क किया था. वे लोग स्वामी स्वरूपानंद को रामजन्मभूमि न्यास से जोड़ना चाहते थे लेकिन कोई भी शंकराचार्य उस संगठन से नहीं जुड़ सकता जिसमें नीति-निर्धारक वह स्वयं न हो, सो स्वरूपानंद ने मना कर दिया तो रामजन्मभूमि न्यास वाले लोगों ने दूसरे शंकराचार्य को उनके मुकाबले खड़ा किया, यह सब जानते हैं.’

हालांकि इन सबके बीच नरेंद्रानंद जैसे शंकराचार्य संघ-विहिप का पक्ष लेते हुए कहते हैं कि जो खुद को असली शंकराचार्य कहते हैं वे अपनी जिम्मेदारी निभा ही नहीं रहे. वे कहते हैं, ‘कश्मीर से लेकर चीन तक के मसले पर बोलते ही नहीं, धर्मांतरण पर बोलते ही नहीं, यात्राएं करते ही नहीं तो किसी राष्ट्रवादी संगठन द्वारा राष्ट्रप्रेमी शंकराचार्यों को सहयोग करने पर हो-हल्ला क्यों मचाया जा रहा है?’

जानकारों के मुताबिक संघ और कांग्रेस द्वारा समानांतर शंकराचार्य खड़े करने की इस राजनीति का एक नतीजा तो फटाफट दिखने लगा था. जब भाजपा-कांग्रेस ने अपने-अपने शंकराचार्य बनाने की परंपरा शुरु की तो कई साधु-संत बनारस पहुंचकर विद्वत परिषद के सौजन्य से शंकराचार्य बनने को बेताब होते गए. जिन्हें विद्वत परिषद से भी सहयोग नहीं मिला, वे खुद किसी कोने में कुटिया बनाकर शंकराचार्यनामी बोर्ड लगाकर जगदगुरु शंकराचार्य बन बैठे. इन स्वयंभुओं में जिन्हें आदि गुरु शंकराचार्य की पुस्तक मठामनाय महानुशासन की जानकारी थी, उन्होंने उस पुस्तक में वर्णित शंकराचार्यों के दस उपनामों में से कोई एक अपने नाम के पीछे लगाने की सावधानी बरती. ये दस नाम क्रमशः वन, तीर्थ, अरण्य, सरस्वती, भारती, पुरी, आश्रम, गिरी, पर्वत और सागर हैं. जिन्हें इसकी जानकारी नहीं थी, वे सिर्फ अपना असल नाम बदलकर आगे आदि गुरु शंकराचार्य जोड़कर ही शंकराचार्य बन बैठे.

आखिर में सवाल फिर वही कि क्या सच में कुछ सालों में 320 शंकराचार्य देश में बन जाएंगे और आबादी के अनुपात में फिट बैठकर आदि गुरु का मान रखेंगे. या फिर यह किसी दूसरी परिणति की ओर इशारा कर रहा है? शंकराचार्यों की जो व्यवस्था हुई थी उसके कुछ कमजोर पहलू थे. पहला कमजोर पहलू तो यही था कि इस पद पर ब्राह्मण को ही विराजमान होना था. जानकारों का मानना है कि बदलते वक्त और समाज में आती जागरूकता के साथ सत्ता-सियासत और सामाजिक वर्चस्व में ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के दिन लद गए हैं, सो ब्राह्मणवाद के इस एक बड़े प्रतीक की नियति भी ऐसी ही होनी है. स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद भी यह बात मानते हैं. वे कहते हैं, ‘इस पर पुनर्विचार की जरूरत है क्योंकि शंकराचार्यों के मठों में सिर्फ ब्राह्मण बच्चे पढ़ेंगे तो अब यह सामाजिक समीकरण नहीं चलने वाला है, पूरे हिंदू समाज के बारे में सोचना होगा.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘हमारी निजी राय तो यह है कि शंकराचार्यों को भी सोचना चाहिए कि आबादी बढ़ती जा रही है तो दूसरे काबिल संतों और विद्वानों को भी अहम जिम्मेवारी देकर व्यवस्था का विकेंद्रीकरण करना चाहिए. लेकिन इसके लिए कई शंकराचार्य बनाने की जरूरत नहीं है.’ अविमुक्तेश्वरानंद के अनुसार ऐसा भी नहीं है कि सभी फर्जी शंकराचार्य धूर्त ही हैं. वे कहते हैं, ‘उनमें कई काबिल और योग्य भी हैं,  उनसे बात कर उनके बीच दायित्वों का बंटवारा करना चाहिए.’ दूसरी बात यह भी है कि परंपरानुसार यह तय था कि जो शंकराचार्य होगा वह देश की सीमा नहीं लांघ सकता. आज भी जो कथित तौर पर असली वाले शंकराचार्य हैं वे इसका पालन करते हैं. लेकिन हालिया वर्षों में बने कई शंकराचार्य विदेशों की फुरफुरिया उड़ान भरते रहते हैं. उनकी नजर विदेशों में बसे भारतीय हिंदुओं पर रहती है जिनकी आबादी काफी है और उन्हें जजमान या शिष्य बनाने के फायदे भी बहुतेरे हैं. अखिल भारतीय विद्वत परिषद के कामेश्वर उपाध्याय कहते हैं, ‘देश में तो कई पीठ और बनने ही चाहिए, विदेश जाने से भी बंदिश हटाने की जरूरत है क्योंकि आज विदेशों में रहने वाले 12-14 करोड़ हिंदुओं को त्याज्य मानकर उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता. उन्हें भी धार्मिक शिक्षा-दीक्षा की जरूरत है.’ श्री श्री रविशंकर, रामदेव, आसाराम बापू आदि जैसे संतों का उदय और उनके दायरे का अपरंपार विस्तार भी शंकराचार्यों के लिए चुनौती ही है. एक तो समुदाय पर उनकी पकड़ भी ज्यादा है और वे किसी जाति या सीमा के नियमों में बंधे नहीं होते, इसलिए देश-विदेश कहीं भी आते-जाते रहते हैं. इस तरह के कई सवालों और चुनौतियों में उलझे शंकराचार्य आपस में गुत्थमगुत्थी कर रहे हैं.

हम शंकराचार्यों की दुनिया को समझने की जितनी कोशिश करते हैं, नए सवाल पेंच और बढ़ाते जाते हैं. हम आखिर में फिर आचार्य जितेंद्र से पूछते हैं कि हमने यह-यह जानकारी जुटाई, क्या-क्या बचा रह गया. वे कहते हैं, ‘आपने असल चीज तो किसी से पूछी ही नहीं. जब आदि गुरु शंकराचार्य थे तब भारत अखंड भारतवर्ष हुआ करता था. म्यांमार, पाकिस्तान, अफगानिस्तान से लेकर अन्य देशों तक इसका दायरा था. कई वर्षों में एक-एक कर सभी देश अलग होते गए और भारत सिमटकर एक अलग देश के तौर पर बचा रहा. देश के इतने बंटवारे और  टुकड़े होने के बाद भी आदि गुरु शंकराचार्य के चारों पीठ अभी वाले भारत में ही कैसे पड़ गए. क्या इस दायरे को भी फिर से तय करने में झोलझाल किया गया है?’

(15 फरवरी 2013)