गलवन में चीन और भारत की सेनाएं पीछे हटीं, ‘बफर जोन’ बनाया, शांति की पहल

तनाव के बीच लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर गलवन में भारत और चीन ने सोमवार को सकारात्मक रुख दिखाते हुए अपनी-अपनी सेना पीछे की है और दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच एक ”बफर ज़ोन” बना दिया गया है।

जानकारी के मुताबिक बातचीत के एक लंबे दौर के बाद चीन की सेना की सेना गलवन घाटी में कमसे कम डेढ़ किलोमीटर पीछे हटी है, जबकि उसने वहां से अपने कुछ तंबू भी हटा लिए हैं। पता चला है कि दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच तीन चरणों की कमांडर स्तर की बातचीत के अलावा भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल की चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ बातचीत हुई है, जिसके बाद यह फैसला किया गया। दोनों ने क्षेत्र में शांति बनाये रखने पर एक जैसा रुख दिखाया।

चीन के विदेश मंत्रालय ने एक ब्यान जारी करके कहा है -”शांति स्थापित करने के लिए अग्रिम मोर्चे पर कुछ कदम उठाए गए हैं, और सैनिकों को हटाने की प्रक्रिया शुरू हुई है।” याद रहे पिछले महीने १५ तारिख को भारत और चीन के सैनिकों के बीच खूनी भिड़ंत हो गयी थी जिसमें भारत के २० सैनिकों के शहीद होने की जानकारी सेना की तरफ से दी गयी थी। चीन के कितने सैनिक इस झड़प में मरे, इसका आजतक सही-सही खुलासा नहीं हो पाया है, जबकि कुछ रिपोर्ट्स में चीन के ४० से ज्यादा सैनिक मरने की बात कही गयी थी।

अब ताजा घटनाक्रम यह है कि लगातार बातचीत का बेहतर नतीजा निकला है और दोनों देशों ने अपनी-अपनी सेनाएं पीछे करने का फैसला किया है। चीन की तरफ से गलवन में उस स्थल से अपने तंबू हटाने की रिपोर्ट्स भी हैं। साथ ही वहां दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच एक ”बफर ज़ोन” बना दिया गया है।

यह स्थान एलएसी पर झड़प वाली जगह से पेट्रोल पॉइंट १४ है, जहां से चीनी सेना डेढ़ किलोमीटर पीछे हटी है। भारतीय जवान भी पीछे आ गए हैं। रिपोर्ट्स में बताया गया है कि चीनी सैनिकों ने गलवान नदी के मोड़ से हटना शुरू कर दिया है और अस्थायी ढांचों और तंबूओं को हटाया है। यह भी कहा गया है कि यह प्रक्रिया सिर्फ गलवान घाटी तक में सीमित है।
याद रहे तीन दिन पहले पीएम नरेंद्र मोदी ने अचानक लेह इलाके का दौरा किया था और भारतीय सैनिकों को संबोधित किया था। उन्होंने बिना नाम लिए चीन की विस्तारवादी नीति पर प्रहार किया था और कहा था-  ”विस्तारवाद की उम्र खत्म हो गई है। यह विकास का युग है। इतिहास गवाह है कि विस्तारवादी ताकतें या तो हार गईं या वापस लौटने को मजबूर हो गईं।”