गर्भाशय हटाने का अपराध!

वर्षों पहले पंजाब विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के एक छात्र के रूप में मैं निराश था कि कैसे कवि विलियम शेक्सपियर की उत्कृष्ट कृति हैमलेट में नायक अपनी प्रेमिका ओफेलिया को ‘निर्बलता, तेरा दूसरा नाम औरत है’ कहकर सम्बोधित करता है। यह 16वीं शताब्दी में व्याप्त मानसिकता को दिखाता था। लेकिन लगता है कि सदियों से अभी तक कुछ भी नहीं बदला है।

इस अंक में ‘तहलका’ की आवरण कथा, 8 मार्च के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है; क्योंकि यह भारत की महिलाओं की मार्मिक कहानी का वर्णन करती है। ‘तहलका’ की प्रमुख संवाददाता परी सैकिया ने महाराष्ट्र के बीड और उस्मानाबाद, जो सूखा ग्रस्त ग्रामीण पट्टी है; के दुर्गम इलाकों में कई दिन की व्यापक यात्रा करके वहाँ उन हज़ारों असहाय महिलाओं की पीड़ा की जानकारी ली, जिन्हें कथित तौर पर हिस्ट्रेक्टमी यानी सर्जरी करवाकर गर्भाशय निकलवाना पड़ा। महिलाओं ऐसा इसलिए भी करना पड़ता है, ताकि वे उन दिनों में भी मज़दूरी कर सकें, जब वे मासिक धर्म से गुज़र रही होती हैं। कैंसर के खतरे से बचने के लिए भी इन महिलाओं ने गर्भाशय निकालवाया था। परी के मुताबिक, ‘20 साल की युवा भोली, अनपढ़ महिलाओं से मिलना चौंकाने वाला था, जिन्हें बिना किसी अड़चन के काम करने और घातक कैंसर से बचने के लिए कथित तौर पर उनके गर्भाशय को हटाने की सलाह दी गयी थी। ऐसा अब भी हो रहा है।’

विडम्बना यह है कि यह सब ऐसे दौर में हो रहा है, जब हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में भारतीय सेना में महिलाओं को समान अवसर देने के अधिकार को बरकरार रखा है। यह फैसला महिला अफसरों को अपने पुरुष समकक्षों की तरह स्थायी कमीशन के लिए योग्य होने का मार्ग प्रशस्त करेगा। उच्चतर ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए सेना में लैंगिक समानता के लिए यह पहला बड़ा कदम है। शीर्ष अदालत के फैसले से महिला अधिकारियों के लिए कमांड पोस्टिंग, पदोन्नति, रैंक और पेंशन प्राप्त करने के रास्ते खुल गये हैं, जबकि अभी तक शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत महिला अफसरों के लिए 14 साल तक का कार्यकाल सीमित था। दु:खद वास्तविकता यह थी कि महिलाएँ सेना में पुरुष श्रेष्ठता की झूठी धारणा के चलते अपने करियर में शिखर को नहीं छू सकती थीं। सर्वोच्च अदालत के फैसले से यह धारणा अब खत्म हो जाएगी। चौंकाने वाली बात यह है कि सरकार ने अदालत में यह रुख अपनाया कि महिलाएँ शारीरिक रूप से सेना के उच्च पदों के लिए अयोग्य हैं। न्यायालय ने सरकार के तर्कों में उन विरोधाभासों को तोड़ दिया है, जो सिर्फ पूर्वाग्रह और पुरुष मानसिकता को दर्शाते हैं। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने सेना में समानता की आवश्यकता को पूरा करने के लिए वीरता और उपलब्धि के लिए 13 महिला अधिकारियों को नामित किया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्वागत योग्य है। क्योंकि यह अनुच्छेद-14 के तहत भारतीय संविधान में निहित समानता के अधिकार को बरकरार रखता है; जिसमें कहा गया है कि राज्य धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भारत में कानून के समक्ष समानता से इन्कार नहीं करेगा। लिंग कभी भी किसी भी व्यक्ति के लिए असमान व्यवहार का आधार नहीं हो सकता। न्यायालय ने महिलाओं की शारीरिक सीमाओं पर केंद्र के तर्कों को भी खारिज कर दिया और कहा कि उनकी क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाना महिलाओं और भारतीय सेना दोनों का अपमान है। यह निर्णय सदियों से चली आ रही एक गलत परम्परा को खत्म कर देगा और सेना में योग्य महिलाओं के प्रवेश को प्रोत्साहित करेगा। यह फैसला सेना में लिंग असंतुलन को हमेशा के लिए खत्म कर देगा। परी ने कहा कि समय आ गया है कि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि पहल करें और प्रत्येक व्यक्ति बदलाव के लिए सार्थक प्रयास करे। तहलका को इस बदलाव का इंतज़ार है।