खेती जो खुशहाली लाए

इस और आने वाले लेखों के माध्यम से मैं आपको उत्तराखंड में पैदा होने वाली पारंपरिक फसलों के बारे में बताने जा रहा हूं। इसकी शुरुआत वहां पैदा होने वाली दालों व अन्य कैशक्राप से कर रहा हूं। इसकी पहली किस्त आपके सामने प्रस्तुत है-

जैसा कि आप जानते हैं कि उत्तराखंड विविध जैविक उत्पादों के लिए पूरे देश में ख्यात है। इस ओर आपका ध्यान इसलिए आकर्षित करना चाह रहा हूं, क्योंकि यहां से पलायन की मार से पूरा उत्तराखंड प्रभावित है। इसमें एक मुख्य मुद्दा जमीन का सही तरीके से उपयोग न होना है।साथ ही बटी खेती ने ऐसा रास्ता भी नहीं छोड़ा, जहां लोग वापस घर की तरफ रुझान कर सकें।

यहां पर मैं उत्तराखंड में पैदा होने वाली दालों पर आपका ध्यान खींच रहा हूं।

मसूर दाल

मसूर की दाल पहाड़ो में रवि की मुख्य फसल है। इस दाल को आप आसानी से पका सकते हैं। पहले जब प्रेशर कुकर नहीं होते थे मिट्टी और पत्थर के चूल्हे होते थे, लकड़ी ही ईंधन होता था, उस जमाने में हल्की सी आंच में मसूर की दाल आसानी से पक जाती थी। और पचाने में भी आसान होती है। यह दाल विशेष रूप से छोटे दानों वाली है। रंग इसका काला होता है। इस दाल को कई तरह से बनाया जा सकता है।

स्थनीय नाम भी इसका मसूर ही है।

इस दाल की कई किस्में पंतनगर विश्वविद्यालय ने तैयार कर ली हैं।

इसमें पौष्टिक तत्व हैं- 24 से 26 प्रतिशत प्रोटीन, वसा-1.3, कार्बोहाइड्रेट 57, फाइबर 3.2, कैलशियम-68 मिलीग्राम और फासफोरस -300मिली ग्राम होता है।

दूसरी पहाड़ में पैदा होनेवाली दाल तुअर है। यह पारपंरिक रूप से मुख्य फसलों में गिनी जाती है। इस दाल को उपजाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है। यह खरीफ की फसल में आती है। यह बहुत ही पौष्टिक दाल है। इसमें प्रोटीन भरपूर मात्रा में होती है। यह कार्बोहाइडेऊट, फाइबर और खनिज से परिपूर्ण दाल है।

अब पूसा इंस्टीट्यूट ने इस दाल की कई किस्में विकसित कर ली हैं। इस दाल का विशेष अवसरों पर इस्तेमाल किय जाता है। मेहमान नवाजी में इसके बगैर कोई आंनद नहीं मिलता।

इसके स्थानीय उपज के छोटे पीले, नारंगी रंग के दाने होते हैं। तुअर को उबाल कर दाल की तरह खाया जाता है। यह दाल काफी पौष्टिक और स्वदिष्ट होती है।

काली सोयाबीन: पहाड़ों में काली सोयाबीन बहुतायत में होती है। यह फसल सितबंर अक्टूबर में तैयार होती है। यह बड़ी पौष्टिक दाल है। स्थानीय लोग इसके दानों को भून कर बड़े चाव से खाते हैं। पूरे उत्तराखंड में इसकी अच्छी पैदावार निकलती है। इस दाल को पैदा करने में ज्यादा मेहनत की जरूरत नहीं करनी पड़ती है। एक बार बोने के बाद गुडाई की ज्यादा जरूरत नहीं है। निराई करने भर से यह अच्छी फसल देती है। जिस खेत में ये दाल उगाई जाती है। वह भूमि भी उपजाऊ हो जाती है। क्योंकि वायुमंडल की नाइटोऊजन को यह मिट्टी को देता है। इस कारण दूसरी फसल पैदा करने के लिए जमीन उपजाऊ हो जाती है।

दूध देने वाले पशु भैंस को यदि काले भट्ट यानी सोयाबीन को भिगोकर और पीस कर खिलाया जाय तो भैंस खूब दूध देने लगती है।

सफेद सोयाबीन भी पहाड़ों में पैदा की जाती है। यह दाल भी पौष्टिक होती है। इसकी पैदावार 1000 से 1700 फुट समुद्रतल की  ऊंचाई पर की जाती है। इसे दाल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इससे सोया सास, सोया दूध, शिशुओं का आहार और तेल आदि बनाया जाता है।

कुल्थ या गहत: इस दाल को गहत नाम से जाना जाता है। इसके अलावा यह दाल एक दवा का काम भी करती है। इसके दानों को उबाल कर या दाल के तौर पर खाने से शरीर में बन रही पथरी को हर रोज कुल्थी की दाल खाने से खत्म किया जा सकता है। इसके इस गुण के कारण पहाड़ों में यदि इसे पैदा किया जाए और फिर इसका व्यापारिक तौर पर पैदावार की जाए तो किसानों को अच्छी आमदनी दे सकती है। इसकी खेती का समय जून जुलाई से लेकर सितंबर अक्टूबर तक का होता है। किसानों को इस फसल को पैदा करने में कोई अतिरिक्त काम नहीं करना पड़ता। यदि पर्याप्त वर्षा समय पर हो जाए तो यह अच्छी पैदावार देती है। खेतों को इस दाल के उगाने से दूसरी आने वाली फसल के लिए उपजाऊ खेत छोड़ती है।

इस दाल को 1200 मीटर से 1800 मीटर की  ऊंचाई पर पैदा किया जाता है। आज इस दाल को उगाने से पर्याप्त धन कमाया जा सकता है।

 उत्तराखंड की पहचान राजमा से भी होती है। इस प्रदेश में सौ से अधिक किस्म की राजमा पैदा की जाती है। यह मुश्किल से तीन महीने के भीतर तैयार की जानेवाली फसल है। आसानी से इसे पैदा किया जा सकता है। राजमा छोटी बेल के रूप में भी होती है। उत्तरकाशी जिले के हरसिल क्षेत्र में जो राजमा उगाई जाती है, उसका स्वाद ही विशिष्ट होता है। इसकी बाजार में मांग भी काफी है।

इस दाल को 1000 से 2000 मीटर समुद्र तल की ऊंचाई पर पैदा किया जाता है। राजमा की विशेषता है कि कच्ची फलियों के रूप में यानि फ्रेंचबीन के नाम से मशहूर यह सब्जी की तरह प्रयोग में लाई जाती है। राजमा पैदा करने के बाद खेत दूसरी फसल के लिए उपजाऊ हो जाते हैं। अक्सर फली पैदा करनेवाली फसल वायुमंडल से नाइटोऊजन को भूमि को देते हैं। कम समय में कैशक्राप के रूप में यह पैसा अर्जित करने का बेहतर विकल्प है।

पहाड़ों को अत्मनिर्भर बनाने के लिए मटर की पैदावार अत्यंत फलदाई है। दो महीने के भीतर ही इसको पैदा करने और बाजार मिलने से किसान खुशहाल हो सकता है। इसलिए खेती को उपजाऊ रखने और मटर पैदा करने से सब्जी और दाल की कमी को पूरा किया जा सकता है। पहाड़ की भूमि इसके लिए उपयुक्त है। इसी तरह टमाटर की पर्याप्त खेती पहाड़ों में की जा सकती है। पिछले कुछ वर्षों में पहाड़ी किसानों ने टमाटर को पैदा करने से अच्छी रकम हासिल की है। टमाटर पैदा कर सीधे मंडी तक पहुंचाने का जरिया हो तो अच्छी आमदनी हो सकती है।

दालचीनी भी पहाड़ो में उगाई जा सकती है। उत्तरकाशी जिले में डुंडा क्षेत्र दालचीनी उगाने में अच्छा काम कर सकता है। यहां की जलवायु दालचीनी पैदा करने के लिए उपयोगी है। इस क्षेत्र में मैने वर्षों पहले देखा था कि खेतों के मेड़ो पर यह घास के तौर पर उगी होती थी। दाल चीनी के पत्ते तेज पत्ते कहलाते हैं, और इसकी छाल दालचीनी के सामान्य नाम से जानी जाती है। इतने उपयोगी पौधे की खेती की जा सकती है।

पहाड़ में आसानी से पैदा किये जाने वाली फसल आलू की है। यदि पर्याप्त कोल्ड स्टोर बना कर आलू की खेती में ध्यान केंद्रित किया जाए तो आमदनी का यह अच्छा स्रोत है। पहाड़ी आलू के नाम से बाजार में इसकी मांग बहुत होती है। पहाड़ी कास्तकारों को आलू पैदा करने की अच्छी शिक्षा दी जाए तो पैदावार अच्छी हो सकती है।

खेत मे न जाकर सिर्फ एक कमरे के भीतर मशरूम की खेती की जा सकती है। मशरूम को उगाने के लिए किसी बड़े तामझाम की जरूरत नहीं होती है। पहाड़ यानी उत्तराखंड की महिलाओं ने कुछ ही समय में सफलतापूर्वक मशरूम का उत्पादन कर, उसके लिए बाजार भी तलाशा है। इसमें एक नाम है- दिव्या रावत का, इस लड़की ने उत्तराखंड के हर किसान के लिए मिसाल छोड़ी है कि कैसे अपने पैरो पर खड़ा हो सकते हैं, बगैर किसी निवेश को तलाशने के, सौ रुपये से भी काम शुरू किया जा सकता है। और धीरे धीरे अच्छा कास्तकार बना जा सकता है। कहने का मतलब है कि प्रदेश की जनता को रोकने के लिए ऐसे कई प्रयोग हैं। इसके लिए थोड़ा टैक्निकल सहायता उन्हें दी जानी चाहिए जो अपने खेती के धंधे को शुरू करना चाहते हैं।

कुछ मायने में थोड़ी सी भूमि में वे अपना कौशल दिखा सकते हैं। बहुत सारे विषय हैं जिन्हें शुरू किय जा सकता है। उत्तराखंड में ऐसी कई वनस्पतियां हैं जिनको उगाया जा सकता है।

 एक पौधा है, जिसे एलोवेरा कहते हैं। इस पौधे को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं है। लेकिन कभी कभार इसे पानी मिलता रहे तो यह पौघा धन कमाने का अच्छा जरिया हो सकता है। बताते हैं कि इस पौधे में 18 प्रकार की प्रोटीन होती है। जो हमारे लिए भी जरूरी है। इस जरूरत को एलोवेरा की खेती करके पूरा किया जा सकता है। कहने का मतलब मेरा यही है कि कुछ पारंपरिक खेती को त्याग कर आधुनिक खेती को भी अपनाया जाय तो प्रदेश को आत्मनिर्भर होने में सफलता मिल सकती है।

बहुत सारे रसायनों से भरपूर जड़ीबूटियां हैं जिन्हें खेतों में उगाया जा सकता है। इसके लिए उन युवाओं, को ऐसा ज्ञान देने की विधि का इस्तेमाल हो, जिसमें वे आसानी से खेती करने के आधुनिक तरीकों को अपना सकें।

कुछ वर्षों से पारंपरिक खेती करने के लिए हल जोतने में लकड़ी के हल का प्रयोग किया जाता रहा है। और आज भी पहाड़ों के अधिकांश भागों में इसका प्रयोग हो रहा है। लेकिन उन्हें यह पता नहीं है कि अब धातु के हल भी बाजार में आ चुके हैं। कुछ स्थानों में सब्सिडाइज्ड रूप में इन धातु के हलों को किसानों को दिया जा रहा है, लेकिन लोग जिन्हें ऐसे हलों की जरूरत है, वे अनजान हैं। यह काम सरकार का है कि वे उन लोगों तक इस आधुनिक ज्ञान को पहुंचाये। इससे एक फायदा यह होगा कि हल को बनाने के लिए उपयोग में आने वाले बांझ जैसे अमूल्य वृक्षों को नष्ट होने से बचाया जा सकेगा।