खेती अगर घाटे का सौदा है, तो इसमें रईसों की रुचि क्यों?

भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ खेती-किसानी में आधी से अधिक आबादी लगी हुई है; लेकिन भारत की कुल जीडीपी में इसका योगदान केवल 16 से 17 फीसदी के आसपास ही रहता है। देश में एक किसान की औसत मासिक आय भी 6,000 रुपये से अधिक नहीं हो पा रही है। यह 200 रुपये रोज़ की औसत दिहाड़ी है, जो कि न्यूनतम मज़दूरी दर से भी बहुत कम है। हज़ारों किसान हर साल आत्महत्या कर रहे हैं। करीब 70 फीसदी किसान खेती के अतिरि‍क्त दैनि‍क कमायी पर निर्भर हैं। ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा करीब 40 फीसदी से भी कम है। मेरा सवाल यह है कि अगर खेती-किसानी की स्थिति इतनी बुरी है, तो देश के पूँजीपति (रईस) और उद्योगपति इसकी ओर आकर्षित क्यों हो रहे हैं? कुछ साल पहले जब फिल्मी महानायक अमिताभ बच्चन ने उत्तर प्रदेश के ज़िले बाराबंकी में उनकी पसंदीदा पार्टी (सपा) की सरकार में ज़मीन खरीदी, तो बसपा की सरकार बनते ही मायावती ने उन्हें किसान मानने से इन्कार करते हुए उन पर कड़ी कार्रवाई की।

अमिताभ बच्चन किसान बनना चाहते हैं। बाराबंकी में उन्होंने इसके लिए ज़मीन भी खरीदी। सवाल यह है कि अमिताभ बच्चन, जिनकी हर महीने करोड़ों की कमायी है, किसानी क्यों करना चाहते हैं? इसका जवाब शायद हम सभी को कोरोना-काल में अच्छी तरह मिल चुका है। कोरोना-काल में जब दूसरे उद्योगों की तरह फिल्म उद्योग भी ठप पड़ गया, तब एक मात्र कृषि ही एक ऐसा उद्योग या कहें कि व्यवसाय रहा, जिसमें ताला नहीं लगा। दूसरा पूँजीपतियों और उद्योगपतियों को हर माह जो करोड़ों की आय होती है, उसको कृषि आय बताकर सरकार के आयकर विभाग की आँखों में धूल झोंकने का एक आसान रास्ता बन जाता है, क्योंकि कृषि उपज पर आयकर (इनकम टैक्स) नहीं लगता। इस मामले में अगर हम अमिताभ बच्चन जैसे लोगों को दूरदर्शी कहें, तो कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। यह कृषि के कभी न बन्द होने की ही वजह है कि लॉकडाउन में जब पूरा देश डर से घरों में बन्द था, तब उद्योगपतियों के फायदे के लिए संसद में तीन नये कृषि कानून बन गये, जिसके चलते किसान कई महीनों से आन्दोलन पर हैं और दो महीने से ज़्यादा समय से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हैं। अगर हम केवल फिल्मी सितारों की बात करें, तो सलमान खान भी खेती करते हैं। फिल्म स्टार जितेंद्र ने भी राजस्थान के बूंदी में ज़मीन खरीदी हुई है। फिल्म डायरेक्टर संजय लीला भंसाली जादौन में ज़मीन खरीद चुके हैं। खेती-बाड़ी (कृषि) को लेकर इन सभी करोड़पतियों की एक ही राय है कि यह फायदे का धन्धा है। लेकिन दूसरी तरफ खेती में हो रहे लगातार घाटे और सिर पर बढ़ते कर्ज़ के चलते हर प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। देश के लाखों किसान चिन्ता में तिल-तिल घुट रहे हैं। अगर हम आँकड़े उठाकर देखें, तो पता चलता है कि कम जोत वाले किसान सबसे ज़्यादा आत्महत्या का रुख करते हैं। लेकिन उद्योगपतियों, पूँजीपतियों के कृषि की ओर रुख करने से बार-बार यही सवाल उठता है कि क्या कृषि घाटे का सौदा है? मेरे खयाल से ऐसा बिल्कुल नहीं है। आप सोच रहे होंगे कि फिर ये छोटे-मझोले किसान आत्महत्या क्यों करते हैं? इसका सीधा-सा जवाब है कि खाद, पानी, कीटनाशक सब कुछ काफी महँगा है और खाद्यान्न का वह उचित दाम किसान को कभी नहीं मिलता, जिसका वह हकदार है, उसमें कई हिस्सेदार आ जाते हैं। यह किसान की गलती नहीं है, यह व्यवस्था की गलती है। किसान तो मजबूर है। किसान की न तो इतनी पहुँच है कि वह अपने खाद्यान्न को सीधे उपभोक्ता तक पहुँचा सके और न उसकी इतनी क्षमता है। इसकी एक वजह अधिकतर किसानों का अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा होना है और दूसरी वजह उन्हें उन्नत खेती करने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलना है।

कहीं भुखमरी, तो कहीं अन्न की बर्बादी

वरिष्ठ पत्रकार और चिन्तक नारायण बारेठ कहते हैं कि बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि आज भी हमारे देश में तकरीबन 20 फीसदी लोग इतना अधिक खाते हैं कि इन 20 फीसदी में से करीब 60 फीसदी को उसे पचाने के लिए जिम जाना पड़ता है। वहीं एक बड़ी आबादी ऐसी है, जिसमें से करीब 65 फीसदी को पोष्टिक आहार नहीं मिलता और करीब 35 फीसदी को भरपेट भोजन ही नसीब नहीं होता। अब तो कोरोना-काल में हम भुखमरी के मामले में और भी आगे निकल गये हैं। हालत यह है कि देश में 92 फीसदी महिलाओं के शरीर में खून की कमी है और करीब 40 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। हालत यह है कि कहीं भुखमरी है और कहीं अन्न की बुरी तरह से बर्बादी हो रही है। पंजाब, हरियाणा में एक संस्था ने ऐसे ही बर्बाद खाने को इकट्ठा करके गरीबों का पेट भराने की एक मुहिम चला रखी है। मेरा सवाल है- क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अन्न और दूसरे खाद्य पदार्थों को बर्बाद होने से पहले ही भूखों और गरीबों तक पहुँचा दिया जाए। हम कितनी ही शादियों-पार्टियों में लोगों को खाना बर्बाद करते देखते हैं। वहीं दूसरी तरफ भूख से तड़प-तड़पकर दम तोडऩे वाली दर्ज़नों खबरें अन्दर तक झकझोर देती हैं। यह तब है, जब हमारे यहाँ अनाज की कमी नहीं है। यह दु:खद और विडंबना भरा है कि पिछले सात वर्षों में हम कई मामलों में पिछड़े हैं। सरकारी सेक्टर्स को निजी हाथों में दिया जा रहा है और अब चन्द उद्योगपतियों के हाथों में किसानों की डोर देने की तैयारी भी हो चुकी है।

ऐसे में क्या यह माना जाए कि कृषि को जानबूझकर अब तक मुनाफे से दूर रखा जा है, ताकि किसानों का इस पेशे से मोह भंग हो और वे तंग आकर अपनी ज़मीनें पूँजीपतियों और उद्योगपतियों को सौंपने को मजबूर हो जाएँ। और ऐसा हुआ भी है। हज़ारों-लाखों कृषि भूमि को कहीं पैसे का लालच देकर तो कहीं झाँसे में लेकर तो कहीं डरा-धमकाकर अब तक पूँजीपतियों और उद्योगपतियों के हवाले किया जा चुका है। शायद यही वजह है कि किसान पुत्रों को खेती से ज़्यादा मुनाफे का सौदा ज़मीनों को बेचकर कोई दूसरा धन्धा करना लगता है। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे उनकी जड़ कट रही है। ऐसे कई उदाहरण मेरी नज़र में हैं। मसलन एक शिवचरण नाम के किसान के पास तीन बीघा ज़मीन थी, जिसमें वह सब्ज़ियाँ उगाते थे। शिवचरण अनपढ़ थे। उनका इकलौता बेटा नरेश जब बड़ा हुआ, तो अपने परिवार की माली हालत देखकर उसका खेती में मन नहीं लगा। उसने अपने पिता से कहा कि वह बिजनेस करेगा। इकलौते बच्चे की ज़िद थी और इतने पैसे घर में थे नहीं कि उसे बिजनेस कराते। आखिरकार हार खाकर ज़मीन बेच दी और एक बड़ी दुकान लड़के को शहर में खुलवा दी। माँ-बाप गाँव में रह गये और लड़का शहर में बस गया। कुछ ही दिनों में दुकान ठप होने लगी। इधर माँ-बाप की रोजी-रोटी का ज़रिया चला गया और उधर उनका बेटा दु:खी रहने लगा। माँ-बाप की आखिर में बुरी दशा हुई और दोनों उम्र होने से पहले ही बीमारी में चल बसे। बाद में लड़के ने गाँव वाला घर भी बेच दिया और फिर हमेशा के लिए कहीं चला गया। ऐसे कई िकस्से हैं, जो ऐसे लोगों के हैं, जो खेती-बाड़ी का महत्त्व नहीं समझते या इसमें लगातार होते घाटे या निम्न जीवन स्तर से तंग आकर अपनी जड़ यानी खेती की ज़मीन गँवा बैठते हैं और यही पूँजीपति तथा उद्योगपति चाहते भी हैं।

कहने का मतलब यह है कि उद्योगपतियों और पूँजीपतियों के लिए वही ज़मीन फायदे का सौदा हो जाती है, जिस पर एक आम किसान खेती करके जीवनयापन भी नहीं कर पाता। इसके पीछे की वजह क्या है और कहाँ कमी रह जाती है? इस पर हम सभी देशवासियों और खासकर सरकार को विचार करना होगा। मुझे शहर में रहते हुए करीब चार दशक बीत गये और यहाँ मेरा ठीकठाक घर भी है, घर चलाने के लिए रोज़गार भी है, लेकिन मैंने अपनी एक इंच ज़मीन भी आज तक नहीं बेची। क्योंकि मैं जानता हूँ कि ईश्वर न करे, अगर कोई बड़ी आपदा आ गयी, जैसे पिछले साल कोरोना वायरस का कहर टूटा, जिसका साया अब भी है; तो गाँव में कम-से-कम भूखों नहीं मरेंगे।

मुझे बड़ी पीड़ा होती है, जब किसान पुत्र कृषि कार्यों को बड़ी गिरी हुई नज़र से देखते हैं और अपने ही पुस्तैनी काम में शर्म करते हैं। कई बार ऐसे युवाओं की आँखें तब खुलती हैं, जब उनके हाथ से सब कुछ छिन चुका होता है। मैं कहना चाहूँगा कि ऐसे किसान पुत्रों को सोचना चाहिए कि अगर कृषि घाटे का सौदा होता, तो पूँजीपति और उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरने के लिए इतनी ताकत क्यों लगाते?

देश की दो तस्वीरें

जब हम गौर से देखते हैं, तो हमारे देश की दो तस्वीरें साफ नज़र आती हैं, एक तस्वीर वो है, जिसमें एक बेटी अपने किसान-मज़दूर बाप की इस लाचारी को देखते हुए कि वह उसकी शादी कैसे और कहाँ से करेगा, आत्महत्या कर लेती है और दूसरी तस्वीर वह है, जहाँ एक उद्योगपति की बेटी अपना एक शौक पूरा करने के लिए करोड़ों रुपये सेकेंडों में पानी की तरह बहा देती है। दोनों ही भारत की बेटियाँ हैं; लेकिन फर्क इतना है कि एक ईमानदार किसान-मज़दूर की बेटी है और दूसरी उस उद्योगपति की बेटी है, जो दूसरों की मेहनत-मज़दूरी काटकर, टैक्स की चोरी करके, यहाँ तक कि काले धन्धे करके दिन-ब-दिन अमीर होता जाता है। एक तरफ 70 फीसदी वह आबादी है, जिसमें परिवारों के मुखिया को पूरी ज़िन्दगी में एक घर बनाना मुश्किल हो जाता है और दूसरी तरफ 30 फीसदी आबादी है, जिसमें परिवारों के पास हर सुख-सुविधा है। इममें से 10 फीसदी के पास तो इतनी सम्पत्ति है कि परिवार के हर सदस्य के पास यहाँ तक कि पैदा होने वाले बच्चे के पास तक इतनी सम्पत्ति होती है, कि अगर वह न भी कमाये, तो भी नौकर-चाकर रखकर ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी बिता सकता है। दरअसल हमने आज़ाद भारत में करोड़पति सांसद मंत्री और विधायक पैदा किये हैं, लेकिन एक आम आदमी को मरने के लिए उसके हाल पर भी नहीं छोड़ा है। उसे कर वसूली से लेकर दूसरे तरह की अवैध वसूली का ज़रिया बनाकर गन्ने की तरह निचोड़कर फटेहाल बना डाला है। क्या यह सूरत बदलनी नहीं चाहिए? ज़रूर बदलनी चाहिए। एक पुराने सर्वे के आँकड़े बताते हैं कि देश के महज़ दो फीसदी लोगों के पास बाकी के 98 फीसदी लोगों के बराबर जितनी सम्पत्ति है।

एक और तस्वीर का ज़िक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा। हमारे देश में तकरीबन 8 से 10 फीसदी सांसद ऐसे हैं, जो अपना क्षेत्र छोड़कर दूसरे संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़कर संसद में आते हैं। सवाल यह है कि क्या यह लोग अपने क्षेत्र की चिन्ता छोड़कर दूसरे क्षेत्र के विकास के लिए लालायित रहते हैं? नहीं। दरअसल कड़ुवी सच्चाई यह है कि यह लोग अपने क्षेत्र में अच्छा रिकॉर्ड नहीं होने के चलते, दूसरे क्षेत्र से चुनाव लड़ते हैं, ताकि उन्हें जीत मिल सके; क्योंकि अपने क्षेत्र में उन्हें जीत मिलने से रही। हमारी समस्या यह है कि हम धर्म, जाति को लेकर लड़ते रहते हैं, क्योंकि धर्म पर चलने के बजाय खुद को धर्म का रक्षक मान बैठे हैं। यही वजह है कि आज देश में तकरीबन 30 लाख धार्मिक स्थल होने के बावजूद अपराध बढ़ रहे हैं। अब तो धार्मिक स्थलों पर भी अपराध हो रहे हैं। देश में इसके कई उदाहरण हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश इसका गवाह बना है। अजीब बात है कि हमने 30 लाख के करीब धार्मिक स्थल बना लिये, लेकिन शिक्षण संस्थान तीन लाख भी नहीं बना पाये, अस्पताल एक लाख भी नहीं बना पाये। शराब के ठेके लाखों की संख्या में खोल दिये और उनकी संख्या में बढ़ोतरी ही कर रहे हैं, लेकिन उद्योगों को खत्म करने पर आमादा हैं।  क्या हम ऐसे ही विश्वगुरु भारत का निर्माण करेंगे? आज लाखों लोग सन्त-महात्माओं की शरण में जाते हैं, धार्मिक स्थलों पर जाते हैं; लेकिन संस्कार फिर भी घट रहे हैं। क्या वजह है इसकी? मेरे खयाल से इसकी वजह शिक्षा में कमी और हर हाथ में काम की जगह अधिकतर हाथों में मोबाइल का आना है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर किसान पुत्र अपने बूढ़े माता-पिता को खेतों में काम करने को भेज देते हैं और खुद पढ़ाई और दूसरे कामों के नाम पर मोबाइल में व्यस्त रखते हैं। फिर कहते हैं कि खेती में तो नुकसान-ही-नुकसान है। ऐसे युवाओं से मैं यही कहना चाहूँगा कि खेती का घाटा तो अगली फसल में भी पूरा किया जा सकता है, लेकिन आप लोग जो ज़िन्दगी का घाटा कर रहे हो, उसका आपको ताउम्र नुकसान उठाना पड़ेगा। अपने आसपास से नहीं, तो कम-से-कम पूँजीपतियों और उद्योगपतियों के संघर्षों के बारे में पढ़कर ही सीखो, जो अरबों रुपये के मालिक होने के बावजूद दिन-रात मेहनत करते हैं।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)