खुला

उसे मौत आए, हैजा हो जाए, मेरी बेटी के सर पर सौत लाकर बिठा रहा है… भोली-भाली मेरी प्यारी बेटी को बदचलन बताता फिरता है। बढ़ईगीरी करने वालों के घर में बेटी देकर हमने बहुत बड़ी गलती की। मैंने तो यह सोचकर उस घर में बेटी दी थी कि लड़का पढ़ा-लिखा है, उसका चाल-चलन भी लोग अच्छा ही बताते हैं। लेकिन जबसे शादी हुई है, तभी से बेचारी मुसीबतें ही मुसीबतें झेल रही है। लड़की को बहुत सताता है वह। यह तो फूल-जैसी अच्छी-भली अपनी लड़की का गला दबाना हुआ। सामने पडऩे वाले हर आदमी से इसका याराना होने की बात कहता है। उसका खानदान का खानदान खाक हो जाय…’ अपने दामाद को कोसती हुई रंजीदा अ$फज़ल बी बरामदे में गेरू से लिपाई कर रही है।

”अजी… यह क्या शोर मचा रही हो…’’ करीम ने पुकारा।

”जुबेदा सवेरे की बस से आई है। हुसेन ने उसे फिर मारा है…’’

”या अल्ला… मैं क्या करूँ… रोपनी के दिनों में ही, उसे भेजा था न… दो महीने भी नहीं हुए, फिर से झमेला करना शुरू कर दिया उस कमबख्त ने…’’

”…’’

”चार दिन ठहर बेटी, इस बार उसे खूब डाँट पिलाने के बाद ही तुझे भेजूँगा। रोपनी वाले मजदूर आए हैं। जल्दी से खाना दो जी, मुझे खेत पर जाना है…’’

बेटी जुबैदा ने दस्तरखान बिछाया, तो अ$फज़ल बी ने र$काबियाँ रखीं और लोटे और गिलास में पानी भर लाई। फिर चावल और सेजन मिलाकर बनाये गोश्त दालचे में चम्मच डालकर दस्तरखान पर रख दिया। करीम नहाकर आया और ताबड़तोड़ दो-चार निबाले पेट में डालकर खेत की ओर चला गया।

”सत्यानास हो उसके खानदान का… लड़की को जीने नहीं देगा क्या वह? यह कहाँ की इनसानियत है? भाभी, अपनी ही बस्ती में रिश्ता करते, तो लड़की हमारी आँखों के सामने ही रहती… वहाँ मारेगा-पीटेगा या प्यार से रखेगा, क्या पता?’’ सिर पर पल्लू खींचे और ‘बुर्र-बुर्र’ नाक सुड़कती हुई जहीरा बी बात मालूम होते  ही दौड़ी-दौड़ी आई थी।

जहीरा बी अ$फज़ल बी की देवरानी है।

ज़हीरा बी जुबेदा को जन्म देने वाली अम्मा है तो अ$फज़ल बी उसे पाल-पोसकर बड़ी करने वाली अम्मा।

”दुल्हन, फिकर न कर। वह कैसे रास्ते पर नहीं आएगा, यह हम भी देखेंगे। अपनी बच्ची हम पर बोझ है क्या? बात जियादा बढ़ गई है, तो हम भी चुप थोड़े रहेंगे? तुम्हारे भाई जान खेत पर गए हैं। भैया से भी फौरन जाने को कह।’’ अ$फज़ल बी बोली।

”घर में ही हो, बेटी?’’

”आओ लच्चम्मा मौसी, आओ। दिखाई नहीं पड़ी इधर कई दिन से…’’

”यहीं थी, बेटी? कहीं नहीं गई। कुछ सोर सुना अभी… कोई बात है, बेटी?’’

”मौसी, बच्ची को बहुत सता रहा है वह। क्या करूँ… रो-रोकर लड़की की आँखें फूटी जा रही हैं।’’

”घर में इतना बखेड़ा हो, तो बेचारी इस्कूल कैसे जाती होगी बेटी!’’

”स्कूल से ही तो अब उसने यह बखेड़ा शुरू किया है।’’

”कैसे…?’’ लच्चम्मा ने नाक पर उँगली रख ली।

”जब से पेट में रसौली हो गई थी, बेटी को माहवारी के बखत पेट में बहुत दर्द होने लगा है। साँप की तरह मरोड़ खा जाती है बेचारी। स्कूल तक बसें तो चलती नहीं। पैदल जाओ या जीप में। जीप वाला भी सवेरे एक और साम में अंधेरा होने के बाद एक दो ही चक्कर लगाता है। उस दिन एक बजे के बखत पेट में ज़ोर का दरद उठा था और कुछ भी करने से कम नहीं हो रहा था तो खाजा मास्टर साहब की साइकिल पर यह घर आ गई थी। वही बड़ा गुनाह हो गया। तब से बात-बेबात में बेटी को जो मुँह में आए बकता रहता।… उसे मौत आए।’’

”पेट मेें दरद की बात पहले भी करती थीं तुम। वही दरद क्या, बेटी?’’

”हाँ, मौसी…’’

”कोई गोली-वोली दी कि नहीं बेटी?’’

”गोली-वोली खाने से जाने वाला दरद नहीं है मौसी यह। उसके पीछे लंबी कहानी है।’’

”ऐसा क्या हुआ है बेटी।’’

”इसकी किस्मत फूटी थी कि सादी के बाद सात की साल में चार बार पेट गिर गया। जल्दी-जल्दी तीन जचगियां भी हुईं। बसुमती डॉक्टरनी कहती है कि बच्चेदानी कमज़ोर हो गई है। गोलियां तो खा रही है। लेकिन बीमारी का रास्ता बीमारी का और गोलियां का रास्ता गोलियां का… यही हो रहा है…।’’

”घर में हमेशा खटपट हो, तो बेचारी को क्या आराम मिलेगा?’’

”और क्या, मौसी…’’

”पिछली बार जब आई थी, तो मैंने देखा था जुबेदम्मा को। अब कुछ मोटी हुई जान पड़ती है। पहचान नहीं पाई मैं।’’

”हाँ, जरा भारी तो हो गई है मौसी…जचगी के बाद कोई औरत थोड़ी-बहुत मोटी हुए बगैर कैसे रहेगी? तुम ही बताओ, मौसी।’’

”माँ के पेट से जैसे आते हैं, वैसे ही रहते हैं क्या हम हमेशा बेटी… आज एक तरह से हैं तो कल दूसरे तरह से….’’

”थू है मौसी, उसके मूँह पर…’’

”और भी कोई बात है क्या बेटी…?’’

”कहता है कि जुबेदा मोटी है। उसकी आँखों को सुहाती नहीं है। और कहता है, तू देखने में अच्छी लगती थी तो सादी कर ली। अब थुलथुल हो गई है, बस्ती में मेरे दोस्त हँसते हैं। अब तेरे साथ जि़ंदगी गुजारना मेरे बस की बात नहीं। ऐसी बातें बोल-बोलकर रात-दिन उसकी जान खाता रहता है, मौसी! आग लगे उसके मुँह में!’’

”अरे, कैसी अजीब बात है। वह पाजी सादी के बखत-जैसा दिखता था, आज भी वैसा ही दिखता है क्या? आगे-पीछे तोंद और चूतड़ निकल नहीं आए हैं क्या बाहर?’’

”बात इतनी ही नहीं है, मौसी। उसका मतलब कुछ और ही है… जब से मस्तान की बेटी के पीछे पड़कर आवारगी करने लगा है, तभी से यह बकवास करने लगा है… यह बात जुबेदा जबान पर न लाए, इसलिए उसने दूसरे तरीके से उसे सताना शुरू कर दिया है। यह रोती है तो मार-पीट करता है… बर्दाश्त नहीं हुआ, तो भाग आई है बेचारी यहाँ…’’

”कैसा खराब ज़माना आया है री बेटी…’’

”तुम्हारे दामाद ने पिछली बार मौसी… छोटे-बड़े सबको इकट्ठा करके हुसेन को समझाया था। खूब समझा-बुझाकर ही जुबेदा को भेजा था वहाँ…’’

”चाय पियो नानी!’’ चाय लेकर आई जुबेदा ने कहा।

”अरे, चाय मेरे लिए भी बना लाई हो जुबेदम्मा?’’

”ठंडी हो जाएगी, पियो न नानी।’’

”सुना कि तेरा आदमी फिर झमेला कर रहा है?’’ लच्चम्मा ने जुबेदा से पूछा।

”नानी, तुम ही बताओ, जहां नौकरी करते हैं, वहां चार लोगों के साथ हिल-मिलकर रहना तो पड़ता ही है न। दुआ सलाम, बातचीत तो करनी ही पड़ती है। इतनी-सी बात पर हर आदमी के साथ मेरा रिश्ता जोड़ता है वह?’’

”क्या करें बेटी, औरत का जनम ही खराब है। कैसी-कैसी बातें सुननी पड़ती हैं। कुछ भी करो, निकालने वाले गलती निकालते ही हैं। औरत और सब कुछ बर्दास्त कर सकती है, लेकिन सक्की खसम के साथ निबाहना बहुत मुश्किल है।’’

”मौसी, तुम एक बात बताओ, मेरी बेटी क्या इतनी बेसरम हो गई है कि बदमासी करेगी? सारी खराबी होती है, देखने वाले की आँख में। आँखों में काँटे गड़े उसके। हर तरह से… लड़की को मुसीबतों में घसीटता है।’’ अ$फज़ल बी बीच में बोल पड़ी।

”नानी, ख्वाजा मास्टर साहब अच्छे आदमी हैं। आजकल सगा भाई भी इतना $खयाल नहीं करता। भाभी भी कोई-न-कोई चीज भेजती ही रहती हैं। मैं भी भाभी को भेजती हूँ। भाभी और मुझ में खूब पटती है।’’ जुबेदा कहने लगी।

”बस…बस…! काबू रख जबान पर!…’’ अ$फज़ल बी ने जुबेदा को झिड़क दिया। फिर लच्चम्मा की तरफ मुड़कर बोली, ”हुसेन इसे फुसलाकर बातें उगलवाता है तो यह इसी तरह बड़बड़ करती रहती है मौसी। वह घुन्ना आदमी मज़े में इसकी ऐसी बातों का मन मरजी मतलब निकाल लेता है और सब दिमाक में रख लेता है। इस लड़की की वजह से मैं तो मरी ही जा रही हूँ, मौसी! जरा-सा फूँक दो, तो बस, फूल जाती है। किसी ने जरा अच्छी तरह से बात की तो बस, दिल में जो कुछ है, सब बढ़-बढ़ कर बताने लग जाती है। मैंने कितनी बार इसे समझाया है कि हमारा साया भी हमें दगा दे जाता है री। लेकिन कभी सुनती है मेरी बात? मुझे पागल ही समझती है। मैंने हजार बार कहा कि सगी माँ को छोड़कर और किसी से मन की बात कभी मत कह। माथापीट-पीट कर समझाती रहती हूँ। खसम तो खसम ही होता है। उसे खाया-पिया, थूका-मूता… सब कोई बताता है क्या? जीना तो आया ही नहीं अभी तक इसे।’’

”उसे कुछ मत बोलो बेटी। हमारी इतनी उमर हो गई। हजार बार मार खाई है। फिर भी हमको ही कितना मालूम है? इस बेचारी को तो कुछ तजुरबा भी नहीं…। जिंदगी को क्या जानती है बेचारी…।’’

”मैं यह कहती हूं मौसी… इसका आदमी बड़ा चालाक है। इसे पागल बनाता जा रहा है। अपनी गलती छिपाने के लिए इसके ऊपर इल्ज़ाम लगा रहा है। अपनी बदचलनी को इसके मत्थे डाल रहा है। सुन-सुनकर इधर यह रोने-धोने लगती है और उधर वह मजे-मजे मेें अपना ऐब छिपा लेता है। नास हो उसकी चालाकी का। औरत को जूती के नीचे रखने की मंसा से ही यह सब खुराफात करता है…’’

”जाने दे, बेटी…’’

”जाने क्या है मौसी, जब से यह पैदा हुई है, तब से ही मेरी मुसीबतें शुरू हो गई हैं। मेरी सादी के बाद दस बरस तक भी मेरा कोई बच्चा नहीं हुआ। मेरी देवरानी जहीरा बी के तीनों ही लड़कियां हुईं। तीन बच्चियों को पालने का उसका हौसला नहीं था। यह तब पोतड़ों की बच्ची थी, पोतड़ों में ही मैं ले आई इसे…’’

”तुम्हारा बबुवा कब पैदा हुआ था बेटी?’’

”याद नहीं है, मौसी? जुबेदा को ले आने के चार साल बाद ही तो… हाँ एक बात बताना भूल ही गई। इसकी माँ जहीरा बी ने एक तमासा किया था तब…’’

”क्या किया उसने, बेटी…?’’

”आकर बोली, ‘भाभी जान, तुम्हारे बेटा हुआ है। अब तुम मेरी बेटी की परवरिस क्या करोगी… मैं अपनी बेटी ले जाती हूँ’  ऐसे बोली जैसे उस पर कोई पहाड़ टूट पड़ा हो। मैं बोली, बेवकूफी की बातें मत कर। उसकी परवरिस में क्या कमी की है मैंने? हाथों पर रखकर पाला है मैंने इसे। खिला-पिलाकर, इसकी टट्टी-पेसाब साफ करके बड़ा किया है मैंने। कौन कहता है कि यह मेरी बेटी नहीं है? मैंने फटकारा तो चुप हो गई। मैंने इसे इस्कूल भेजा, तो वह कहती फिरी कि मैं इसे खराब कर रही हूँ।’’

”लाख मुसीबतें झेलकर मैंने इसे सहर भेजा और इंटर करा दिया। और क्या कहूँ… इसका बाप भी मना करता रहा बार-बार। लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि यह मेरी तरह बर्तन माँजते, गोबर पाथते जिंदगी काटे। इसलिए मैंने इसकी टीचर ट्रेनिंग करा दी। उन दिनों मेरे पटेल भाई का बड़ा रोब-दाब था, तो कलट्टर साहब को दस हजार खिलाकर इसे टीचर की नौकरी लगवा दी…’’

”तब सब लोग उछल-उछलकर कहने लगे कि अपने ही गाँव में इसका रिस्ता कर दो। लेकिन गाँव में ऐसा कौन था? मैंने एक ही जिद पकड़ी कि मिट्टी-गारे में काम करने वाले किसी लंगोटिये को तो अपनी बेटी नहीं दूँगी।’’

”कसाई मदार की छोटी बहिन के बेटे हुसेन की बात आई। … गांव में आता-जाता था … पैदा होने के बाद से ही देखते आए हैं। डिग्री तक पढ़ा है। दवाइयों की दुकान करता है। खाते-पीते लोग हैं.. यह खयाल करके वह रिश्ता किया। दहेज में पैंतीस हजार और पांच तोला सोना,बिस्तर, पीढ़ा, पलंग..सब देकर निकाह किया।’’

”अब ये बरबादी के लच्छन कहां से आ गए? लड़के का दादा बढ़इगीरी करता था न बेटी..’’ लच्चम्मा ने कुछ याद करते हुए पूछा।

”हां मौसी! लेकिन वे काम अब कौन कर रहा है? उसमें भी लोग गलती निकालते रहे। कहते रहे-अफजल बी इतना करके भी बेटी बढ़ईगीरी  करने वाले के घर में दे रही है..’’

”अरे..लोग सौ बातें कहते रहते हैं बेटी.. दुनिया है न ..’’ हाथ हवा में तेजी से नचाते हुए लच्चम्मा ने कहा।

”इनके घर में दो बीवियों का रिवाज चलता है, मौसी..’’

”अच्छा ..? लच्चम्मा का मुंह खुल गया।

”हुसेन का चाचा याकूब चार लड़कों का बाप होने के बाद भी कुम्हार सारय्या की लड़की के पीछे पड़ गया…बरसों बाद भी उसे छोड़ नहीं रहा था। तुम्ही बताओ मौसी, गांव में लोग बातें नहीं करेंगे क्या?’’

”क्यों नहीं करेंगे बेटी?’’

सारय्या ने सोर मचाया। हुसेन की बुढिय़ा दादी तब जिंदा थीं बड़ी चालाक औरत थी वह मौसी! घर का भेद सबके सामने खुल न जाए, इसलिए बहू के लिए अलग मकान बनवा दिया .. हमारे गांव का चोबदार रामुलु नहीं है, उसकी चार एकड़ ज़मीन का टुकड़ा खरीदकर बहू के नाम करके उसका मुंह बंद कर दिया और फिर  सारय्या की बेटी को हमारे लोगों में मिलाकर उससे निकाह करा दिया .. ऐसा निकम्मा खानदान है इन लोगों का! मिट्टी में मिल जाए सारा खानदान, दाने-दाने को तरसे , मेरी बेटी की जिंदगी को दोजख बना डाला है।’’

”तुम लोगों के यहां आदमी चार-चार सादियां  कर सकता है, ऐसा कहते हैं बेटी।’’

”पता नहीं क्या-क्या करके मरते हैं ये लोग, मौसी। बदमास आदमी हर जात में होता है। मेरे -बाप ने की थी क्या दूसरी सादी? मेरे फूफा  ने की थी क्या? तुम्हारे दामाद ने  की है क्या?’’

”तुम ठीक ही कहती हो, बेटी! अब मैं चलती हूं। मेरी एक बात याद रखना । पंचायत वाले दिन अपने मौसा को भी बुलाना। मुसलमान और हिंदू सब थूंके उसके मुंह पर, तो उस कंबखत की अक्कल ठिकाने आ जाएगी।’’

”ठीक है मौसी अरे, साड़ी के पीछे सब गेरू लग गया है’’

लच्चमा ने मुड़कर देखा और बोली,”तुम लोग गेरू से लिपाई करते हो बेटी’’

”हां मौसी.. पीढ़ा देना ही भूल गई मैं..चबूतरे पर ही बिठा दिया तुमको ..’’

”कोई बात नहीं बेठी .. घर जाकर बदल लूंगी।’’

ज्ुबेदा की बेटी हाथों में मेंहदी लगाने लगी। अफज़ल बी ने पानदान हाथ में लेकर पान की बीड़ा मुंह में रख लिया। फिर उगलदान पास खींचकर जुबेदा से बोली, ”बेटा, सवेरे से मैं अपने ही झमेलों में फंसी रही। तू क्या सोचती है? अब क्या करें, कैसे करें, बता।’’

”अम्मी, फातिमा को घर ही ले आया है वह। कहता है, हम दोनों को एक ही जगह रहना है।’’

”मस्तान को सरम क्यों नहीं आती? पहले से जिस आदमी की बीवी है, उसे अपनी बेटी कैसे देगा वह? वह लड़की भी कितनी बेसरम है री! ज़्यादा ही मस्ती चढ़ी है उसे, तो कह दे कि कोठे पर जाकर बैठे।’’

”अम्मी, अपना आदमी सही होता, तो दूसरों को कुछ कहने की ज़रूरत क्यों होती? खराबी सब उसी आदमी में है। हया, सरम, तो उसे होनी चाहिए। मुफ्त में लड़कियां मिल रही हैं, तो फुदकता फिर रहा है। फातिमा को कुछ कहने से क्या फायदा, और मस्तान को भी कुछ कहने से क्या फायदा?

”कंगले हंै। खाने को तरसते फिरते हैं सात बच्चे हैं घर में। हुसेन बार-बार वहां जाकर हंसी -मजाक करता रहता है। लड़की को फंसाने के लिए उसे कपड़े खरीद देता है। मिठाई ले जाकर देता हैं .. ख्वाब दिखाता है.. उस लड़की की जिं़दगी में है ही क्या बताओ .. यह सब ख्वाब में भी देखा नहीं होगा उसने। खाने के लाले पड़े रहते हैं घर में हमेशा। शादी दूसरी हो या चैथी बेटी पेट भर खा तो लेगी न, यही सोचा होगा, उन कमीनों ने।’’

”सोलह साल की लड़की को ख्वाब के सिवा जिं़दगी का क्या मालूम होता है, अम्मी!’’

”जाने क्या है बेटा! उन हरामियों की अक्कल को जाने कौन ठिकाने लगाएगा .. जाने कैसी कंगाली है और कैसी भूख है कि अपने बच्चों को बेचते हुए भी तरस नहीं’’

”अम्मी, तुम एक बात सोचो। फातिमा नही ंतो किसी दूसरे मस्तान की बेटी हुसेन को मिल जाएगी। कितने लोगों को कोसती फिरेंगी हम? किस-किस बात को लेकर रोती रहेंगी?’’

”बेटा, ऐसे बदमासों को यों ही नहीं छोड़ देना चाहिए। ऐसा करना चाहिए कि वह फिर औरत के काम का ही न रहे।’’

रोपाई खत्म होने के बाद तीसरे दिन करीम ने पंचायत करवाई।

तीन गांवों के लोग इक_े हो गए।

बरामदे में बेंचें डाली गई। मंडवे में बान की चारपाइयां बिछाई गई।

बरामदे के पीछे की कोठरी में चटाइयों पर पल्लू सिर पर लिए औरतें बैठ गई।

पटेल साहब, अमीन साहब .. मौलाना साहब

हिंदुओं के तीन सयाने लोग बेंच पर बैठे हैं। मस्जिद होकर आए हुए कुछ मुसलमान टोपियां पहने चारपाइयों पर बैठे हैं।

जगह कम पडऩे से कुछ लोग टट्टर के साथ तो कुछ लोग पत्थरों पर बैठे है।।

पंचायत शुरू हुई

”हुसेन, यह क्या तरीका है तेरा? इस लड़की के साथ क्या करना चाहता है?’’ एक सयाने आदमी ने पूछा।

हुसेन कुछ बोला नहीं। गूंगा बना खड़ा रहा।

”हमारी तरफ़ टुकुर-टुकुर क्या देखता है बोल न!’’

”मुझे दोनों ही औरतें चाहिए,’’ सीना जरा तानकर हुसेन ने कहा।

कोठरी में से झांक कर दो औरतें बोल पड़ी-”सब कुछ तेरी मरजी से ही होगा क्या?’’ उनकी आवाज़ में तल्खी थी।

”औरतें चुप रहें, हम लोग पूछताछ कर रहे हैं न ‘‘

औरतों के सिर अंदर चले गए।

”यह कैसे हो सकता है?’’ पटेल साहब ने हुसेन से पूछा।

”पटेल साहब दोनों को पालने का हौसला रखता हूं। पीछे नहीं हटूंगा।’’

प्ंाचों ने एक-’दूसरे की तरफ देखा।

इतने में एक कोने में मस्तान दिखाई पड़ा।

”क्या है रे मस्तान! दुबककर बैठा है कोने में। बोलता क्यों नहीं?’’ अमीन साहब ने झिड़क दिया।

मस्तान सिर ज़मीन में गढ़ाए बैठा रहा। कुछ बोला नहीं। चुप्पी साधे रहा। लाचार मस्तान की आंखों से ढुलके गरम आंसुओं को धरती मां ने संजो लिया।

”फातिमा, इधर आ शादीशुदा आदमी से ब्याह करके कौन-सा ऐश-आराम भोगने की उम्मीद कर रही है तू बता’’

दीवार के पीछे दुबकी फातिमा चुन्नी से दोनों कंधों को पूरा-पूरा ढंकते हुए निश्चयपूर्वक बोली,”मुझे हुसेन चाहिए।’’

पंच कुछ देर आपस में बात करते रहे।

”दोनों को पालने की बात तो कह रहा है, क्या करें फिर?’’ पटेल साहब ने कहा।

”दोनों में से जिसे भी अलग करेंगे, उसकी जि़ंदगी खराब हो जाएगी। हुसेन का दोनों को रखना ही मुनासिब होगा।’’ मौलवी साहब ने पटेल साहब के मत का समर्थन

किया।

”मामू जरा ठहरो’’ जुबेदा तेजी से बाहर निकल आई सिर से फिसलते पल्लू को कमर में खोंसकर वह बोली- ”आज मैं इस आदमी के काम की नहीं रही। फातिमा को ले आया है, कल को फातिमा से भी इसका जी फिर जाएगा तो कोई और औरत ले आएगा, मैं भी एक मां के पेट से ही पैदा हुई हूं, मैं भी हाड़-मांस की ही बनी हंू, जीने की हिम्मत रखती हूं, बीबी के सामने ही जो आदमी एक दूसरी औरत को ले आया है, उस आदमी के  साथ मैं क्यों रहूं? पल-पल जान खानेवाला खसम, सवेरे-शाम शक करके खून चूसन वाला खसम मुझे नहीं चाहिए, मैं आराम से सांस ले सकंू, इसके लिए मुझे ‘खुला’

चाहिए।’’

अनुवाद: जेएल रेड्डी

संकलन: तेलुगु की प्रतिनिधि कहानियां

प्रकाशन: साहित्य अकादमी, नई दिल्ली