क्या विलुप्त होने की ओर हैं हाथी?

1979 की महाकाव्य फिल्म एपोकैलिप्स नाउ में कर्नल किल्गोर द्वारा उद्धृत की गयी एक पंक्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी दिन इस वायरस का असर खत्म हो जाएगा। लेकिन यह उन लोगों और नीति निर्माताओं के लिए मुश्किल हो सकता है, जो दूरदराज रह रहे हैं या आज की नज़र में देखें, तो वे कोरोना वायरस से पीडि़त हैं। वर्तमान में यह विकट संकट की घड़ी है। ऐसे ही तमाम मुद्दों और समस्याओं की भरमार है, जिनसे मानव जाति सामना कर रही है। इनमें सबसे प्रमुख यह है कि हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है और बदले में प्रकृति ने कई तबाहियाँ और महामारियाँ देकर एक तरह से हमसे बदला लिया है। तहलका के पिछले दो अंक कोरोना वायरस पर केंद्रित थे। इसके मूल के बारे में विभिन्न सिद्धांत और इसके प्रसार की जाँच पड़ताल की गयी। हम कोविड-19 से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं की आगे भी पड़ताल करते रहेंगे। सवाल यह है कि हमारा जीवन कैसे सुरक्षित रह सकेगा। इसके लिए हम सबको प्रकृति की सुरक्षा के साथ-साथ अन्य जीवों की सुरक्षा करने पर भी विचार करना होगा। खासकर उन वन्यजीवों के जीवन की सुरक्षा के बारे में, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं। हाथी भी ऐसे ही वन्यजीवों में से एक है। इस खास रिपोर्ट में हाथियों के बारे में बता रही हैं श्वेता मिश्रा :-

प्रवासी प्रजातियों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के परिशिष्ट-1 में एशियाई हाथी को शामिल करने के भारत के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से 20 फरवरी, 2020 को गाँधीनगर में प्रवासी प्रजाति (सीएमएस) पर आयोजित 13वें सम्मेलन में स्वीकार कर लिया गया है। सवाल यह है कि संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के परिशिष्ट-1 में हाथियों को शामिल करने का प्रस्ताव क्यों महत्त्वपूर्ण है?

यह इसलिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि परिशिष्ट-1 में वो प्रजातियाँ सूचीबद्ध की जाती हैं, जिनके विलुप्त होने का खतरा होता है। और परिशिष्ट-2 में वे प्रजातियाँ होती हैं, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय सहकारी संरक्षण के प्रयासों से बचाये जाने की ज़रूरत होती है। केंद्र सरकार ने भारतीय हाथी को राष्ट्रीय धरोहर पशु घोषित किया है। भारतीय हाथी को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम-1972 की अनुसूची एक में सूचीबद्ध करके सर्वोच्च कानूनी सुरक्षा प्रदान की है।

सीएमएस सम्मेलन की अनुसूची एक में भारतीय हाथी रखे जाने से अब पूरे भारत में हाथियों के प्रवास के प्राकृतिक आग्रह को पूरा किया जा सकेगा। इससे हमारी भावी पीढिय़ों के लिए लुप्त होने की ओर अग्रसर इस प्रजाति के संरक्षण को बढ़ावा मिल सकेगा। नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और म्यांमार में छोटी आबादी का अंत:संक्रमण और यहाँ पर इनकी तादाद का विस्तार हो सकेगा। इससे अपने प्रवासी मार्गों के कई हिस्सों में मानव के साथ हाथी संघर्ष को कम करने में भी मदद मिलेगी।

2017 में हाथियों की गिनती के अनुसार, विश्व कुल हाथियों की तादाद का 55 फीसदी हिस्सा भारत में है, जिनकी संख्या 27,312 है। 1986 से एशियाई हाथियों, जिसमें कि भारत में पायी जाने वाली प्रजातियाँ सबसे ज़्यादा हैं; को अब इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने रेड लिस्ट में सूचीबद्ध किया है। यह रेड लिस्ट लुप्तप्राय प्रजाति के लिए बनायी जाती है। भारत की बात करें, तो कर्नाटक में 6049 हाथी हैं, जो कि यहाँ के अन्य राज्यों की अपेक्षा सबसे ज़्यादा तादाद है। इसके बाद असम दूसरे नम्बर पर है। 2002 के अनुसार, असम में हाथियों की संख्या 5,246 से बढ़कर 2017 में 5,719 हो गयी है। लेकिन अब इस राज्य में घटते वन क्षेत्र के कारण इनको गम्भीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व के साथ कर्नाटक का बाँदीपुर राष्ट्रीय उद्यान दक्षिणी भारत में सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र है और भारत में जंगली हाथियों का सबसे बड़ा निवास स्थान भी है। पिछली बार की गयी गिनती के अनुसार, कर्नाटक में 6049 हाथी हैं। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान सहित असम का कार्बी आंगलोंग और मोरा धनसिरी नदी क्षेत्र जंगली हाथियों का सबसे बड़ा आवास का क्षेत्र है। यहाँ उनकी संख्या 5719 है। भारत में हाथियों के संरक्षण के लिए सबसे बड़ा और लोकप्रिय हाथी पर्व काजीरंगा में ही आयोजित किया जाता है। एनामुडी को हाथी पर्वत के रूप में जाना जाता है। यह केरल की सबसे ऊँची चोटी है और इसे दक्षिण भारत का एवरेस्ट कहा जाता है। चोटी एराविकुलम राष्ट्रीय उद्यान के दक्षिणी क्षेत्र में स्थित है और केरल में यहीं पर बड़ी संख्या में हाथी हैं। केरल में 5706 हाथी हैं। तमिलनाडु में भी जंगली हाथियों की अच्छी-खासी तादाद है। एक रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु में 2761 हाथी हैं। लेकिन यहाँ ये हाथी विशेष क्षेत्र अनामलाई, श्रीविल्लिपुत्तुर और कोयंबटूर में ही पाये जाते हैं। अन्नामलाई टाइगर रिजर्व, कोझिकामुधि कैम्प आवास है, जो अनामीलाई हिल्स में काफी लोकप्रिय है।

भारतीय जंगली हाथी भुवनेश्वर के पास स्थित चंदका वन्यजीव अभयारण्य की प्रमुख प्रजाति है। ओडिशा के पूर्वी घाट और चंदका वनजीव अभ्यारण्य में 1976 से बड़ी संख्या में जंगली हाथी निवास करते हैं। मेघालय में 1754 हाथी हैं। मेघालय की गारो हिल्स और खासी हिल्स पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों, सरीसृपों, हाथियों और हूलॉक गिबन (बंदरों की एक प्रजाति) सहित कई बड़े जंगली पशुओं का आवास स्थल है।

उत्तराखंड का राजाजी नेशनल पार्क और जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क, दोनों घने हरे जंगल हैं और हाथियों और बाघों दोनों को आकॢषत करते हैं। लेकिन ये जंगल जंगली हाथियों की आबादी के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। उत्तराखंड में 1839 हाथी हैं। अरुणाचल प्रदेश में हाथियों की आबादी 1614 है। अरुणाचल प्रदेश की हिमालयी तलहटी में कामेंग हाथी रिजर्व जंगली हाथियों के लिए स्थापित किया गया है। कामेंग अभ्यारण्य में 377 हाथियों के अलावा तेंदुए, लाल पांडा और सींगबीलों की 4 प्रजातियाँ हैं।

झारखंड जंगली पशुओं के लिए भारत का एक और लोकप्रिय राज्य है, जो अपनी कोयला खदानों और हाथियों के प्रजनन के लिए जाना जाता है। यहाँ हाथियों की संख्या 679 है। नागालैंड राज्य लुप्तप्राय प्रजातियों का आवास है। इस पूर्वोत्तर भारतीय राज्य में जंगली हाथियों के 30 फीसदी आवास स्थल हैं और यहाँ हाथियों की कुल संख्या 446 है। छत्तीसगढ़ राज्य मध्य भारत में 247 जंगली हाथियों का घर है। उत्तर प्रदेश का दुधवा राष्ट्रीय उद्यान एक तराई क्षेत्र है और यहाँ पर हाथियों की संख्या 232 है। दुधवा का तराई का पारिस्थितिकी तंत्र बड़ी संख्या में लुप्तप्राय प्रजातियों के अनुकूल है। मयूरझरना एलीफेंट रिजर्व और पश्चिम बंगाल का डुआर्स क्षेत्र तराई डुआर सवाना और हरित क्षेत्र में 194 हाथियों का बड़ा झुण्ड पाया जाता है। कर्नाटक का बांदीपुर नेशनल पार्क और नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व के साथ दक्षिण भारत में सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र है और भारत में जंगली हाथियों का यह सबसे बड़ा निवास स्थान है।

एशियाई हाथी यानी भारतीय हाथी भोजन और आश्रय की तलाश में राज्यों से लेकर दूसरे देशों तक लम्बी दूरी का सफर तय करते हैं। कुछ हाथी तो एक स्थान पर ही रहते हैं, जबकि अन्य नियमित रूप से हर साल या समय के हिसाब से विशेष इलाकों में प्रवास करते हैं। प्रवास चक्रों में ये स्थान बदलते रहते हैं और प्रवासी आबादी का अनुपात क्षेत्रीय आबादी के आकार के साथ-साथ उनके आवास की सीमा, क्षरण और ज़रूरतों पर निर्भर करता है। एशियाई हाथियों के संरक्षण में जो मुख्य चुनौतियाँ सामने आती हैं, उनमें अधिकांश इनका सीमा क्षेत्र, निवास स्थानों का खत्म होना या सीमित होते जाने के साथ-साथ मानव-हाथी संघर्ष, अवैध शिकार और अवैध व्यापार हैं।

भारत में प्राकृतिक रूप से एशियाई हाथियों या भारतीय हाथियों के रहने के लिए सबसे बढिय़ा स्थान हैं। इसलिए यहाँ पर हाथियों के संरक्षण को बढ़ावा देने की उम्मीद रखी जाती है। सीएमएस कनवेंशन सेंटर के परिशिष्ट-1 के तहत कहा गया कि दुनिया भर के देशों की प्रजातियों को भारत लाकर इनके प्राकृतिक प्रवास की व्यवस्था

की जाए। वन्यजीव के एडीजी सौमित्र दास गुप्ता कहते हैं कि जब इस प्रस्ताव को रखा गया, तो सम्मेलन में इसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर

लिया गया। सरकारी सूत्रों के अनुसार, 2016 से 2018 के बीच असम में जंगली हाथियों ने 149 लोगों को मौत के घाट उतारा और 3,546 घरों और 1,880 हेक्टेयर फसलों को नुकसान पहुँचाया गया। पिछले साल जून में असम के एक वन अधिकारी ने राज्य के वन विभाग को स्थानीय लोगों द्वारा लादेन नाम का एक हाथी घोषित करने के लिए कहा था। बदमाशों ने संदेह जताया कि उन्होंने 2016 से गोलपारा वन प्रभाग के आसपास और 363 वर्ग किलोमीटर के गाँवों में 37 लोगों को मार दिया है।

अवैध शिकार और व्यापार

शिकारी एशियाई हाथियों में नर हाथी को ही निशाना बनाते हैं और इन्हीं का अवैध व्यापार अधिक किया जाता है। अपने दाँतों के लिए मशहूर इस विशाल पशु का शिकार न हो, तो इनकी तादाद बढऩे की उम्मीद की जा सकती है। दाँतों के लिए एशियाई हाथियों का अवैध शिकार कुछ देशों में खतरा बना हुआ है।

हालाँकि, ज़्यादातर अवैध हाथी दाँत वर्तमान में एशियाई हाथियों के बजाय अफ्रीकी स्रोतों से आते हैं। व्यापार के लिए जंगली हाथी भी ले जाए जाते हैं- मुख्य रूप से पर्यटन उद्योग के लिए थाईलैंड ले जाया जाता है।

हाथियों की ट्रेन या वाहन की टक्कर होने, बिजली का करंट लगने, गड्ढों में गिरने और ज़हर देने से होने वाली मौतों से उन्हें बचाने के लिए हाथी कॉरिडोर बनाने हेतु समन्वय समिति का गठन किया गया है।

ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए रेलवे, वन विभाग और असम पॉवर डिस्ट्रीब्यूशन कम्पनी लिमिटेड के कर्मचारियों को व्हाट्स एप ग्रुप के माध्यम से प्रभावी सूचना का आदान-प्रदान किया जाने लगा है। वन विभाग ने भी एंटी डेप्रीडेशन स्क्वॉयड, सौर-ऊर्जा चालित बिजली की बाड़ लगाने और जंगली हाथियों को मानव बस्तियों से दूर रखने के लिए प्रशिक्षित हाथियों की तैनाती की है।

सरकार ने पशुओं के झुण्डों की आवाजाही के लिए तकनीक का भी इस्तेमाल करना शुरू किया है, जिसमें सेंसर वाले बैरियर लगाये गये हैं, जो ग्रामीणों व वन अधिकारियों के मोबाइल एप से जुड़े हुए हैं; ताकि उनको समय रहते ट्रैक किया जा सके। जुलाई में नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्थायी समिति ने केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राज्य सरकारों को सलाह जारी कर कहा कि संरक्षित क्षेत्रों के पास बड़ी संख्या में लोगों के इकट्ठा होने से रोकने के लिए सीआरपीसी की धारा-144 को बढ़ावा दिया जाए। यह निर्णय इसलिए लिया गया, क्योंकि यह पाया गया कि जब भी कोई वन्यजीव संघर्ष की स्थिति पैदा होती है, तो लोग भारी संख्या में इकट्ठे हो जाते हैं, जिससे अक्सर आपात हालात पैदा हो जाते हैं।

भारत, वियतनाम और म्यांमार ने अपने-अपने जंगली हाथियों के झुण्डों के संरक्षण के लिए वन्य क्षेत्र पर कब्ज़ा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। लेकिन म्यांमार में हाथी अब भी हर साल लकड़ी उद्योग या अवैध वन्यजीव व्यापार में उपयोग किये जाते देखे जाते हैं। दुर्भाग्य से हाथियों को पकडऩे के लिए बेहद क्रूर तरीका अपनाया जाता है, जिससे इनकी मौत भी हो जाती है। अब न केवल तरीकों में सुधार करने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं, बल्कि जंगली पशुओं को बचाने के लिए कैप्टिव प्रजनन को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

महाद्वीप की संस्कृति और धर्म में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए हाथी एशिया में सदियों से पूजनीय रहे हैं। वे क्षेत्र के वनों को बनाये रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन उनका निवास स्थान सिकुड़ रहा है और एशियाई हाथी अब लुप्तप्राय होने की कगार पर पहुँच रहे हैं।

तेज़ी से बढ़ती मानव आबादी के सामने, एशियाई हाथियों का निवास स्थान उससे कहीं ज़्यादा तेज़ी से सिकुड़ रहा है और जंगली हाथियों की आबादी कम होती जा रही है। जंगल कम होने से हाथी मुश्किलों में पड़ रहे हैं। साथ ही बढ़ती मानव बस्तियों के चलते इनके सदियों पुराने रास्ते बन्द होते जा रहे हैं।

बड़े निर्माणों से अस्तित्व पर खतरा

बड़ी विकास परियोजनाओं, लगातार विस्तृत होती मानव बस्तियों और पौधरोपण बहुत धीमी गति से होने के चलते हाथियों के प्रवास स्थान तेज़ी से कम होते जा रहे हैं।

हाथियों को उन्मुक्त जीवन जीने देने के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया प्रोजेक्ट एलीफेंट राज्यों के द्वारा किये जा रहे वन्यजीव प्रबन्धन प्रयासों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान कर रहा है। इस परियोजना का उद्देश्य हाथियों की आबादी, उनके आवास और प्रवास गलियारों की सुरक्षा प्रदान करना है; जिससे उनके प्राकृतिक आवास में हाथियों की आबादी के लिए दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित किया जा सके।

प्रोजेक्ट एलीफेंट के अन्य लक्ष्यों में हाथियों की पारिस्थितिकी और प्रबन्धन के अनुसंधान का समर्थन करना भी है। इस काम में लगे लोग स्थानीय लोगों के बीच संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा कर रहे हैं, बन्दी हाथियों के लिए बेहतर पशु चिकित्सा देखभाल प्रदान कर रहे हैं।

यह परियोजना मुख्य रूप से 16 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों- आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, मेघालय, नागालैंड, ओडिशा, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में कार्यान्वित है। इस खास परियोजना के तहत निम्नलिखित मुख्य गतिविधियाँ शामिल हैं :-

मौज़ूदा प्राकृतिक आवासों और हाथियों के बने प्रवासी मार्गों की पारिस्थितिक बहाली।

हाथियों के संरक्षण और भारत में जंगली एशियाई हाथियों की आबादी संरक्षण के लिए वैज्ञानिक और नियोजित प्रबन्धन का विकास करना।

महत्त्वपूर्ण निवासों में मानव-हाथी संघर्ष के खात्मे के लिए ज़रूरी तरीके और जागरूकता के उपाय इसके साथ ही उनकी गतिविधियों के लिए किये जाने वाले तरीके।

शिकारियों से जंगली हाथियों के संरक्षण और अप्राकृतिक कारणों से होने वाली मौत के बचाव के उपाय करना।

हाथियों के प्रबन्धन से सम्बन्धित मुद्दों पर अनुसंधान।

सार्वजनिक शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन।

इको-डेवलपमेंट।

पशु चिकित्सा देखभाल।

हाथी पुनर्वास व बचाव केंद्र।

तेज़ी से घट रहे हाथी

डाउन टू अर्थ में काॢतक सत्यनारायण शोध के हवाले से भारत के हाथियों को लेकर एक चिन्ताजनक भविष्य की ओर इशारा किया है। इसमें दावा किया गया है कि आज की तारीख में भारत में केवल 27 हज़ार से अधिक जंगली हाथी रह गये हैं, जो एक दशक पहले करीब 10 लाख हुआ करते थे। शोध के अनुसार, जंगली हाथियों की तादाद में 98 फीसदी की कमी हो गयी है। यह विशालकाय पशु न केवल भारत के पर्यावरणीय इतिहास का एक अभिन्न अंग रहा है, बल्कि कई देशी संस्कृतियों को आकार देने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।

भारत में बहुत से धर्मों में जीवन को महत्त्व दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि आत्मा जानवरों और पौधों में भी है। हालाँकि, आज भारत ने अपने वन्यजीवों के साथ यह अन्तरंग सम्बन्ध खो दिया है; क्योंकि तेज़ी से अर्थ-व्यवस्था के विकास ने इसका खात्मा कर दिया है। एशियाई हाथियों की वर्तमान स्थिति से इस परिवर्तन को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

हाथियों का भारत की संस्कृति और परम्पराओं में एक विशेष स्थान रहा है। इन्हें एक तरफ सफर के लिए शाही सवारी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है, तो दूसरी ओर युद्ध के दौरान भी इनका इस्तेमाल किया जाता रहा है। अब ऐसा लगता है कि यह मानव मित्र पशु चित्रकला तक सीमित रह जाएगा। हालाँकि, सबसे महत्त्वपूर्ण भगवान गणेश के रूप में एक देवता के तौर पर हाथी ही है। देश में 70 फीसदी से अधिक लोगों के लिए हाथी का अपना धाॢमक महत्त्व है।

अगर ऐसा तो कोई भी यह माना जा सकता है कि भारत के हाथी उच्च स्तर की सुरक्षा में बेहतर जीवन का बिता रहे हैं। लेकिन यह पूर्णत: सत्य नहीं है, क्योंकि आज हाथी काफी असुरक्षित हैं। हालाँकि भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में सूचीबद्ध प्रजातियों में हाथियों को सर्वोच्च दर्जा दिया गया है। दुर्भाग्य से ज़मीनी स्तर पर हालात अलग ही तस्वीर पेश करते हैं। यह जानकर निराशा होती है कि आज भारत में जिन हाथियों की तादाद कभी लाखों में हुआ करती थी, वे आज केवल हज़ारों में बचे हैं। हालाँकि, सुखद यह है कि भारत हाथियों की अधिकतर प्रजातियों के लिए अहम निवास स्थान है और यहाँ दुनिया में एशियाई हाथियों की 50 फीसदी से अधिक आबादी निवास करती है। लेकिन उनकी स्थिति संकटमय होती जा रही है, क्योंकि हाथियों के निवास के अनुकूल वन्य क्षेत्र सिकुड़ते जा रहे हैं। आज भारत में हाथी निवास स्थानों की कमी और अंगों की तस्करी के लिए अवैध शिकार के अलावा तमाम इंसानी प्रताडऩाओं और दबाव जैसे खतरों का सामना कर रहे हैं। आजकल अखबारों में जंगली हाथियों की मौतों के बारे में खबरें आना आम बात हो गयी है। इतना ही नहीं, उनके साथ बेरहमी से पेश आने की घटनाएँ काफी देखने-सुनने को मिलती हैं।

बन्दी हाथी

1995 में स्थापित वन्यजीव एसओएस ने भारत में ऐसी प्रजातियों को बचाने के लिए 2010 में हाथियों के लिए काम करना शुरू किया। परियोजना के शुरुआती प्रयासों में पूरे भारत में बन्दी बनाकर रखे गये हाथियों पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जो अपने मालिक के ज़रिये दुव्र्यवहार या क्रूरता का सामना कर रहे थे। हाथियों पर नियंत्रण पाकर उन्हें अपने पास रखने को आसानी से भारत के सांस्कृतिक इतिहास के साथ जोड़ दिया जाता है और यह आमतौर पर स्वीकार्य भी है। हालाँकि यह सांस्कृतिक कथा पूरे भारत से होने वाले हाथियों के अवैध व्यापार की दु:खद कहानी को बयाँ करती है।

अफ्रीका से उलट अपने देश में बन्दी बनाकर हाथियों का अवैध शिकार इसकी प्रजातियों के अस्तित्व के लिए एक गम्भीर खतरा बन गया है। जंगली हाथी कुछ लोगों के लिए महज़ एक हाथी हो सकता है, जो आगे अपनी नस्ल को बढ़ा सकता था, साथ ही इस प्रजाति को सम्बल दिये जाने में योगदान दे सकता था; लेकिन हाथियों का बचा रहना कितना महत्त्वपूर्ण है, यह बहुत कम लोग जानते हैं।

एक हाथी किसी की भी कैद में प्रतिकूल और तनावपूर्ण परिस्थितियों का सामना करता है, जिससे एक तरह से उसका शारीरिक और मानसिक शोषण होता है। बन्दी हाथी नियमित रूप से स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं, जैसे- पैरों में सडऩ, गठिया, सिर पर गहरी चोटों और कुपोषण के शिकार पाये जाते हैं। ऐसे हाथियों से बहुत काम लिया जाता है और एक बार जब उनकी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ बाधक बनती हैं, तो उनको मार दिया जाता है। हाथियों को कैद में रखकर उसकी नस्ल को आगे बढ़ाना बेहद मुश्किल है। क्योंकि इसके लिए दूसरे को पकडऩा होगा और वह इस व्यापार के मुताबिक नहीं होगा।

पिछले एक दशक के दौरान ऐसे 25 से अधिक हाथियों को बचाया गया है। देश में पहली बार वन्यजीव एसओएस ने उत्तर प्रदेश के मथुरा में एक हाथी संरक्षण और देखभाल केंद्र (2010) और एक हाथी अस्पताल (2018) की स्थापना की। इन सुविधाओं से समस्याओं या बीमारियों से जूझ रहे हाथियों के जीवन को दूसरा मौका मिलता है। इसके साथ-साथ हाथियों के संरक्षण और इस शानदार प्रजाति को बचाने को लेकर लोगों को संवेदनशील बनाने के लिए शैक्षिक दौरे भी आयोजित किये जाते हैं।

प्रोजेक्ट एलीफेंट की गणना के अनुसार, 2018 में भारत में 2,454 बन्दी हाथी थे। इस संख्या में कमी आने की सम्भावना भी जतायी गयी, क्योंकि हाथी की आयु और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 के तहत हाथियों को बन्दी बनाये रखने, हाथियों के बच्चों को पकडऩे या कैद में रखने पर पाबन्दी लगायी जा चुकी है।

अधिकांश महावत पशु चिकित्सा सहायता तक पहुँच नहीं पाते हैं। ऐसे में इलाज के अभाव में हाथियों को लगीं सामान्य चोटें अक्सर बड़ी हो जाती हैं। विशेष रूप से पैर की चोटें हाथियों के लिए घातक साबित होती हैं। इस प्रकार हाथियों के जीवन की स्थितियों में सुधार करना बेहद ज़रूरी है। इसे ध्यान में रखते हुए वन्यजीव एसओएस अपनी मोबाइल पशु चिकित्सा इकाई के माध्यम से समस्याओं से जूझने वाले हाथियों के लिए चिकित्सा सहायता मुहैया करवा रहा है। यह सेवा महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और केरल जैसे राज्यों में जंगली और बन्दी दोनों तरह के हाथियों के लिए प्रदान की जा रही है। बन्दी बनाये गये हाथियों के महावत तक पहुँचना भी उनके जीवन को बेहतर बनाने में एक महत्त्वपूर्ण घटक हो सकता है। लेकिन अक्सर जानवरों को रखने वाली जगह के तौर पर चीज़ें खुलकर सामने नहीं आ पातीं या उनसे सामना नहीं हो पाता। वन्यजीव एसओएस विभिन्न राज्यों के हाथी रखवालों के साथ भी हाथ मिला रहा है, ताकि वे अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए हाथियों के मानवीय प्रबन्धन के बारे में जान सकें।

मानव-हाथी संघर्ष (एचईसी) एक ऐसी समस्या है, जिससे दुनिया भर में हाथियों के अस्तित्व का खतरा पैदा होता है। 2018 से वन्यजीव एसओएस टीम छत्तीसगढ़ के महासमुंद और बलौदाबाज़ार में एचईसी को कम करने के लिए काम कर रही है, जहाँ पर 19 हाथियों के एक झुण्ड ने पास के वन भूमि में स्थायी तौर पर शरण ली हुई है।

गाँवों और फसलों के निकट हाथियों के झुण्ड के पहुँचने पर ग्रामीणों को पहले से सतर्क करने के लिए एक चेतावनी प्रणाली बनायी गयी है। टीम एचईसी से बचने और हाथियों के संरक्षण में भाग लेने के लिए आवश्यक तरीकों के प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए दो ज़िलों में सभी समुदाय के लोगों के साथ बड़े पैमाने पर काम कर रही है।

इन कार्यशालाओं के माध्यम से आठ गाँवों के 90 से अधिक ग्रामीणों ने स्वैच्छिक मित्र दल का हिस्सा बनने के लिए स्वेच्छा से हिस्सा लिया। एचईसी की स्थिति को आदर्श बनाया जा सकता है, जिससे दोनों के लिए अस्तित्व का खतरा नहीं होगा और भारत में हाथी भी सुरक्षित रह सकेंगे।

आज जैसे-जैसे हमारी भौतिक दुनिया तेज़ी से बदल रही है, हाथी के साथ हमारे सम्बन्धों को प्रतिबिम्बित करने और मज़बूत बनाने के लिए कुछ समय देना बेहद ज़रूरी है। भारत में हाथियों का संरक्षण और उनका कल्याण हमें समग्र नीतियों को विकसित करने के लिए आईना दिखाता है, जो अन्य जानवरों के लिए भी काम करने को प्रेरित करता है। भारत में हाथियों के बचे रहने का मतलब होगा कि देश अपनी जैव विविधता के अस्तिव को बचाये हुए है।

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड एक ऐसी अनूठी, अद्भुत, लुप्तप्राय प्रजाति की चिडिय़ा है, जिसके लिए सीमाएँ मायने नहीं रखती हैं। इनका ठिकाना ऐसी जगह पर है, जहाँ से दो देशों की सीमाएँ मिलती हैं। भारत-पाकिस्ताान सीमा क्षेत्र में ही इनका शिकार भी किया जाता है। सीएमएस के परिशिष्ट-1 में ऐसी प्रजातियों को शामिल किये जाने के बाद अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण निकायों, मौज़ूदा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और समझौते द्वारा अब सीमा पार करने में इनकी सुरक्षा और सहयोग करना ज़रूरी हो सकेगा।

इस तरह का कदम उठाये जाने के बाद शिकार और अन्य मानव प्रेरित मृत्यु दर जोखिमों के खिलाफ सीमा सुरक्षा संरक्षण प्रयासों और प्रजातियों के संरक्षण में मदद मिलेगी। द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड एक गम्भीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति का पक्षी है, जिसकी तादाद करीब सौ-डेढ़ सौ के आसपास ही बची है। यह चिडिय़ा भारत के राजस्थान में थार रेगिस्तान तक सीमित हो गयी है। पिछले 50 वर्षों (छ: पीढिय़ों) के भीतर इनकी संख्या में 90 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है। आगे भी इनके घटने की आशंका है।

लगातार कम होते जा रहे वन

अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन वल्र्ड वाइड फंड फॉर नेचर, जो वन संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहा है; के अनुसार, मानव आबादी बढऩे के साथ ही पर्यावरण पर मानव जाति के अतिक्रमण के चलते उष्णकटिबंधीय एशिया में हाथियों के लिए उनका वन्यक्षेत्र लगातार घट रहा है। वर्तमान मेें दुनिया भर के मनुष्यों की लगभग 20 फीसदी आबादी इन्हीं एशियाई हाथियों के आवास स्थल के आसपास निवास करती है। तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या के कारण एशियाई हाथियों का निवास स्थान (जंगल) उतनी ही तेज़ी से सिकुड़ रहे हैं। इसके चलते जंगली हाथियों की आबादी कम होने के साथ-साथ उनके छोटे-छोटे अलग-थलग झुण्ड बनते जा रहे हैं। लोगों को बसाने के लिए प्राचीन प्राकृतिक मार्गों को खत्म करके वहाँ बस्तियाँ बनायी जा रही हैं। बड़ी विकास परियोजनाएँ, जैसे- बाँध, सड़कें, खदानें और औद्योगिक परिसर बढऩे, पौधरोपण न होने और मानव बस्तियों का विस्तार होने से हाथियों के निवास स्थान छोटे-छोटे टुकड़ों तक सीमित हो गये हैं और लगातार घटते जा रहे हैं।

इसके चलते हाथियों के झुण्डों के फसलों तथा गाँवों में घुसने की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं। वे मानव सम्पत्ति को नुकसान करने के अलावा कभी-कभी लोगों की जान भी ले लेते हैं। बदले में ग्रामीण ऐसे हाथियों को मार डालते हैं। विशेषज्ञ पहले से ही इस तरह के टकराव को एशिया में हाथियों की मौत का प्रमुख कारण मानते हैं। एक और बड़ी चुनौती यह है कि भारत में जंगल तेज़ी से कम हो रहे हैं। बढ़ती मानव आबादी के साथ-साथ अतिक्रमण करके लोग घर बनाये जा रहे हैं, जिससे हाथियों के ऐतिहासिक आवासों का खात्मा होता जा रहा है।

हाथी जैसे बड़े शाकाहारी पशु अपने शरीर के हिसाब से 5-10 फीसदी के बराबर भोजन का प्रतिदिन उपभोग करते हैं। इनके झुण्डों को बनाये रखने के लिए ज़रूरी है कि भोजन के तौर पर पर्याप्त वनस्पति हो, साथ ही बड़े-बड़े घास के मैदान भी ज़रूरी हैं। हालाँकि, जंगलों के सिकुडऩे का सीधा मतलब है कि इनके लिए ज़रूरी भोजन की उलब्धता में कमी है। इसी वज़ह से हाथी जंगलों से बाहर निकलने को मजबूर होते हैं और फसलों को खाने लगते हैं। इस प्रकार वे अपना पेट भरने के चलते फसलों पैरों से रौंदकर नुकसान पहुँचा जाते हैं, जिसकी वजह से उनका सामना लोगों से संघर्ष के तौर पर होता है। यह अक्सर मनुष्यों और हाथियों दोनों के लिए जानलेवा साबित होता है। क्योंकि मनुष्यों के हमले या भगाने की प्रक्रिया से हाथियों में ङ्क्षचघाड़ जैसी त्वरित प्रक्रिया होती है, जिससे वे आक्रामक हो जाते हैं और फिर तबाही मचाना शूरू कर देते हैं।

कुछ देशों में सरकारें हाथियों के द्वारा किये गये फसलों के नुकसान की भरपाई के लिए मुआवज़ा प्रदान करती हैं। लेकिन आबादी वाले इलाकों के पास हाथियों को हटाने या फिर खत्म किये जाने का वन्यजीव अधिकारियों पर राजनीतिक दबाव होता है। ऐसे में हाथियों को खतरा ही है। ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे मानव आबादी बढ़ेगी, मानव-हाथी संघर्ष भी बढ़ता जाएगा। इसलिए ज़रूरी है कि समय रहते सरकार हाथियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए।