क्या बचेंगी उत्तराखंड की परंपरागत फसलें

उत्तराखंड की 30 तरह की फसलें प्रभावित हो गई हैं। या कहें समाप्ति के कगार पर हैं।

देहरादून के वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने एक सर्वेक्षण में पाया कि पिथौरागढ़ जिले में पिछले एक दशक में 30 पारंपरिक फसलें प्रभावित हो चुकी हैं। इसका मुख्य कारण है- मौसम परिवर्तन से पलायन तेजी से हुआ, और उसका सीधा असर इन तीस फसलों पर पड़ा है। जिसका उत्पादन समाप्ति की ओर है।

अध्ययन से यह भी पता चला कि खेती करने वाली भूमि का 19 फीसदी उपयोग घटा है। पूरे पिथौरागढ़ जिले की 28 फीसदी खेती योग्य भूमि 10 वर्षों में घटी है।

देखा गया कि 70 फीसदी किसानों ने स्थानीय भाषा में कौणी कही जानेवाली फसल को बोना भूल चुके हंै। कौणी की फसल पूरे प्रदेश में सामान्य बर्षात होने पर भी खूब पैदा होती थी। इसी तरह 27 फीसदी किसानों ने अलसी और  26 फीसदी कृषकों ने मंडुआ को बोना छोड़ दिया है। यह अध्ययन चार ब्लाकों के 31 गांवों के सर्वे से सामने आया है।

किसानों की सोच है कि इन पारंपरिक फसलों को पैदा करना घाटे का सौदा है। क्योंकि लोगों का इन फसलों से अब परिचय समय के साथ नहीं हो पा रहा है। ये फसलें अब व्यापारिक स्तर पर फायदा नहीं दे पा रही हैं। मौसम बदलना इसका मुख्य कारण रहा है, जैसे समय पर बारिश नहीे होना, और बारिश अगर होती भी है तो वह खेती के लिए पर्याप्त नहीं होती। इसी तरह बर्फबारी भी सामान्य से कम होती है। इन कारणों से फसलों का उत्पादन घटा। किसानों को अपना मेहनताना भी नहीं मिल पा रहा था। इस कारण उन स्थानों से रोजी रोटी की व्यवस्था में लोग पलायन कर गये हैं और अभी कर रहे हैं। इन एक दो दशकों में तो बहुत सारे गांव सूने पड़ गये है। लोगों के घरों में ताले लग गये हैं। मिट्टी और लकड़ी के बने घर उजाड़ हो गये हैं। उन घरों का कोई रखवाला भी नहीं रहा है। लोग अपने बच्चों सहित शहरों की ओर कूच कर गये हैं। उन्हें अब इस बात की चिंतां रहती है कि वे अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा अच्छे प्राइबेट स्कूलों में करायें, ताकि उनका भविष्य उज्ज्वल हो सके।

पहाड़ों के प्रइमरी स्कूलों की शिक्षा का स्तर अब बहुत गिर चुका है। किसी जमाने में पुराने तरीकों से पढाई करने में उनकी गणित मजबूत होती थी। 20 तक के पहाड़े बच्चों को कंठस्थ होते थे। उन्हें किसी कैल्कुलेटर की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन अब पढ़ाई के स्तर में आये बदलाव से सरकारी स्कूलों के अध्यापकों के लिए ऐसे कोई रिफ्रेशर कोर्स नहीं हैं, जिससे वे बच्चों को सही तालीम की ओर रुझान पैदा करवा सकें। बच्चों की पढाई भी मां-बाप की चिंता का विषय है इसलिए पहले की तरह पत्नियों को घर पर गांव में छोडऩे का रिवाज भी समाप्त हो गया है। इसके कारण गांव की चहल पहल भी जाती रही।

फसलों की पैदावार में मौसम की मार से आई गिरावट ने लोगों को घर छोडऩे के लिए मजबूर कर रखा है।

इसमें सबसे बड़ा कारण सरकारी व्यवस्था में आई निरंतर नीतियों के अभाव में पहाड़ हर तरह से नंगे हो रहे हैं। मौसम की लुका छिपी से वर्ष भर का अन्न न मिल पाना, और पशुओं के लिए चारे का अभाव होना है। पशुओं के अभाव से खेती के लिए कंपोस्ट खाद भी समाप्त हो गई है। एक दशक पहले भी हर घर के पास एक या दो भैंसे और जिनके पास भैंसे नहीं होती थी, वे गाय को पालते थे। पर्याप्त मात्रा में हर घर के पास दूध होता था। बाहर से खरीदने की ज़रूरत नहीं होती थी। आज इन सबके अभाव से पहाड़ के गांव भी खेतों की तरह बंजर हो रखे हैं। हर परिवार में गाय भैंस के अलावा भेड़ें भी होती थीं जिससे हर घर में कुटीर उद्योग के तौर पर कताई की तकली भी दिखती थी, वे अपनी मेहनत के बल पर कंबल, पश्मिना आदि भी बुनवा लेते थे। एक नेट वर्क था, जिसका फैलाव पूरे क्षेत्र में था। बुनकर से लेकर कुम्हार तक अपने कामों में व्यस्त रह कर एक दूसरे के पूरक थे।

पहाड़ का यह सह जीवन टूट गया है। हमारे नेताओं की सोच में वह ठोस बुनियादी योजना नहीं दिख रही है। अभी भी समय है कि वे अपने उन राजनीतिक पार्टी घोसलों से बाहर आ कर उस क्षेत्र की रक्षा में हाथ बंटायें न कि सीमित अपने स्वार्थ में लिप्त रहें। समाज का यदि भला करना है तो मिल जुल कर इस बंजर होती भूमि को उपजाऊ बनाने का प्रयास करें।

इसके लिए मुख्य कार्य है कि जमीन को पानी देने की कोशिश करें। पानी के निरंतर उस बहाव को रोक कर खेतों की ओर मोड़ें। यह हो सकता है। जैसे टिहरी के पर्वतीय क्ष्ेात्र में टिहरी बांध के पानी को लिफ्टिंग के जरिये खेतों को सिंचित करने की तरकीब निकाली जा सकती है। पहाड़ों तक मोटरों के जरिए पानी पहुंचाया जा सकता है। जब आपके पास पर्याप्त पावर है, तब क्यों न उसका उपयोग खेतों को फसलों से लहराने के लिए किया जा सकता है।

यह मैं सिर्फ टिहरी की ही बात नहीं कर रहा हूं। पूरे पर्वतीय क्षेत्र में नाले और झरने हैं उनके बहते हुए पानी को रोक कर उपयोग में लाया जा सकता है।

अब प्रश्न उठता है कि किसी भी प्रादेशिक और केंद्रीय सरकार ने कोई ठोस नीति किसी क्षेत्र विशेष के लिए नहीं बनाई है। खाली चुनावी स्टंट से विकास नहीं हो सकता।

इसी तरह से मानसून का समय पर न आना और आता भी है तो जमीन उससे पूरी तरह सिंचित नहीं पाती। इस वजह से किसानों ने खिन्न हो कर इन फसलों से नाता ही तोड़ दिया है।

पिथौरागढ़ जिले की सीमाएं दो देशों नेपाल और चीन से लगी है। यहां की कृषि बर्षा होने पर ही निर्भर करती है।

इस कारण इस क्षेत्र का युवा काम की तलाश में बाहर निकल रहा है, इसी वजह से गांवों में काम करने वालों की निरंतर कमी हो रही है। यही कारण पूरे उत्तराखंड का है जो पलायन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। दूसरी ओर जो बीज यहां के मौसम के हिसाब से उपजते थे उनको न बोने की वजह से पैदावार भी नहीं हो पा रही है।

एक और मुख्य कारण खेती के बदलाव में लोगों का खान पान की आदतों में बदलाव का आना है।

अनाज और दालों की पैदावार को दूसरे खद्यानों ने बदल दिया है। इसकी जगह चावल और गेहूं आज भोजन की आदतों में आ गया है, हालांकि यह पहले भी था, पर लोग अन्य फसलों को भी अपने नित भेाजन में तरजीह देते थे, वहां पैदा होने वाली फसलों का अपना महत्व था। इस कोशिश में मुख्य पारंपरिक फसलों का विस्थापन हो चुका है।

पहले की हिमालय क्षेत्र में रहने वाली पीढिय़ां विभिन्न प्रकार के अनाजों को पैदा करते थे और वे फसलें उनके जीवन को चलाने का जरिया होता था। वे चाव से उन स्थानीय उत्पादों को अपने भोजन का हिस्सा बनाते रहे हैं।

जैसे एक समय में पर्वतीय क्षेत्रों में मंडुवे की रोटी हर घर में खाई जाती थी, वह धीरे-धीरे स्थानीय लोगों की डाइट से बाहर निकलती जा रही है। जबकि पौष्टिकता में वह अन्य अनाजों से बेहतर भोजन था। इस कारण बहुत सारी फसलें जो पहाड़ों में उगती थी समाप्त होती जा रही है। यहां तक कि जब किसी के घर में कोई मेहमान आता था तो उसे मंडुवा और झंगोरा नहीं खिलाया जाता था। क्योंकि इसे मोटे अनाज के तौर पर माना जाता था। लोग शर्म करते थे इसे अपने मेहमानों को परोशने में। आज यही मोटा अनाज वैज्ञानिक विश्लेषणों में सबसे पौष्टिक भोजन है।

बीजों को संरक्षण देने के लिए ‘नवदान्या बायोडायवरसिटी कंजरवेशन फार्मÓ को विकसित किया गया है। यह हिमालय और शिवालिक रेंज में गंगा और यमुना नदियों के बीच 47 एकड़ की भूमि पर विकसित किया गया है। इस क्षेत्र में 1500 प्रकार के बीजों को संरक्षित किया जा रहा है। यहां पर और जीवों को भी जीवनदान मिल रहा है। जैसे मधुमक्खियां, पक्षी, इंसेक्टस यानि कीट और अन्य माइक्रोजीव हैं।

इस नवदान्या फार्म की शुरुआत 1995 में की गई, उस वक्त मिट्टी एकदम उपजाऊ नहीं थी। भूमि बंजर हो गई थी। क्योंकि सफेदे के पेड़ों ने जमीन को खेती योग्य नहीं छोड़ा था। ऐसे ही गन्ने की खेती करने के बाद भूमि की सारी उर्वरता समाप्त हो गई थी। तब से मिट्टी को उर्वरक बनाने के प्रयास चलते रहे। इस प्रयास के फलस्वरूप धान की 690 किस्में जो बढ़ ही रही हैं, विकसित की जा चुकी हैं। इसी तरह 200 प्रकार के गेहूं, 60 प्रकार का ज्वार और बाजरा, मसूर, सब्जियां, तेल निकालने वाले बीज और मिर्च और कई चीजों को संरक्षित किया गया है।

इस स्थान पर खेती करने के तरीकों पर भी सिखाया जा रहा है। इनका सबसे सराहनीय प्रयास नष्ट होते बीजों की नस्ल को फिर से खेती योग्य बनाने का है।

उत्तराखंड के पास 2011 की जनगणना के अनुसार कुल भूमि 53 लाख हेक्टियर है। इसमें से 93 फीसदी पहाड़ी क्षेत्र है और 64 फीसदी भू भाग जंगलों से ढ़का है और एक करोड़ से अधिक की जनसंख्या है। यहां जनसंख्या के घनत्व में एक वर्ग किलो मीटर में 189 लोग रहते हैं। 2001 से 2011 के दशक में 19.17 फीसदी जनसंख्या में इजाफा हुआ है। उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में कृषि का विशेष स्थान रहा है। किसी समय में देहरादून की बास्मति चावल का अपना ही स्थान था। गेहूं, सोयाबीन, मूंगफली और दालें, अनाज यहां खूब उगते थे। तेल निकालने वालें बीजों में तिल और सरसों काफी मात्रा में उगाया जाता था। स्थानीय भाषा में तिल के तेल को मीठा तेल और सरसों के तेल को कड़ुवा तेल से पुकारा जाता है।

उत्तराखंड में कई धान की प्रजाति ऐसी हैं जिसे सिर्फ कम पानी यानी बरसार के पानी पर ही पैदा कर लेते हैं। उसे अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती। उसे स्थानीय भाषा में उखड़ी चावल के नाम से जाना जाता है। एक अनाज है-चिंणा, इसकी पैदावार भी कहीं खो गई है। इसको भून कर बुखणा बनाया जाता था। स्थानीय भाषा में चिंणा के बीजों को भून कर उसे कूट कर भुने दाने को बुखणा कहा जाता है। इन भुने दानों को वर्ष भर रखा जा सकता है। और उसको चबाने में विशेष स्वाद आता है। ऐसी सारी परंपरायें लुप्त हो रही हैं।