क्या फिर सडक़ पर उतरेंगे किसान?

कृषि क़ानून वापस लेने के दौरान 50 दिन में किसानों की बाक़ी सभी माँगें पूरी करने के वादे को भूली केंद्र सरकार, नाराज़ किसान फिर कर सकते हैं आन्दोलन

देश के तमाम किसान संगठनों द्वारा तीन कृषि क़ानूनों को तत्काल रद्द करने को लेकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक साल से ज़्यादा चले आन्दोलन को रोकने के लिए 19 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने ऐलान किया था कि केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानून वापस ले रही है। उस दौरान देश और किसानों से माफ़ी माँगते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों से आन्दोलन ख़त्म करने और अपने-अपने घर लौट जाने की अपील की थी। हालाँकि किसानों ने आन्दोलन को पूरी तरह से ख़त्म करने से इन्कार करते हुए संसद में क़ानून रद्द करने के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर क़ानून बनाने, आन्दोलन के दौरान शहीद किसानों के परिजनों को मुआवज़ा देने व उनके किसी परिजन को सरकारी नौकरी देने, किसानों पर से मुक़दमे वापस लेने जैसी माँगें रखी थीं, जिन्हें केंद्र सरकार ने मान लिया था।

फिर से क्यों नाराज़ हुए किसान?

केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर क़ानून लाने के लिए समिति गठित करने की बात कही थी। यह सब 50 दिन में पूरा करने का केंद्र सरकार का वादा था। लेकिन क़रीब दो महीने से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी मोदी सरकार के किसानों की माँगे पूरी नहीं करने पर किसान एक बार फिर आन्दोलन का मन बना रहे हैं। उनका कहना है कि 50 दिन में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने के लिए बनायी जाने वाली समिति अभी तक सरकार ने नहीं बनायी है और सरकार किसानों के साथ एक तरह-से आँख-मिचौली का खेल खेलने में लगी है। किसानों ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर उनकी माँगें सरकार ने जल्द नहीं मानीं, तो वे 11 मार्च से देश भर में फिर आन्दोलन छेड़ देंगे।

बता दें कि 11 मार्च का दिन वह दिन होगा, जब पाँच राज्यों में नयी राज्य सरकारों का गठन हो रहा होगा और यह भी पता चल चुका होगा कि किस राज्य में किसकी जीत हुई? भाजपा, जिसकी नीतियों के ख़िलाफ़ किसान लगातार सडक़ों पर रहे हैं; उसकी किन-किन राज्यों में सरकार बनी या नहीं बनी।

कुछ जानकार कहते हैं कि अगर 11 मार्च से दोबारा किसानों का आन्दोलन शुरू हुआ, तो यह भाजपा के ख़िलाफ़ ताबूत में एक ऐसी कील साबित हो सकता है, जिसके चलते केंद्र की सत्ता का ताज ही उससे छिन सकता है। बता दें कि सरकार ने किसानों की ज़िद और चुनावों में हार के डर के चलते उनकी तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करने की माँग पूरी करते हुए यह आश्वासन दिया था कि वह उनकी सभी माँगों को जल्द पूरा करेगी। इसी दौरान उसने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी के लिए समिति के गठन का भी आश्वासन दिया था और कहा था कि वह यह काम 50 दिन में पूरा कर देगी। लेकिन आन्दोलन को ख़त्म हुए 31 जनवरी को ही 50 दिन बीत गये थे। इसी के चलते किसानों ने इस साल 31 जनवरी को विश्वासघात दिवस के रूप में मनाया और देश की तहसीलों में राष्ट्रपति के नाम सरकार द्वारा वादाख़िलाफ़ी करने और उसे उसका कर्तव्य याद दिलाने के लिए ज़ोर देने को लेकर ज्ञापन दिये। किसान आन्दोलन स्थगित करते समय किसानों ने यह साफ़ कहा था कि अगर किसानों की सभी माँगें जल्द ही नहीं मानी गयीं, तो उन्हें आन्दोलन के लिए फिर उतरना पड़ेगा, जिसके लिए उन्हें देर नहीं लगेगी।

कृषि क़ानूनों को वापस लेने और किसानों की बाक़ी माँगों को पूरा करने के केंद्र की मोदी सरकार के वादे के बाद किसान एक बार को शान्त हो गये थे। लेकिन अब एक बार फिर मोदी सरकार की वादाख़िलाफ़ी से किसान नाराज़ हो उठे हैं। हरियाणा के किसान प्रवीण का कहना है कि यह पहली केंद्र की सरकार है, जो किसानों की इस क़दर अनदेखी कर रही है। अगर इसे स्वार्थी और ख़ुद का ही भला करने वाली सरकार कहें, तो यह ग़लत नहीं होगा। कृषि क़ानूनों को जबरन थोपने की कोशिश में नाकाम रही भाजपा की इस सरकार की मंशा किसानों की आय दोगुनी करने की कभी नहीं रही, बल्कि हमें तो लगता है कि यह किसानों की आय आधी और आधी से भी आधी करने पर तुली है, जिसमें देश का किसान इसे कभी कामयाब नहीं होने देगा। आज किसानों की औसत आय 27 रुपये प्रतिदिन है। क्या कोई मंत्री इतने कम पैसे में अपना गुज़ारा कर सकता है? ख़ुद प्रधानमंत्री लाखों के सूट पहनते हैं और करोड़ों रुपये अपने ऊपर ही ख़र्च करते रहते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि हम किसान अगर भूखों का पेट भरना जानते हैं, तो अपने खेत और अपने देश की हिफ़ाज़त करना भी जानते हैं।

कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ एक साल से ज़्यादा समय तक आन्दोलन की अगुवाई करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा ने 31 जनवरी को ही चेतावनी देते हुए कहा था कि सरकार ने किसानों के साथ विश्वासघात किया है। संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा कि यदि सरकार कृषि क़ानून रद्द करने के दौरान किसानों से किये गये अपने वादों को जल्द पूरा नहीं करती है, तो वो दोबारा आन्दोलन करने को मजबूर होंगे।

मोर्चा का कहना है कि सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एक समिति गठित करने और प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ मामलों को वापस लेने सहित किसानों से किये गये किसी भी वादे को अभी तक पूरा नहीं किया है, जिससे साफ़ है कि मोदी सरकार की नीयत में खोट है। एक तरह से किसान एक मौक़ा और देते हुए मोदी सरकार को 10 मार्च तक का समय दे रहे हैं। अगर इस समय के अन्दर सरकार अपने वादों पूरे नहीं करेगी, तो किसान 11 मार्च से फिर से आन्दोलन शुरू करेंगे; क्योंकि उनके पास इसके अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं होगा। एक किसान धर्मेश सिंह ने कहा कि केंद्र की मोदी सरकार किसानों के साथ विश्वासघात कर रही है। इसलिए किसानों ने 31 जनवरी को विश्वासघात दिवस मनाया। उन्होंने कहा कि यह वही सरकार है, जिसने जनता से किया एक भी वादा पूरा नहीं किया है। ऐसी सरकार बातों से नहीं मानेगी, यह बात किसानों, ग़रीबों को तो समझ में आ गयी है और देश के बाक़ी लोगों को भी समझनी होगी।

ग़ौरतलब है कि दिसंबर ख़त्म होते-होते मीडिया के एक सवाल पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा था कि न ही किसान कहीं गये हैं और न सरकार कहीं गयी है। 15 जनवरी को किसानों की बैठक है। आन्दोलन अभी सिर्फ़ स्थगित हुआ है, जो किसान गये हैं, वे चार महीने की छुट्टी पर गये हैं। लेकिन इस बार किसान आन्दोलन शुरू हुआ, तो लम्बा चलेगा। सरकार की वादाख़िलाफ़ी के बाद टिकैत ने किसानों से भाजपा के ख़िलाफ़ वोट की चोट की अपील की। बता दें कि राकेश टिकैट लगातार भाजपा सरकार पर हमलावर हैं और सरकार की वादाख़िलाफ़ी को लेकर काफ़ी नाराज़ हैं। इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी बिजनौर नहीं गये।

कृषि बजट का लब्बोलुआब

इधर केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए बजट अच्छा पेश नहीं किया है, जिससे किसान और भी $ख$फा दिख रहे हैं। पूरे कृषि बजट पर अगर नज़र डालें, तो पता चलता है कि कुल मिलाकर बजट अच्छा नहीं है। वित्त वर्ष 2021-22 के मुक़ाबले समूचा तो कुछ ज़्यादा दिख रहा है; लेकिन जब अलग-अलग करके देखें, तो यह बहुत ख़राब है। मसलन, कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग के लिए पिछले वित्त वर्ष में भी 8,513.62 करोड़ रुपये का प्रावधान था और इस बार भी इसे उतना ही रखा गया है। फ़सल विज्ञान पर 2021-22 की अपेक्षा 2022-23 का बजट 120.72 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गयी है। यानी फ़सल विज्ञान का बजट 14.35 फ़ीसदी कम कर दिया गया है। इसी तरह कृषि शिक्षा बजट में भी 97.52 करोड़ रुपये की कटौती इस बार की गयी है। पशु विज्ञान के बजट को भी घटाकर 56.7 करोड़ रुपये कम कर दिये गये हैं। प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन के लिए भी 29.23 करोड़ रुपये की कटौती इस बार की गयी है। एग्रीकल्चरल एक्सटेंशन के बजट में भी 14 फ़ीसदी यानी 40.28 करोड़ रुपये की कटौती की गयी है। राकेश टिकैत ने इस बजट को लेकर कहा कि अमृत महोत्सव, गतिशक्ति जैसे शब्दों का कोई मतलब नहीं है। सरकार का 2022-23 का बजट महज़ शब्दों का जाल है। हक़ीक़त में इसमें कृषि में पूँजीगत निवेश के लिए कुछ नहीं है। पहले ही बजट जितना दिखाया जाता है, उतना फ़ायदा उन्हें नहीं होता, जिनके लिए बजट बनता है। राकेश टिकैत ने उत्तर प्रदेश के मतदाताओं से भाजपा को वोट न देने की अपील भी की।

फ़िलहाल संयुक्त किसान मोर्चा अपने मिशन उत्तर प्रदेश को जारी रखते हुए भाजपा को सबक़ सिखाने और हराने की मुहिम पर पूरे राज्य में अभियान चला रहा है। किसान नेताओं के मुताबिक, क्योंकि उत्तर प्रदेश में किसानों के ऊपर से आन्दोलन के दौरान दर्ज किये गये मुक़दमे वापस नहीं लिये गये हैं। जबकि पंजाब, हिमाचल और उत्तराखण्ड में मुक़दमों को वापस ले लिया गया है। कुछ जानकार ऐसा अनुमान जता रहे हैं कि अब अगर केंद्र सरकार ने किसानों की माँगें जल्द पूरी नहीं कीं, तो 11 मार्च से एक बार फिर किसान खेतों-घरों से निकलकर सडक़ों पर होंगे और इस बर जब तक सरकार उनकी माँगों को पूरा नहीं कर देगी, वे घर नहीं लौटेंगे। मेरे ख़याल से सरकार को अपने वादे पर उन्हें विचार करते हुए उनको जल्द पूरा करने की प्रक्रिया में तेज़ी लानी चाहिए, ताकि किसानों को सडक़ों पर दोबारा न उतरना पड़े। क्योंकि इस प्रकार के आन्दोलनों से किसानों के अलावा पूरे देश को बड़ा आर्थिक और सामाजिक नुक़सान होता है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)