क्या केंद्रीय सुरक्षाबलों की मौजूदगी से चिंतित है ममता?

चौथे चरण के मतदान तक पश्चिम बंगाल में में 18 संसदीय सीटों पर वोटिंग पूरी हो चुकी है। मुर्शिदाबाद में एक हत्या को छोड़ राज्य में हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं हुई। पिछले कई चुनावों की तुलना में इस बार बंगाल में कम रक्तपात हुआ है। निश्चित रूप से इसका श्रेय चुनाव आयोग और केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों को जाता है।

जबकि इसी बंगाल में पिछले वर्ष ग्राम-पंचायतों के चुनाव में 100 से ज्यादा लोगों की हत्याएं हुईं थी। ज्यादातर हत्याएं राज्य में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं की हुई थी। ग्राम-पंचायतों के चुनावों में खौफ का आलम इस कदर था कि कांग्रेस, भाजपा और सीपीएम के उम्मीदवारों ने तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों के खिलाफ पर्चा तक दाखिल नहीं किया। इस तरह दक्षिण बंगाल में तकरीबन 15 फीसद सीटों पर तृणमूल प्रत्याशी निर्विरोध जीत गए।

केंद्रीय वाहिनी से क्यों खफा हैं ममता

2014 के लोकसभा और 2016 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले बंगाल इस बार काफी हद तक मतदाता भयमुक्त हैं। बीते चार चरणों के चुनावों में केंद्रीय अर्द्ध सैनिक बलों ने उपद्रवियों के मंसूबों को नाकाम गया है। वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आरोप है कि केंद्रीय सुरक्षाबलों के जवान उनके समर्थकों को डराते-धमकाते हैं। अपने चुनावी रैलियों में भी मुख्यमंत्री बनर्जी बार-बार दोहरा चुकी हैं ‘अमार केंद्रीय वाहिनी के कौनो भोय लागछे ना’ ( मुझे केंद्रीय बलों को कोई भय नहीं है। चुनाव कार्यों में लगे सुरक्षाबलों पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आरोप बेबुनियाद है। शायद उन्हें बखूबी याद होगा,जब राज्य में वामफ्रंट का शासन था तब ममता बनर्जी केंद्रीय सुरक्षाबलों की निगहबानी में चुनाव कराने के लिए धरने पर भी बैठी थी। साम्यवादी हिंसा के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली ममता आज हिंसा की राजनीति को मान्यता दे रही हैं। उनका यह रवैया वाकई हैरान करने वाला है।

कम मतदान होने से चिंतित ममता

सत्रहवीं लोकसभा के लिए चार चरणों के मतदान पूरे हो गए। पश्चिम बंगाल में देश के बाकी राज्यों के मुकाबले मतदान प्रतिशत ज्य़ादा है। लेकिन, आपको जानकर हैरानी होगी कि 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार बंगाल में मतदान प्रतिशत में कमी आई है। 11 अप्रैल को राज्य के कूचबिहार और अलीपुरद्वार लोकसभा सीटों पर वोटिंग हुई थी। जहां पिछले चुनाव के मुकाबले चार फीसद कम वोटिंग हुई थी। दूसरे और तीसरे चरण में क्रमश: तीन और पांच संसदीय सीटों पर मतदान हुए,यहां भी पिछले चुनाव के मुकाबले तीन-चार फीसद कम वोट पड़े। कल यानी 29 अप्रैल को बंगाल की आठ सीटों पर वोट मतदान हुए। पिछली बार यहां 83.3 फीसद मत पड़े थे, लेकिन इस बार 76.72 फीसद मत पड़े। चुनावी विश्लेषक मानते हैं कि अधिक मतदान होने से सत्ताधारी दल को नुकसान होता है। इस लिहाज से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मुत्तमईन रहना चाहिए,जबकि वे चिंतित नजर आ रही है। उनकी चिंता की वजह है बंगाल में वोगस वोटिंग पर प्रभावी अंकुश लगना और यह संभव हुआ है केंद्रीय सुरक्षाबलों की अतिरिक्त तैनाती की वजह से।

मतदान कर्मियों ने मांगी थी सुरक्षा

पंचायत चुनाव में हिंसा से सहमे मतदान कर्मियो ने इस बार फैसला किया कि जिन मतदान केंद्रों पर पर्याप्त अर्द्धसैनिक बल नहीं होंगे,वहां वे चुनाव ड्यूटी में हिस्सा नहीं लेंगे। उनकी मांग का समर्थन बंगाल की सभी विपक्षी पार्टियों ने भी किया था। पिछले साल पंचायत चुनाव के दौरान उत्तर दिनाजपुर जिले में एक मतदान अधिकारी की हत्या कर दी गई थी। उल्लेखनीय है कि इस बार पश्चिम बंगाल में पिछले कई चुनावों के मुकाबले केंद्रीय सुरक्षाबलों की अतिरिक्त कंपनियां तैनात हैं। साथ ही चुनाव आयोग ने ऐसे कई जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों का तबादला किया जिनके उपर सत्ताधारी दल को परोक्ष रूप से मदद पहुचाने के आरोप लगे थे।

आगामी तीन चरणों की चुनौती

पश्चिम बंगाल में अगले तीन चरणों में राज्य की शेष 24 सीटों के लिए मतदान होने हैं। ऐसे में चुनाव आयोग और अर्द्धसैनिक बलों के समक्ष 12 मई को होने वाले मतदान में (छठे चरण) चुनौतियां बड़ी हैं। इसके तहत प्रदेश की आठ लोकसभा सीटों पर मतदान होंगे, जिनमें तामलुक संसदीय सीट अंतर्गत नंदीग्राम, पूर्वी मिदनापुर जिले के कांथी, पुरुलिया, मेदिनीपुर, झारग्राम, बांकुड़ा और घाटल क्षेत्र बेहद संवेदनशील हैं। ग्राम-पंचायतों के चुनाव में सबसे ज्यादा खूनी संघर्ष व हत्याएं इन्हीं क्षेत्रों में हुई थी। पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम में केंद्रीय बलों को ज्यादा सतर्कता बरतने की जरूरत है। सियासी रंजिश का आलम यह है कि यहां सत्ताधारी टीएमसी के अलावा किसी दूसरे-दलों का कोई पर्चा-पोस्टर आपको नहीं दिखेगा। इसी महीने की छह तारीख को बारह वर्षों बाद नंदीग्राम में सीपीएम का दफ्तर खोला गया। लेकिन अगले ही दिन तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने पार्टी कार्यालय को काले झंडों से पाट दिया। वर्ष 2007 में भूमि अधिग्रहण विरोधी हिंसा में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सीपीएम कार्यालय को आग के हवाले कर दिया था। सामाजिक कार्यकर्ता अमिताभ चक्रवर्ती के मुताबिक,बंगाल में हिंसा की जो राजनीति वामफ्रंट ने शुरू की थी,उसी रास्ते पर आज तृणमूल कांग्रेस है। नंदीग्राम में जिस तरह का खौफ आज देखा जा रहा है,वैसी ही दहशत कभी सीपीएम सरकार के समय थी।

हिंसा की राजनीति ‘शेर की सवारी’ जैसा

हिंसा के जरिए सत्ता प्राप्त करना ‘शेर की सवारी’ जैसा है। पश्चिम बंगाल में वामफ्रंट की सरकार ने इस यथार्थ को भोगा है। लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि बंगाल में वाम हिंसा के खिलाफ ममता बनर्जी ने एक मुहिम चलाई। लेकिन सत्ता मिलने के बाद हिंसा की मुखालफत करने की बजाय उसे शह दे रही हैं। उन्नीस वर्षों से पड़ोसी राज्य ओडिशा में भी बीजू जनता दल की सरकार है। जाहिर है उसे भी अपनी सत्ता कायम रखने का हक है,लेकिन सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं ने हिंसा का सहारा नहीं लिया। कल चौथे चरण के साथ ही ओडिशा में लोकसभा की 21 और विधानसभा की 146 सीटों पर मतदान पूरा हो गया। लेकिन राज्य में हिंसा की कोई बड़ी घटनाएं नहीं हुईं। आज जब चुनाव आयोग की सूझबूझ और केंद्रीय सुरक्षाबलों की चैकस निगहबानी में बंगाल में जारी लोकसभा चुनाव हिंसक घटनाओं से महफूज है तो इसमें तृणमूल सरकार को भला परेशानी क्यों हो रही है। क्या खुद ममता बनर्जी नहीं चाहती कि हिंसा से अलग राज्य की एक अच्छी छवि बननी चाहिए?