क्या अरविंद बनाम शीला में अरविंद की हार तय है?

आम आदमी पार्टी के जरिए उसके संयोजक अरविंद केजरीवाल अच्छा काम कर रहे हैं. उनकी नीयत अच्छी है. इससे राजनीति की सफाई हो सकती है. केजरीवाल के विरोधियों को छोड़ दें तो उनके और उनकी पार्टी के बारे में दिल्ली की एक बहुत बड़ी जनसंख्या की राय यही है. वह मानती है कि केजरीवाल की कोशिश अच्छी है और उन्हें एक मौका मिलना चाहिए. इनमें से कई लोग कांग्रेस और भाजपा दोनों को गाली देते हुए भी दिखते हैं. लेकिन जैसे ही इस बातचीत को आगे बढ़ाते हुए आप नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में ले जाते हैं, एक अंतर्विरोध-सा सामने आने लगता है. यहां के लोगों के मन में भी केजरीवाल के लिए आदर का भाव तो नजर आता है लेकिन इसके बावजूद अरविंद के लिए इस सीट को निकालना कई कारणों से बेहद मुश्किल जान पड़ता है.

अन्ना हजारे की अगुवाई में जनलोकपाल को लेकर आंदोलन चलाने वाले केजरीवाल ने जब यह तय किया कि वे अब आगे की लड़ाई व्यवस्था के बाहर रहकर नहीं बल्कि उसमें शामिल होकर चुनावी राजनीति के जरिए लड़ेंगे और इसका पहला प्रयोग दिल्ली में होगा तो कई लोगों ने उन्हें कांग्रेस को फायदा पहुंचाने वाला कहा. आरोप लगाया गया कि दिल्ली में विपक्षी मतों में विभाजन करके अंततः केजरीवाल कांग्रेस की राह आसान करने का काम करने वाले हैं. लेकिन कांग्रेस और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ घोटालों के आरोपों की झड़ी लगाकर केजरीवाल ने यह साबित करने की कोशिश की कि कांग्रेस के साथ उनकी सांठगांठ के आरोपों में सच्चाई कम और कयासबाजी ज्यादा है. इसी क्रम में केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनावों के तकरीबन छह महीने पहले ही यह घोषणा कर दी कि शीला दीक्षित जहां से चुनाव लड़ेंगी वे खुद भी वहीं से चुनावी मैदान में उतरेंगे.

शीला दीक्षित गोल मार्केट सीट से चुनाव जीतती रही हैं. 1998 में उन्होंने यहां भाजपा नेता कीर्ति आजाद को 5,667 वोटों से हराया था. 2003 में शीला ने यहीं से कीर्ति आजाद की पत्नी और भाजपा उम्मीदवार पूनम आजाद को 12,935 वोटों से हराया. परिसीमन के बाद यह सीट नई दिल्ली हो गई है. नए परिसीमन के बाद इस सीट पर पहला चुनाव 2008 का था. उस चुनाव में दीक्षित ने इस सीट पर भाजपा के विजय जॉली को 13,982 मतों से परास्त किया था. इस बार भी इसी सीट से शीला दीक्षित चुनाव लड़ रही हैं और यहीं से केजरीवाल भी उन्हें चुनौती दे रहे हैं.

इस सीट पर हो रहे दिलचस्प मुकाबले और जमीनी माहौल के बारे में ठीक से जानने से पहले इस सीट से संबंधित कुछ अन्य बुनियादी बातों का जानना भी जरूरी है. नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में कुल मतदाताओं की संख्या 1.18 लाख है. इनमें से 60 फीसदी ऐसे हैं जो सरकारी कर्मचारी या उनके परिजन हैं. इस क्षेत्र में कई ऐसी बस्तियां हैं जिनमें दलित मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी है. अगर आंकड़ों में देखें तो नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में दलित मतदाता करीब 15 प्रतिशत हैं. अनुमान है कि इस विधानसभा क्षेत्र में अल्पसंख्यकों की संख्या भी तकरीबन 5,000 या चार फीसदी से थोड़ी ज्यादा है. इतनी ही संख्या वैसे लोगों की भी है जो झुग्गी बस्तियों में रहते हैं.

नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में घूमने और यहां के लोगों से बातचीत करने पर जो तस्वीर उभरती है वह कुछ अजीब-सी है. यहां लोग केजरीवाल के बारे में अच्छी राय तो रखते हैं लेकिन जब उनसे यह सवाल पूछा जाता है कि वे वोट किसे देंगे तो बड़े जटिल-से समीकरण हमारे सामने आ जाते हैं.

बासु सिंह रावत अपनी पत्नी सरला रावत के साथ इस क्षेत्र में लंबे समय से रह रहे हैं. बासु निजी क्षेत्र में काम करते हैं और सरला सरकारी कर्मचारी हैं. उनके साथ उनके भांजे महेश कुमार भी रहते हैं. महेश भी निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं. जब हम इस परिवार से पूछते हैं कि वह चुनाव में किसे वोट देगा तो इस परिवार के तीनों सदस्यों से जो जवाब मिलते हैं वे बिल्कुल ही अलग किस्म के होते हैं.

बासु कहते हैं, ‘केजरीवाल का पलड़ा भारी है इस इलाके में. लेकिन अभी कहना मुश्किल है कि कौन जीतेगा. भाजपा के भी काफी लोग हैं यहां. महंगाई वगैरह से भले लोग परेशान हों लेकिन शीला दीक्षित ने अपने क्षेत्र के लिए काफी काम किया है.’ सरला कहती हैं, ‘केजरीवाल की ईमानदारी पर किसी को संदेह नहीं है लेकिन वे जो बातें कर रहे हैं वे अव्यावहारिक हैं. वे कहते हैं कि जनलोकपाल सारी समस्याओं का समाधान है. लेकिन ये उन्हें भी मालूम होगा कि जनलोकपाल कोई जादू की छड़ी नहीं है. वे सरकारी कर्मचारियों की दिक्कतों पर कोई बात नहीं कर रहे हैं. उनके समर्थक भले ही झाड़ू लिए सड़कों पर दिख रहे हों लेकिन इस सीट पर तो कांग्रेस या भाजपा में से ही कोई एक जीतेगा.’ वहीं महेश पूरी तरह से केजरीवाल के पक्ष में दिखते हैं. वे कहते हैं, ‘भाजपा और कांग्रेस दोनों ने दिल्ली को बारी-बारी से लूटा है. ऐसे में केजरीवाल को एक मौका दिया जाना चाहिए. कम से कम यह आदमी उम्मीद तो जगा रहा है.’

एक ही परिवार के जिन तीन लोगों की बातें ऊपर दी गई हैं वे इस विधानसभा क्षेत्र के तीन वर्गों की नुमाइंदगी करते हैं. इनकी बातों पर अगर गौर किया जाए तो इनकी बातों के पीछे की बात साफ नजर आएगी. केजरीवाल के प्रति सम्मान के बावजूद सरकारी कर्मचारियों में केजरीवाल को लेकर एक तरह का भय है. उन्हें यह लगता है कि अगर वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए तो हर स्तर पर बदलाव करेंगे और इससे सबसे ज्यादा दिक्कत सरकारी कर्मचारियों को ही होगी. सरकारी कर्मचारियों को यह भय सताता है कि केजरीवाल व्यवस्था में जिस तरह के बदलाव की बात कर रहे हैं उसमें सबसे बड़े खलनायक के तौर पर सरकारी कर्मचारियों को पेश किया जाएगा और सरकारी कार्यालयों में कायम बाबूगीरी पर अंकुश लगेगा. यही भय नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में रहने वाले सरकारी कर्मचारियों को अरविंद केजरीवाल को वोट देने से रोक सकता है. वहीं दूसरी तरफ निजी क्षेत्र में काम करने वालों और नई पीढ़ी के लोगों को अरविंद केजरीवाल में उम्मीद की किरण दिखाई देती है. क्योंकि केजरीवाल जिस व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की बातें करते हैं उससे इसी वर्ग को सबसे ज्यादा परेशानी होती रही है.

मगर 60 फीसदी सरकारी कर्मचारियों के केजरीवाल में विश्वास न दिखाने जैसी आशंका के अलावा हाल ही में जो कुछ हुआ वह भी उनकी चिंता में कुछ वृद्धि कर सकता है. माना जा रहा था कि केजरीवाल के मैदान में उतरने की वजह से इस सीट पर मुकाबला उनके और शीला दीक्षित के बीच होगा. लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने विजेंद्र गुप्ता को यहां से चुनावी समर में उतारकर इस सीट के मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है. विजेंद्र गुप्ता हाल तक भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष थे. प्रदेश भाजपा में विजेंद्र गुप्ता का अपना एक कद है. उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता. माना जा रहा है कि शीला दीक्षित के खिलाफ एक मजबूत उम्मीदवार उतारने का फैसला भाजपा ने केजरीवाल के दबाव में ही किया है. क्योंकि केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी भाजपा पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि भाजपा, शीला दीक्षित के खिलाफ जान-बूझकर कमजोर उम्मीदवार खड़ा करती है. ऐसे में नई दिल्ली सीट पर विजेंद्र गुप्ता के आने से यहां मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है. शुरू-शुरू में जो बात केजरीवाल के बारे में कही जाती थी कि वे भाजपा के वोट काट कर दिल्ली में कांग्रेस की मदद करने वाले है अब वही बात विजेंद्र गुप्ता के बारे में कही जा सकती है. वे आप के वोट काट कर शीला दीक्षित की मदद करने का काम कर सकते हैं.

हालांकि, इस विधानसभा क्षेत्र की झुग्गी बस्तियों में केजरीवाल के पक्ष में माहौल दिखता है. बातचीत में लोग बताते हैं कि इस बार वे झाड़ू को ही जिताएंगे. आप की ओर से इन बस्तियों में चुनाव प्रचार का काम कर रहे सुरिंदर सिंह बताते हैं, ‘इधर पूरी तरह से आम आदमी पार्टी के पक्ष में माहौल है. हमें उम्मीद है कि अरविंद यहां से चुनाव जीतने में सफल होंगे. दलित बस्तियों से भी हमें काफी वोट मिलने वाले हैं.’

लेकिन झुग्गी बस्तियों में रहने वालों की संख्या इस इलाके में उतनी नहीं है और दलित बस्तियों को लेकर कांग्रेस के भी अपने दावे हैं. कांग्रेस को यकीन है कि इन इलाकों के लोग तो शीला दीक्षित को ही वोट देंगे. कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष चतर सिंह कहते हैं, ‘शीला दीक्षित ने आम लोगों के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं. इनमें अन्नश्री योजना और पेंशन योजना प्रमुख हैं. लोगों को इसका सीधा फायदा मिल रहा है. उन्हें लग रहा है कि यह सरकार उनके लिए काम कर रही है. जाहिर है कि ऐसे में वे उसी के साथ खड़े होंगे जो उनके लिए काम कर रहा हो.’

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कांग्रेस की ओर से इस विधानसभा क्षेत्र में जो चुनाव प्रचार हो रहा है उसमें इस क्षेत्र के काम के बजाय पूरी दिल्ली में शीला दीक्षित सरकार ने जो काम किए हैं, उन्हें प्रमुखता से बताया जा रहा है. खुद शीला दीक्षित ने नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र के सरोजिनी नगर में आयोजित एक सभा में अपने कार्यों को गिनाते हुए बताया कि उनकी सरकार ने दिल्ली में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर ऊंचा उठाने के लिए कई कदम उठाए हैं. मुख्यमंत्री ने सरकारी कर्मचारियों को अपने पाले में करने के मकसद से सातवें वेतन आयोग का मसला भी उठाया. उन्होंने कहा कि अगर सातवां वेतन आयोग आता है तो इससे सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवारों को काफी फायदा होगा.

इस विधानसभा क्षेत्र में घूमने के दौरान यहां सबसे अधिक सक्रियता आम आदमी पार्टी की ही दिखती है. इसी पार्टी के पास चुनाव प्रचार की एक स्पष्ट और नई रणनीति भी दिखती है. भाजपा और कांग्रेस का चुनाव प्रचार अभी यहां जोर नहीं पकड़ पाया है और इन दोनों दलों के नेताओं से बातचीत में यह भी पता चलता है कि वे पारंपरिक ढंग से ही चुनाव प्रचार करेंगे. दोनों प्रमुख दलों की मानें तो उनका चुनाव प्रचार तो नामांकन प्रक्रिया पूरा होने के बाद ही जोर पकड़ेगा. माना जा रहा है कि चुनाव के 15 दिन पहले से इस इलाके में काफी सियासी सरगर्मी दिखेगी.

इस विधानसभा क्षेत्र में आम आदमी पार्टी की तैयारियों के बारे में सुरिंदर सिंह कहते हैं, ‘पार्टी इस इलाके में हर 15-20 परिवारों पर एक स्थानीय प्रभारी बना रही है. हमारी योजना बड़ी संख्या में ऐसे प्रभारी बनाने की है. पार्टी इन प्रभारियों का इस्तेमाल पुल की तरह करेगी. जो भी सूचना क्षेत्र के आम लोगों तक पहुंचानी होगी, वह इनके जरिए ही पहुंचाई जाएगी. पार्टी या पार्टी से जुड़े किसी व्यक्ति के बारे में जो भी आम लोगों के संदेह होंगे, उन्हें दूर करने का काम भी ये प्रभारी करेंगे. इसके अलावा ये लोग पार्टी द्वारा बनाए गए महिला सुरक्षा बल के साथ भी समन्वय करके काम करेंगे और उसे जरूरी सहयोग देंगे. इन प्रभारियों के घरों के बाहर बोर्ड लगा रहेगा ताकि पार्टी से संबंधित कोई बात क्षेत्र के आम लोग इनसे सीधे पूछ सकें. इसके अलावा इन प्रभारियों को पार्टी की ओर से प्रचार सामग्री मुहैया कराई जा रही है. ये प्रभारी और उनके साथ पार्टी के कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को यह समझा रहे हैं कि उन्हें आप को क्यों वोट देना चाहिए और अरविंद केजरीवाल को क्यों नई दिल्ली से जिताना चाहिए.’

आम आदमी पार्टी की तैयारियों के आधार पर उसके नेता और कार्यकर्ता दावा करते हैं कि यहां शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल के बीच ही सीधा मुकाबला है. भाजपा प्रत्याशी विजेंद्र गुप्ता भी ठीक इसी अंदाज में आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की मौजूदगी को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘नई दिल्ली सीट पर केजरीवाल कोई फैक्टर नहीं हैं. यहां हमेशा से कांग्रेस और भाजपा का मुकाबला रहा है. इस बार भी ऐसा ही है.’ अपनी जीत पक्की मान रहे गुप्ता कहते हैं, ‘लोग प्रयोग के मूड में नहीं हैं. शीला दीक्षित के कामकाज से लोग त्रस्त हैं. लोग देख रहे हैं कि इस विधानसभा क्षेत्र में आने वाले कनॉट प्लेस की हालत मुख्यमंत्री ने क्या कर दी है. दिल्ली का दिल कहा जाने वाला कनॉट प्लेस आज गड्ढों से भरा हुआ है. महंगाई और बिजली की बढ़ी कीमतों ने आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया है. ऐसे में मुझे पूरा यकीन है कि नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र के लोग भाजपा के पक्ष में मतदान करेंगे.’

विजेंद्र गुप्ता के दावे कैसे भी हों लेकिन नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की समस्या यह है कि पिछले चार चुनावों में पार्टी चार अलग-अलग उम्मीदवारों के साथ मैदान में उतरी है. इनमें से भी सब ऐसे हैं जो इस विधानसभा क्षेत्र के नहीं है. विजेंद्र गुप्ता पर भी उनके विपक्षी बाहरी होने का आरोप लगा रहे हैं. गुप्ता रोहिणी के रहने वाले हैं और वे वहीं से टिकट भी चाहते थे. लेकिन पार्टी ने उन्हें शीला दीक्षित के खिलाफ उतारने का फैसला किया. बाहरी होने के आरोप को खारिज करते हुए गुप्ता कहते हैं, ‘मैं बाहरी नहीं हूं. यहां के लोगों ने देखा है कि मैंने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए शीला दीक्षित और उनकी सरकार के घोटालों को उजागर करने के लिए कितना काम किया है.’

इस सीट पर मुकाबला कर रही तीनों पार्टियों के अपने-अपने दावे हैं. हर पार्टी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त दिखाई देने की कोशिश करती है. चुनावी मौसम में ऐसा होना स्वाभाविक भी है. लेकिन जानकारों की मानें तो इस सीट पर जीत या हार का खास तौर पर शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल के लिए काफी महत्व है. ज्यादातर लोगों का यह मानना है कि अगर किसी वजह से शीला दीक्षित यह सीट हार गईं तो उनके राजनीतिक करियर पर पूर्ण विराम लग जाएगा. वहीं अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के लिए शीला दीक्षित को हराने से बड़ी कामयाबी कोई नहीं होगी. जानकारों की मानें तो यह एक जीत आम आदमी पार्टी को आगे बढ़ने के लिए एक साफ-सुथरा-पक्का रास्ता मुहैया कराने का काम कर सकती है. मगर यहां से हार जाने पर उसकी महत्वाकांक्षाओं को एक बड़ा झटका भी लग सकता है.

अरविंद केजरीवाल के लिए इस सीट की जीत-हार का मतलब समझाते हुए लंबे समय से दिल्ली की सियासत को देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार कुमार संजय सिंह कहते हैं, ‘कुछ लोग यह कह रहे हैं कि अगर केजरीवाल यहां से हार जाते हैं तो इससे उनकी पूरी मुहिम की हवा निकल जाएगी. लेकिन मेरी राय कुछ अलग है. केजरीवाल अगर चाहते तो किसी ऐसी सीट से लड़ सकते थे जहां से जीतना अपेक्षाकृत आसान होता. लेकिन उन्होंने शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला करके हिम्मत का परिचय दिया है. इसलिए अगर केजरीवाल कड़े मुकाबले में हारते भी हैं तो उनका कद बढ़ेगा ही.’

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