क्या अब बदलने वाली है बैडमिंटन की दुनिया?

विश्व बैडमिंटन फैडरेशन (बीडब्लयूएफ) ने अगले साल से सिंथेटिक कॉक को इस्तेमाल का फैसला कर लिया है। 2021 से विश्व की सभी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में इसी शटल कॉक का प्रयोग होगा। मौज़ूदा समय में सभी शटल कॉक बत्तख के परों से तैयार की जाती हैं।

फैडरेशन के अनुसार उन्होंने पिछले साल तीन के प्रतियोगिताओं में इन्हें आजमाया है। ये ‘शटल कॉक्स’ अधिक चलती हैं और बहुत किफायती पड़ती है। इसकी उड़ान और गति परों की शटल के समान ही होती है। शुरू में इस शटल कॉक का इस्तेमाल अनिवार्य नहीं किया जाएगा। मेजबान चाहें सिंथेटिक या रवायती परों वाली शटल कॉक का इस्तेमाल कर सकता है। पर यदि इस नयी शटल कॉक के साथ कोई तकनीकी समस्या खिलाडिय़ों को न हुई तो ज़्यादातर खिलाड़ी इसी का इस्तेमाल करेंगे।

यदि गौर किया जाए, तो पंखों की शटल कॉक्स की तुलना में सिंथेटिक शटल कॉक्स सस्ती हैं; इस वजह से इनका प्रचलन तेज़ी से बढऩे की उम्मीद है। वैसे भी आजकल अभ्यास के लिए आम खिलाड़ी ‘प्लास्टिक’ की शटल कॉक्स मेें भी इस्तेमाल करते हैं। कई छोटे टूर्नामेंट्स में भी प्लास्टिक शटल कॉक्स ही इस्तेमाल होता हैं। इन शटलस की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनकी गति और उड़ान पंखों वाली शटलकॉक्स से काफी अलग होती हैं। फिर जब इन खिलाडिय़ों को पंखों वाली शटल कॉक्स से खेलना पड़ता है तो ये उनके अनुरूप नहीं ढल पाते।

अब सिंथेटिक शटल कॉक्स आ रही हैं। इनके साथ खेलने में खिलाड़ी कैसे खुद को ढालेंगे यह तो अभी भविष्य की बात है; पर एक बात तो तय है कि खेल की अलग-अलग तकनीकों पर इनका खासा असर पड़ेगा। आज तक इस खेल में चीन, कोरिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, जापान और भारत का दबदबा रहा है। यूरोप में से डेनमार्क ही ऐसा देश है, जहाँ से कुछ अच्छे खिलाड़ी निकले हैं। बाकी स्पेन, ब्रिटेन, आदि देशों में भी बैडमिंटन खेला जाता है। आज की विश्व रैंकिंग को देखें तो पुरुषों में पहले 20 खिलाडिय़ों में से 18 एशियाई देशों के हैं और दो डेनमार्क के हैं।

एशियाई देशों में इतनी स्पर्धा है कि भारत, जापान, चीन और थाईलैंड के तीन-तीन खिलाड़ी टॉप 20 में हैं। ताईपे, हांगकांग और कोरिया के एक-एक खिलाड़ी इस ग्रुप में आता है। महिला वर्ग में टॉप 20 खिलाडिय़ों में 16 एशियाई हैं। इनमें चीन की पाँच जापान की चार, भारत और थाईलैंड की दो-दो और इंडोनेशिया, कोरिया और ताईपे की एक-एक खिलाड़ी है। इनके अलावा स्पेन, डेनमार्क, अमेरिका और कैनेडा की भी एक-एक खिलाड़ी टॉप 20 में है।

देखा गया है कि यूरोप के खिलाड़ी जिस खेल में पिछड़ते हैं, उसके नियमों में मूल बदलाव कर लेते हैं। हॉकी इसकी ज़िन्दा मिसाल है। जब दशकों तक जर्मनी, नीदरलैंड्स, आस्ट्रेलिया जैसे देश भारत और पाकिस्तान की ताकत का मुकाबला नहीं कर पाये, तो हॉकी के मैदान से लेकर उसके नियम तक बदल दिये और अभी बदले जा रहे हैं। इन नियमों में आये बदलाव के कारण हॉकी की वह कला खत्म हो गयी, जिसके लिए सह जानी जाती थी। यही वजह है कि 1986 के लंदन हॉकी विश्व कप के अंतिम स्थान के भारत-पाकिस्तान के मैच को देखने के लिए भी उतने ही दर्शक आये थे जितने फाइनल मैच को देखने आये थे। इस कारण एशियाई देशों में यह संदेह होना स्वाभाविक है कि कहीं शटल कॉक का यह बदलाव भी यूरोप के खिलाडिय़ों को लाभ देने के लिए तो नहीं किया गया। भारत के सम्मानित खिलाड़ी और सिंधू के प्रशिक्षक पूलेला गोपीचंद ने तो यह कहकर कि अभी उन्होंने सिंथेनिक शटल कॉक को देखा नहीं है; उसका इस्तेमाल नहीं किया है; इस पर कोई टिप्पणी करने से इन्कार कर दिया। लेकिन मलेशिया के ओलंपिक पदक विजेता और प्रमुख प्रशिक्षक राशिद सिदेक का कहना है कि उन्हें लगता है कि ये शटल कॉक एक खास प्रकार से खेलने वालों के लिए लाभदायक साबित होगी। उनका मानना है कि इसका उन खिलाडिय़ों को नुकसान होगा, जिनका खेल ‘स्ट्रोक्स’ पर निर्भर है। उन्हेें लगता है कि इन शटल कॉक्स के कारण बैडमिंटन अपनी पहचान खो देगा। उन्होंने यह भी कहा कि सिंथेटिक शटल कॉक्स की गति तेज़ होगी और इसे नियंत्रित करना बहुत कठिन होगा। उन्होंने यह भी कहा कि जिन खिलाडिय़ों ने नयी शटल कॉक्स के साथ खेला है, उनके विचार इनके लिए कोई बहुत अच्छे नहीं है। एक अन्य अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी जॉन क्वाय का कहना है कि इन नयी शटल कॉक्स से दर्शकों को वह आनंद नहीं आयेगा, जो बत्तख के पंखों की शटल्स से आता था। उनका मानना है कि इससे बैडमिंटन का खेल ‘आऊटडोर’ बैडमिंटन की तरह हो जाएगा। ठनकी राय अपनी जगह है, पर आर्थिक नज़र से यह शटल कॉक सस्ती हैं। परिदों के पंखों वाली शटल कॉक्स एक अंतर्राष्ट्रीय मैच में लगभग 24 लग जाती हैं। भारतीय रुपये बनती है कि नयी शटल्स की कीमत लगभग 2800 रुपये बनती है, जबकि नयी शटल कॉक्स से यह खर्च 2100 तक आ जाएगा। ये शटल कॉक्स अच्छी हैं या बुरी, यह तो समय ही बताएगा। लेकिन इनसे बैडमिंटन की दुनिया बदलने वाली है यह तो पूरी तरह तय ही है।

श्रद्धांजलि – अलविदा ‘बापू’

भारतीय क्रिकेट ने एक ऐसा सितारा खो दिया जिसे बापू नादकर्णी के नाम से जाना जाता है। इस खेल में सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलर, दलीप सर देसाई, प्रसन्ना, बेदी, धोनी, चंद्रशेखर, गांगुली, मंसूर अली खान पटौदी या विराट कोहली कितने भी रिकॉर्ड बना लें, लेकिन जो रिकॉर्ड बापू के नाम हैं वे अद्भुत हैं। बायें हाथ क इस स्पिन गेंदबाज़ ने मद्रास टेस्ट में 131 गेदों पर कोई रन नहीं दिया। लगातार 21 ओवर मेडल फेंकने का इनका रिकॉर्ड दुनिया में आज भी कायम हैं। उन्होंने यह कारनामा 12 जनवरी, 1964 को इंग्लैंड के के िखलाफ किया था। यहाँ उन्होंने 32 ओवर की अपनी गेंदबाज़ी में 27 मेडन फेंके थे। उन्होंने कुल पाँच रन ही दिये। आज के ज़माने में जब एक ओवर में पाँच देने को भी किफायती गेंदबाज़ी माना जाता है, तो 32 ओवर पाँच रन देने को क्या कहेंगे?

गेंदबाज़ी का यह जादूगर नेट पर अभ्यास के दौरान सिक्का रक्स कर उस पर गेेंदबाज़ी करता था। यही वजह है कि उनके टेस्ट जीवन की प्रति ओवर इकोनॉमी 1.67 रन प्रति ओवर रही। बापू ने अपने जीवन में 41 टेस्ट मैच खेले, 9165 गेंदों में 2559 रन दिये और 88 क्रिकेट झटके।

86 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले बापू गेंदबाज़ ही नहीं अपितु गज़ब के बल्लेबाज़ और क्षेत्ररक्षक भी थे। वह बल्ले के नज़दीक फील्डिंग करते थे। उनकी 1963-64 सीरिज़ में इंग्लैंड के िखलाफ कानपुर में खेली गयी 122 रनों की नाबाद पारी किस क्रिकेट प्रेमी को याद नहीं होगी। उनकी इन बल्लेबाज़ी की बदौलत भारत वह टेस्ट मैच बचा पाया था। 4 अप्रैल, 1933 को मुम्बई में जन्मे बापू ने सबसे पहले 1950-51 मेें पूणे विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। अगले ही साल वे महाराष्ट्र के लिए प्रथम श्रेणी क्रिकेट में आ गये। उन्होंने अपना पहला प्रथम श्रेणी शतक मुम्बई के िखलाफ बनाया। बेरबोर्न स्टेडियम में खेल गये इस मुकाबले में उन्होंने 103 रन की नाबाद पारी खेली और सदाशिव पारील के साथ अंतिम विकेट के लिए 100 रन से ज़्यादा रन जोड़े। भारतीय टीम में उन्हें उस समय स्थान मिला, जब 1955-56 में न्यूज़ीलैंड की टीम भारत दौरे पर थी और दिल्ली के िफरोज़घाट कोटला मैदान पर होने वाले टेस्ट से महान् वीनू मॉक्ड ने विश्राम ले लिया था। यहाँ बापू ने 68 रनों की नाबाद पारी खेली और 57 ओवर गेंदबाज़ी की, पर उन्हें कोई विकेट नहीं मिला। पर जब मॉक्ड वापस आये, तो बापू टीम से बाहर हो गये।

1964-65 में की सीरीज़ में बापू ने आस्ट्रेलिया के िखलाफ मद्रास में पहली पारी में 31 रन देकर पाँच विकेट और दूसरी में 91 रन देकर छ: विकेट लिये। इसी दौरान बिशन सिंह बेदी के आने से बापू के लिए कठिनाइयाँ पैदा हो गयीं। फिर भी उन्होंने 1967 में वेलिग्ंटन टेस्ट में न्यूज़ीलैंड के िखलाफ 43 रनों पर छ: विकेट लेकर भारत को जीत दिलवायी। इस दौरे वे बाद 34 साल की आयु में उन्होंने प्रथम श्रेणी क्रिकेट से संन्यास ले लिया। इसके बाद वे सहायक प्रबंधक भी रहे। वे सुनील गावस्कर के गुरु भी रहे। उनके देहांत पर गावस्कर ने कहा कि वे अक्सर करते थे- ‘छोड़ो मत।’ इसका अर्थ था- अंत तक जूझते रहो। आज यह महान् खिलाड़ी हमारे बीच नहीं है। लेकिन यह सभी क्रिकेट प्रेमियों की यादों में सदा जीवित रहेगा। ‘तहलका’ परिवार की ओर से इस महान् खिलाड़ी को विनम्र श्रद्धांजलि!