कौन लेगा बेघरों की सुध?

हमारे देश में सड़कों पर जीवन बिताने वालों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे लोगों की बड़ी तादाद हर राज्य और हर राज्य के हर जनपद में है। कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि यह सब लोग काम नहीं करना चाहते और भीख माँगने के चक्कर में या मुफ़्त की रोटियाँ तोडऩे के चक्कर में सड़कों के किनारे या ब्रिजों के नीचे पड़े रहते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग इस सोच के चलते बेघर हों, लेकिन बहुत-से लोगों की ऐसी नीयत नहीं होती। दरअसल ये समाज से कटे हुए तिरस्कृत लोग हैं। यह बात मेरी भी समझ में तब आयी, जब मैंने अहमदाबाद शहर के ईशनपुर ब्रिज के नीचे सड़क किनारे मैले-कुचैले कपड़ों में ठंड में ठिठुरते कुछ परिवारों को देखकर उनसे बातचीत की। ठंड में ब्रिजों के नीचे और शहर के दूसरे कई हिस्सों में ऐसे बहुत-से लोग मिल जाएँगे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि इन लोगों में से कई नशा आदि भी करते हैं और भीख माँगकर गुजारा करते हैं। लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं, जो मेहनत करते हैं, लेकिन उससे इतना पैसा नहीं कमा पाते कि ये रहने के लिए एक 4 वाई 6 का कच्चा कमरा भी बना सकें। हालाँकि कहा जाता है कि अगर जुनून हो, तो एक महागरीब आदमी भी दुनिया का सबसे अमीर आदमी बन सकता है। लेकिन उसके लिए कुछ कर गुज़रने की ललक होनी चाहिए, जो इन सड़क किनारे पड़े हुए लोगों में कहीं नहीं दिखती। यही वजह है कि झमाझम बारिश हो, तन जला देनी वाली गर्मी हो या फिर हाड़ कंपा देने वाली सर्दी, इन लोगों का जीवन खुली सड़कों के किनारे, चौराहों पर या किसी ब्रिज के नीचे ही कट जाता है और इनके बच्चे इसी जीवन को आगे ढोते रहते हैं।

बेघरों की पीड़ा

अहमदाबाद मेन शहर में ईशनपुर ब्रिज के नीचे और वहीं सड़क किनारे खुले में जीवन बिताते दर्ज़नों परिवारों से बातचीत पर पता चला कि यह लोग पूरी तरह से बेघर हैं। इनमें एक महिला शालूबेन ने बताया कि उनके माता-पिता कौन हैं, उन्हें तो पता ही नहीं है। जब होश सँभाला तबसे सड़क पर ही हैं। अब उनके तीन बच्चे हैं। काम के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि लोगों से माँगकर खा लेते हैं, कोई बड़े लोग कपड़ा भी दे देते हैं। उनसे जब कहा गया कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहीं गुज़रात के हैं, तो शीलाबेन ने कहा हमने तो नहीं देखा, सुनते हैं।

वहीं बगल में गंदे से फटे-पुराने गद्दे पर काला गंदा कंबल ओढ़कर एक मैला-कुचैला 30-35 साल का आदमी बैठा था। उसने अपना नाम कांडिय़ाँ बताया। बोला- उसका असल नाम तो राजू भाई है, पर उसे बचपन से लोग कांडिय़ाँ कहने लगे, इसलिए उसका नाम कांडिय़ाँ पड़ गया। उससे पूछा यहाँ कब से है, तो उसने बताया कि उसे नहीं पता, वह बचपन से ऐसे ही रहता है। जब राजू से कहा कि आप लोग घर में क्यों नहीं रहते, तो उसने कहा- हम लोग का घर कहाँ है? तुम्हारे बीबी-बच्चे हैं? यह पूछने पर राजू ने दूर एक चौराहे की तरफ़ उँगली से इशारा करते हुए कहा- वो उधर होगा। ईशनपुर ब्रिज के नीचे रहने वाले कुछ लोग गुज़रात के कठियावाड़ क्षेत्र से हैं, जो कुछ बोलने को तैयार ही नहीं हुए।

अहमदाबाद के नारौल से सटे नगर से बाहर की ओर पेड़ों के नीचे पाँच-छ: परिवार पन्नी डालकर खुले में रहते हैं। इन लोगों से खुले में रहने की वजह पूछी, तो इन्होंने दु:खी होते हुए कहा- ‘क्या करें बहन कोरोना में काम ही नहीं रहा, कम्पनियों में काम ही नहीं है। कभी-कभार मजदूरी मिल जा ही नहीं कि मकान का भाड़ा भर सकें। अपने पास पूँजी नहीं थी, तभी तो अपने देश (प्रदेश) से यहाँ रोटी कमाने आये, अब यहाँ से कहाँ जाएँ।‘ पूछने पर मालूम हुआ कि ये लोग मध्य प्रदेश से हैं। इस तरह के बहुत-से प्रवासी गुज़रात में हैं।

मेहनती भी होते हैं बेघर

जब किसी को चौराहों पर, ब्रिजों के नीचे गंदे कपड़ों में लोगों का छोटा-बड़ा समूह दिखता है, तो ज़्यादातर लोग उनके बारे में यही सोचते हैं कि यह लोग काम-धन्धा नहीं करते, नशे में रहते हैं और भीख माँगकर खाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। सड़कों के किनाने और ब्रिजों के नीचे रहने वाले अनेक लोग काफ़ी मेहनती होते हैं और इनके परिवारों की कहानी बड़ी दर्दनाक होती है। अमूमन इन लोगों को गुलदस्ते बनाकर बेचते हुए और चौराहों पर छोटे-मोटे सामान बेचते हुए देखा जाता है। ईशनपुर ब्रिज के ही बराबर में नारोल रोड किनारे पर पन्नी की छोटी-छोटी झोंपडिय़ों में कुछ परिवार मुख्य सूप और गुलदस्ते बनाकर बेचते हैं। इसके अलावा अहमदाबाद के ही सालम में सड़क किनारे सैकड़ों झुग्गियाँ बनी हुई हैं। यूँ तो देखा जाए, तो ये लोग भी बेघर ही हैं, क्योंकि इनके पास इनकी झुग्गी-झोंपड़ी के अलावा और कोई जायदाद नहीं होती है। लेकिन ये लोग लोहे के औ$जार बनाने से लेकर कई छोटे-मोटे काम करते हैं, जो इनके ख़ुद के हैं। इन लोगों का खानपान भी ठीक होता है और पहनावा भी ठीकठाक ही होता है। मेहनती भी होते हैं; लेकिन ज़मीन ख़रीदकर पक्के मकान बनाने से ये भी बचते हैं। ये लोग भिक्षावृत्ति से बेहतर काम करना समझते हैं। हालाँकि देश में बेघरों, सड़क किनारे झुग्गी-झोंपडिय़ों में रहने वालों की दशा काम न करने वालों से बहुत ज़्यादा बेहतर नहीं दिखती, लेकिन इनमें और उनमें यह अन्तर है कि यह काम करके कुछ पैसा कमा लेते हैं और न काम करने वालों से कहीं बेहतर और जीवन जीते हैं। वहीं काम से बचने वाले माँगकर पैसे और भोजन का जुगाड़ करते हैं। ऐसे लोग पैदा होने वाले बच्चों को भी भिक्षावृत्ति में इस्तेमाल करते हैं और जब यह बच्चे थोड़े बड़े होते हैं, तो उन्हें भीख माँगना ही अपने जीवनयापन का ज़रिया दिखता है। नशा इनमें से अधिकतर किशोरों, युवाओं और बड़ों की आदत में शुमार होता है। शायद इस नशे के चलते ही यह लोग इस तरह की ज़िन्दगी जी पाते हैं। अन्यथा बदबूदार कपड़ों में किसी दिमाग़ी सन्तुलन खोने वाले व्यक्ति के अलावा कौन रह सकता है?

देश में करोड़ों की संख्या में हैं बेघर

2018 की एक सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में जितने लोग बेघर हैं, उनकी संख्या मलेशिया की कुल आबादी से भी अधिक है। रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के बेघरों से छोटे-छोटे कई देश बस सकते हैं। देश में सबसे ज़्यादा बेघर कहाँ है, इसके सही-सही आँकड़े तो अभी तक किसी के पास नहीं हैं। लेकिन इस मामले में राज्य सरकारें अपने-अपने यहाँ के आँकड़े छिपाती दिखती हैं। सरकारें होम सेल्टर बनवाकर बेघरों के रहने का दावा करके अपने आप को बेघरों का हिमायती साबित करने में आगे रहती हैं। लेकिन इस सच्चाई से कोई भी राज्य सरकार मुँह नहीं मोड़ सकती कि उसके राज्य में हर शहर में हज़ारों की संख्या में बेघर रहते हैं।

हर साल हज़ारों बेघरों की मौत खुले आसमान के नीचे सोने के चलते हो जाती है। यही नहीं, कई बार फुटपाथ पर सोने वाले अनियंत्रित वाहनों के नीचे कुचलकर बेमौत मारे जाते हैं। देश के बड़े शहरों में बेघरों की संख्या बहुत अधिक है। इनमें कई परिवार तो ऐसे हैं, जो दूर गाँवों से बेघर होने के बाद या भुखमरी से तंग आकर शहरों में आश्रय लेकर बस गये हैं। कई राज्य सरकारों ने बेघरों के लिए काफ़ी कुछ किया है, लेकिन फिर भी इनकी संख्या कम होती दिखायी नहीं देती। कितने ही लोग बेघर होने के चलते रेलवे स्टेशनों पर पड़े रहते हैं, तो कुछ रेल पटरियों के किनारे बस जाते हैं। यानी इन लोगों को जहाँ भी ठिकाना मिलता है, बस जाते हैं। इनमें से कुछ तो झुग्गी-झोंपड़ी बना लेते हैं, और कुछ बिना छत के ही रहते हैं।

कई बार इनके ठिकाने भी बदल जाते हैं। भारत सरकार और देश के राज्यों की सरकारें बेघरों की रोजी-रोटी और ठिकाने के लिए आज तक कोई ठोस उपाय नहीं कर सके हैं। उन बेघरों के लिए भी नहीं, जो मेहनत करके अपना पेट भरना पसन्द करते हैं। आज भारत में कई एनजीओ भी इन बेघरों का रोना रोते हैं और पैसा कमाने के चक्कर में लगे रहते हैं। लेकिन बेघरों का असली दर्द क्या है? यह उनके बीच जाकर बहुत कम लोग ही समझते हैं। बेघरों के चलते देश में भिक्षावृत्ति को बढ़ावा मिलता है।

अगर भारत सरकार, राज्य सरकारें और बेघरों के लिए काम करने वाले एनजीओ चाहें, तो मिलकर बेघरों के लिए वरदान साबित हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, ईमानदारी और सकारात्मक मेहनत करने की ज़रूरत है, जिसकी हर तरफ़ कमी दिखती है।