कोरोना-काल में अकेले बुज़ुर्गों में बढ़ता तनाव

बिना परिवार वाले या तिरस्कृत बुज़ुर्गोंके बीमार पडऩे पर नहीं हो पाती उनकी देखभाल

मैं अपने कोविड-19 इलाज के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के एक निजी अस्पताल में भर्ती थी। मेरे साथ वाले कमरे में एक बुज़ुर्ग महिला का भी इलाज चल रहा था। वह उस अस्पताल का कोविड वार्ड था। लिहाज़ा वहाँ पर मेडिकल, पैरा मेडिकल व सफ़ाईकर्मी के अलावा किसी अन्य के आने पर पाबंदी थी। उस बुज़ुर्ग महिला के कमरे का दरवाज़ा हर पल खुला रहता था। वह कभी ख़ुद से ही ऊँची आवाज़ में संवाद करती सुनाई देती, तो कभी अकेलेपन की पीड़ा की चोट पर मरहम लगाने के लिए टीवी की ऊँची आवाज़ का सहारा लेती महसूस होती। डॉक्टर्स हमेशा वहाँ भर्ती मरीज़ों को, जो चलने में समर्थ थे; उन्हें कॉरिडोर में थोड़ी देर टहलने की सलाह देते, ताकि मरीज़ शारीरिक व मानसिक रूप से सक्रिय रहें। लेकिन वह बुज़ुर्ग महिला ऐसा नहीं करती थी। स्टाफ को कहती कि उसका मन नहीं करता।

दूसरा दृश्य सार्वजनिक स्थल पार्क का है। मेरी बस्ती के क़रीबी दो पार्क, जो कोविड-19 के प्रथम लॉकडाउन से पहले सुबह-शाम बुज़ुर्गोंकी टोलियों से गुलजार रहते थे, वहाँ आज भी एक तरह से उनका दिखायी न देना, उनके अभिभावदन के लिए हाथों का स्वत: नमस्कार वाली मुद्रा में आ जाना, बहुत याद आता है। उनमें से अधिकांश बुज़ुर्ग अपने-अपने घरों में क़ैद होकर रह गये हैं। बहरहाल मौज़ूदा महामारी कोविड-19 या कोरोना से विश्व को जूझते हुए क़रीब डेढ़ साल होने को है और इससे कब निजात मिलेगी? कहना मुश्किल है। हर रोज़ वैज्ञानिक नयी-नयी जानकारियाँ व चेतावनियाँ जारी करते रहते हैं। वैसे तो इस ख़तरनाक महामारी ने तक़रीबन सभी आयु वर्ग के लोगों को प्रभावित किया है, मगर बुज़ुर्ग आबादी के शराीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए अलग ही चुनौतियाँ पेश की हैं।

दुनिया के बहुत से देशों में बुज़ुर्ग आबादी इस महामारी के प्रसार के आँकड़ों व अस्पताल, स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने, महँगी स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक क़िल्लत, बच्चों व अपनों के दूर होने से अकेलापन होने के कारण विकट तनाव में जी रह रहे हैं। उन पर कई प्रकार के मानसिक रोगों की गिरफ़्त में आने का ख़तरा मँडराने लगा है। एक अध्ययन के अनुसार, यूरोप व चीन में कोविड-19 के कारण होने वाली तकलीफ़ों का असर 60 साल से अधिक आयु के लोगों पर अधिक पाया गया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन व वैज्ञानिक कोविड-19 संक्रमण की रोकथाम के लिए जिन उपायों पर अधिक बल देते हैं, उनमें सामाजिक दूरी भी शामिल है। लेकिन इसके साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन शारीरिक व मानसिक गतिविधियों का स्वशासन व समुदाय में सामाजिक भागीदारी के स्तर के साथ क़रीबी रिश्ते को भी वर्णित करता है। इस संगठन ने सामाजिक भागीदारी को धार्मिक, खेल, सांस्कृतिक, रचनात्मक, राजनीतिक व स्वैच्छिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के रूप में उल्लेख किया है। विभिन्न अध्ययन बुज़ुर्गोंके लिए सामाजिक भागीदारी के सकारात्मक प्रभाव दर्शाते हैं। यह शारीरिक गतिविधियों का व ज्ञान सम्बन्धी कार्यों का स्तर बढ़ाने के लिए प्रोत्सहित करती है। सामाजिक भागीदारी को बुज़ुर्गोंमें ज़िन्दगी की उच्च गुणवत्ता, मज़बूत मांसपेशियों, विकलांगता व कम सहरुग्णता के साथ जोडक़र देखा गया है। लेकिन कोविड-19 महामारी के चलते सामाजिक दूरी, सामाजिक आयोजन में हिस्सा लेने व यहाँ तक की किसी को अपने घर पर नहीं बुलाने और कहीं अनावश्यक नहीं जाने जैसी हिदायतें बीते डेढ़ साल से बार-बार याद दिलायी जाती हैं। लिहाज़ा बुज़ुर्ग लोग अक्सर अपना पूरा वक़्त घरों ही बिताने को विवश हैं, जिसका उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत ही नकारात्मक असर हो रहा है। बेशक इस माहौल में सकारात्मक नज़रिया रखने का परामर्श दिया जा रहा है, लेकिन क्या यह सब इतना आसान है?

दिल्ली में परचून की दुकान चलाने वाला एक युवा अपना व अपने पिता का नाम नहीं लिखने की शर्त पर बताता है कि कोविड-19 की पहली लहर में उसके बुज़ुर्ग पिता महामारी की चपेट में आ गये। नोएडा के एक सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराया। अस्पताल में परिजन को उनसे मिलने की इजाज़त नहीं थी व उन्हें अस्पताल की तरफ़ से पिता के स्वास्थ्य के बारे में कोई सूचना भी नहीं दी जाती थी। पिता ही कभी-कभी परिवार जन को फोन कर देते थे। तीन दिन के बाद पिता ने बच्चों को इलाज की ज़मीनी सच्चाई बतायी- ‘न तो नर्स वक़्त पर आती है और न ही सही देखभाल हो रही है। मेरे साथ के बिस्तर वाले दो लोगों की कोरोना से यहाँ मौत हो गयी है। आप मुझे यहाँ से ले जाओ। ऐसा न हो कि मैं अपने बच्चों की शक्ल देखे बिना ही मर जाऊँ।’

यह मनोवैज्ञानिक तनाव, पीड़ा बहुत कुछ सोचने कीे विवश करती है। हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार, देश के क़रीब 82 फ़ीसदी बुज़ुर्ग इस समय किसी न किसी मानसिक तनाव से गुज़र रहे हैं। इसमें बेचैनी, पति या पत्नी का मरना, स्वास्थ्य सेवाओं तक आसानी से पहुँच न होना, नींद नहीं आना, पैनिक अटैक अकेलेपन का अहसास आदि शामिल हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. शुभ्रा जैन कहती हैं कि देश में बुज़ुर्ग आबादी बढ़ रही है। लेकिन उसके स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से निपटने के लिए एक राष्ट्र के तौर पर हम कितने तैयार हैं? यह बहुत बड़ा सवाल है। इन दिनों प्रधानमंत्री केयर्स फंड से अस्पतालों में भेजे गये वेंटिलेटर्स की गुणवत्ता पर चर्चा हो रही है। कहीं रख-रखाव की समस्या, तो कहीं उसे चलाने के लिए प्रशिक्षित स्टाफ की कमी आदि कारण गिनाये जा रहे हैं। लेकिन इस महामारी के शिकार बुज़ुर्गोंके साथ अस्पताल में कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए? उनकी उम्र के हिसाब से विशेष ज़रूरतों, जिसमें भावात्मक सपोर्ट आदि भी शामिल है, के बाबत अस्पताल के स्टाफ आदि को क्या प्रशिक्षित किया गया है? इसका जवाब सबको मालूम होना चाहिए।

एक अस्पताल में एक बुज़ुर्ग महिला के साथ सही व्यवहार नहीं करने वाली घटना को जब उसके परिजन ने अस्पताल प्रशासन को बताया, तो जवाब मिला कि हमने कुछ स्टाफ आउटसोर्स किया है। हम अब इन्हें शिष्टाचार के बारे में प्रशिक्षित करेंगे। भारत अपने देशवासियों के स्वास्थ्य पर बजट का क़रीब 1.3 फ़ीसदी ही ख़र्च करता है। लोगों की स्वास्थ्य चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, वह सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। कोविड-19 महामारी ने भारत सरकार को बार-बार शर्मसार किया है। उसके कुप्रबन्धन को बार-बार उजागर किया है।

2020 में प्रथम लॉकडाउन की घोषणा की हड़बड़ी हो या अब दूसरी लहर में दवाइयों, टीकों, ऑक्सीजन की कमी; इसके चलते कालाबाज़ारी को रोकने में असफलता व अब कोविड-रोधी टीकाकरण का हाँफना। टीकाकरण अब कछुए की चाल चल रहा है। बुज़ुर्ग जो अधिक संवेदनशील है, वे कई-कई घ्ंाटों तक टीका लगवाने के लिए लम्बी-लम्बी क़तार में खड़े देखे गये। अब तो सैंकड़ों टीकाकरण केंद्रों पर टीका उपलब्ध नहीं होने की सूचना वाली पट्टी लग चुकी है।
सरकार का महामारी से निपटने के लिए ख़ुद को बेहतर ढंग से तैयार नहीं करने की क़ीमत बुज़ुर्ग आबादी भी चुका रही है। इस कुप्रबन्धन के बुज़ुर्ग आबादी पर अल्पकालिक व दीर्घकालिक प्रभाव होंगे। हाल ही में जापान सरकार ने बुज़ुर्गोंके अकेलेपन को दूर करने के लिए मिनिस्ट्री ऑफ लोनलीनेस नामक एक विशेष मंत्रालय का गठन किया है। जापान की आबादी क़रीब 12.5 करोड़ है। इसमें 3.5 करोड़ लोगों की उम्र 65 साल या इससे अधिक है। यानी आबादी का एक-चौथाई। इन बुज़ुर्गोंको किसी जीवित साथी का साथ उपलब्ध नहीं है।

भारत में बुज़ुर्गोंकी आबादी तेज़ी से बढ़ रही है। सन् 2011 जनसंख्या के अनुसार, देश में 10 करोड़ 40 लाख बुज़ुर्ग आबादी है, इसमें पाँच करोड़ 30 लाख महिलाएँ और पाँच करोड़ 10 लाख पुरुष हैं।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की अप्रैल, 2019 में जारी द स्टेट ऑफ वल्र्ड पॉपुलेशन रिपोर्ट के मुताबिक, 2050 तक भारत में बुज़ुर्ग आबादी (60 साल व इससे अधिक आयु वाले लोग) कुल आबादी की 20 फ़ीसदी हो जाएगी। मनोचिकित्सक मानते हैं कि बुज़ुर्ग परिवार के लिए अमोल हैं और उनकी देखभाल के लिए परिवार को वक़्त निकालना चाहिए। ख़ासतौर पर इस महामारी के दौर में। अक्सर ऐसी सामाजिक धारणा है कि बुज़ुर्गावस्था ज़िन्दगी की आख़िरी अवस्था है।
इस धारणा के कारण न तो बुज़ुर्ग ख़ुद पर अधिक ध्यान देते हैं और न ही परिवार की प्राथमिकता में वो दर्ज होते हैं। लेकिन यह नज़रिया ख़तरनाक है। अब तो बुज़ुर्ग यह सोचने लगे हैं कि उनकी सारी ज़िन्दगी इसी महामारी में गुज़र जाएगी। यह सोच उनके लिए समाज, देश और दुनिया के लिए शुभ संकेत नहीं है।

हेल्प एज इंडिया नामक संस्था ने कोविड-19 की पहली लहर के दौरान मुल्क के बुज़ुर्गोंपर एक सर्वे किया था। उस सर्वे के मुताबिक, 61 फ़ीसदी बुज़ुर्ग लॉकडाउन के दौरान परिवार के सदस्यों की घर में उपस्थिति के बावजूद अकेलापन और सामाजिक रूप से अलग-थलग महसूस कर रहे हैं। 42 फ़ीसदी बुज़ुर्गोंका स्वास्थ्य समुचित सेवाओं के अभाव में पहले से और अधिक ख़राब हुआ है। 78 फ़ीसदी बुज़ुर्गोंको आवश्यक सेवाओं और वस्तुओं तक पहुँचने में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। इसी तरह कोरोना की दूसरी लहर के दौरान एजवेल नामक संगठन का एक अध्ययन बताता है कि 82 फ़ीसदी बुज़ुर्गोंको अपने स्वास्थ्य की बहुत चिन्ता सता रही है। ऐसी चिन्ता इससे पहले कभी नहीं हुई। 70 फ़ीसदी से भी अधिक बुज़ुर्ग नींद नहीं आने, इन्सोमनिया और डरावने सपने आने की समस्या से जूझ रहे हैं। 63 फ़ीसदी बुज़ुर्ग अकेलेपन या सामाजिक अलगाव के कारण अवसाद जैसे लक्षणों को महसूस कर रहे हैं। 55 फ़ीसदी बुज़ुर्गोंको प्रतिबन्धों की वजह से मानसिक और शारीरिक रूप से कमज़ोरी का अहसास हो रहा है।