कोरोनाकाल में टूट गयीं अनेक परम्पराएँ

कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को इस कदर प्रभावित कर दिया कि मानव जीवन की तमाम गतिविधियाँ इससे प्रभावित हुई हैं। यहाँ तक कि हमारे जीवन में बन चुकीं कई परम्पराएँ टूट गयी हैं। इन परम्पराओं के टूटने के पीछे एक ही बड़ा कारण है और वह है, कोरोना वायरस के संक्रमण फैलने का डर। ऐसी परम्पराएँ निम्नलिखित हैं :-

दशकों के बाद पहली बार सीमित श्रद्धालु ही चारधाम यात्रा कर सकेंगे।

अधिकांश ख्याति प्राप्त मंदिर अभी भी बन्द हैं। अगर मंदिर खुलने भी लगे, तो इनमें आने वाले श्रद्धांलुओं की संख्या कम होगी और शारीरिक दूरी का पालन करना होगा।

इसी 21 जून को पड़े सूर्यग्रहण के दिन इस बार मन्दिरों में पूजा-पाठ के श्रद्धालु नहीं जुटे।

आशंकाएँ बराबर बनी हुई हैं कि इस बार जन्माष्टमी के अवसर पर मथुरा और वृंदावन में पुरानी गहमागहमी बहाल नहीं हो पायेगी। वहाँ की कुञ्ज (गलियाँ) पहले ही सँकरी हैं। इन दिनों लाखों की संख्या में लोग वहाँ पहुँचते हंै। लगभग 150 करोड़ का ‘मथुरा के पेड़े’ का बाज़ार इस बार खाली-सा रहेगा। फूलों का लगभग 55 करोड़ का बाज़ार भी ठण्डा रहेगा।

पिछले लगभग तीन माह की अवधि में किसी राज्य में या ‘इंडिया गेट’ अथवा ‘जंतर मंतर’ पर कोई प्रदर्शन नहीं हुआ। कहीं कोई रैली नहीं हुई।

निर्जला अकादशी पर पहली बार छबीलें नहीं लगीं।

विश्वविद्यालयों में प्रवेश की रौनक बन्द है। अब लाइब्रेरियों में बैठकर पढऩे की इजाज़त भी नहीं है। पाठकों को लाइब्रेरी की पुस्तकों से बिछडऩा तनाव में रखता होगा और लाइब्रेरी की पुस्तकें धूल चाट रही हैं।

इस बार सूरदास और कबीर को भी उनके जन्म दिवस पर ढंग से उनके फरीदाबाद और वाराणसी स्थित स्मारकों पर याद नहीं किया गया। कोई समारोह नहीं हुआ।

इस बार भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में ‘पाङ्क्षसग आउट परेड’ में कैडेट्स के माता-पिता व अन्य परिजन भाग नहीं ले पाए। पिछले 88 वर्षों से निरंतर चली आ रही परम्परा टूटी है। कुल 333 भारतीय और 90 विदेशी ‘जेंटलमैन’ ‘कैडेट’ इस बार गर्व के इन क्षणों से वंचित रह गये। यह अकादमी 1932 में बनी थी। पहली ‘पाङ्क्षसग आउट’ परेड 1934 में हुई थी। मगर अब ‘कोरोना’ ने गर्व के वो लम्हे छीन लिये हंै।

आसार ऐसे नहीं हैं कि कुरुक्षेत्र का ‘गीता जयंती समारोह’ सूरजकुण्ड का हस्तशिल्प मेला या ‘दिल्ली हाट’ के पुराने नज़ारे जल्दी बहाल हो पायेंगे।

एक ओर माँग थी कि बाज़ारों को कुछ समय के लिए सातों दिन खोला जाए, ताकि दुकानदार अपना खोया हुआ कारोबार फिर से बहाल कर पाएँ। मगर दूसरी ओर पंजाब सरकार ने व कुछ अन्य नगरों में सप्ताह में दो दिन और सरकारी अवकाश के दिन फिर से ‘लॉकडाउन’ आरम्भ कर दिया है।

आशंका है कि कोरोना-ग्रहण का असर आगामी स्वाधीनता दिवस के राष्ट्रीय समारोह पर भी पड़ेगा।

अब कवि सम्मेलनों, मुशायरों, सत्संग-सम्मेलनों आदि की निकट भविष्य में कोई सम्भावना नहीं है।

मुँह का ज़ायका इस कदर बदल गया है कि अधिकांश लोग अब बाज़ार का खाना खाने या घर मँगाने से भी डरने लगे हैं।

‘कैब्स’, ‘ऑटो रिक्शा’ चल रहे हैं, मगर डरे हुए लोग उनका प्रयोग करने से कतरा रहे हैं।

पर्यटन-उद्योग देश भर में ठप है। पर्यटकों की आवाजाही बिल्कुल रुकी हुई है।

इधर मुम्बई से खबर है कि वहाँ ‘प्रोड्यूसर्ज़ गिल्ड ऑफ इंडिया’ ने निर्णय लिया है कि कोरोना अवधि के मध्य निर्माणाधीन फिल्मों में चुम्बन या आलिंगन के दृश्य नहीं फिल्माये जाएँगे; क्योंकि ऐसा आचरण, ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की घोषित नीति का उल्लंघन होगा। यदि कहीं ‘पे्रम-दृश्यों’ का फिल्मांकन किया ही जाना है, तो ऐसा दो खिले फूलों को परस्पर मिलाने आदि के प्रतीकों से भी सम्भव है। दूसरी ओर कलाकारों का एक बड़ा वर्ग इस फैसले को अव्यावहारिक और बेतुका बता रहा है। इस वर्ग की दलील है कि आिखर कथानक को कितना सिकोड़ा या तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है? फिलहाल बहस जारी है। क्या होगा? दोनों पक्ष अभी नहीं जानते।

इन दिनों सोशल मीडिया पर कुछ बुद्धिजीवी अपनी-अपनी ‘थ्योरी’ या मान्यता की स्थापना में लगे हैं। कुछ मोटे-मोटे अभियानों की फेहरिस्त इस प्रकार है :-

‘कोरोना’ को भयावह रूप में प्रस्तुत करने के पीछे ‘बिल गेट्स’ व उनकी लॉबी का हाथ है।

एक अभियान वुहान की प्रयोगशालाओं में चीन द्वारा रचे गये षड्यंत्र के खिलाफ लामबन्द है। उनके अनुसार, चीन इस ‘वायरस’ की तह में है और उसका लक्ष्य अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, भारत और जापान की अर्थ-व्यवस्थाओं को धराशायी करना है। शायद यही कारण है कि चीन अपनी अर्थ-व्यवस्था को शीघ्र ही बहाल करने में समर्थ हो गया है।

एक अभियान के सूत्रधार यह मानते हैं कि ‘कोरोना’ एक सामान्य ‘फ्लू’ सरीखा वायरस है। इसे भयावह रूप में प्रस्तुत करना भी एक नपी-तुली साज़िश है।

एक अभियान प्रबुद्ध स्वराज-नेता योगेंद्र का है। उनका दावा है कि वास्तव में देश में इस समय भी 60 से 90 लाख के बीच में लोग कोरोना-संक्रमित हैं।

इन सभी बौद्धिक-सूत्रधारों का दावा है कि उनके पास इस बात के प्रमाण भी हैं कि इस समूचे ‘कोरोना तंत्र’ का तानाबाना एक षड्यंत्र के तहत रचा गया है।

सत्य क्या है? इसकी तह तक पहुँचने की फुरसत इन बुद्धिजीवियों के अलावा किसे होगी? इनके अपने ‘सत्य’ तयशुदा है और ये उसी दिशा में जा रहे हैं, जिस दिशा में जाना चाहते हैं। वे हमारी जीवनशैली में पिछले कई दशकों से लगातार आ रही गिरावट को भी दोषी नहीं मानते। उन्हें प्रदूषण से भी कोई लम्बी-चौड़ी शिकायत नहीं है। उन्हें अपना ‘एजेंडा’ चलाना है।

शायद इसी को पुराने मुहावरों में ‘मृगतृष्णा’ कहा जाता था या बकौल गालिब-

‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,

दिल के खुश रखने को ‘गालिब’ ये खयाल अच्छा है’

विनम्र आग्रह है कि ऐसी कवायदों से मूल मुद्दे पर से ध्यान हटाने का प्रयास न करें। इस वायरस की ‘वैक्सीन’ ईज़ाद करने में भी अरबों का बजट खर्च हो रहा है। कभी-कभी लगता है कि ये लोग ‘सैम्युअल बैकेट’ के नॉट ‘वेटिंग फॉर गोदो’ की तर्ज पर एक ऐेसे महानायक ‘गोदो’ के इंतज़ार में हैं, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं।

हकीकत यह है कि वैक्सीन यदि बना भी ली, तो उसमें महीनों या वर्षों भी लग सकते हैं। बाद में उसे प्रयोग कराना भी लम्बा खेल है। मूल मुद्दा अभी भी देश को भय, भूख व प्रदूषण से मुक्ति दिलाने का है। इसके लिए कोई ठोस, सर्वमान्य नीति अभी तय नहीं हो पायी है।