कोटे पर न केरोसिन मिलता है और न चीनी!

उत्तर प्रदेश के राशनकार्ड धारकों, मुख्य तौर पर ग्रामीणों को अब केरोसिन (मिट्टी का तेल) और चीनी कोटों के माध्यम से नहीं मिलते। प्रदेश सरकार ने इनका वितरण लगभग बन्द कर रखा है। ग्रामीण जीवन केरोसिन के बिना अधूरा है। लेकिन सरकारी अधिकारियों का कहना है कि जब सरकार ने गैस सिलेंडर दे दिये और बिजली कनेक्शन हैं ही, तो फिर केरोसिन देने का क्या मतलब? वहीं कोटों के माध्यम से राशनकार्ड धारकों को चीनी न मिलने के बारे में पूछने पर अधिकारी चुप्पी साध लेते हैं।

एक कोटा धारक ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि पहले लोगों के लिए सरकार से केरोसिन, चीनी और गेहूँ-चावल सभी कुछ आता था। लेकिन अब चीनी और केरोसिन आना बन्द हो गया है। केरोसिन बहुत कम मिलता है, जो कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए होता है। कोटा धारक ने बताया कि हमसे आज भी लोग पूछते हैं कि केरोसिन क्यों नहीं मिलता? हम इसका क्या जवाब दें, जब सरकार ने ही देना बन्द कर दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि केरोसिन तेल डिपो पर खूब होता है, पर उसकी कालाबाज़ारी की जाती है। कोटा धारक ने बताया कि ग्रामीण जनता को आज भी केरोसिन की बहुत ज़रूरत होती है। ऐसे में जिन लोगों को केरोसिन चाहिए होता है, वो दुकानदारों से खरीदते हैं। यह पूछने पर कि दुकानदार केरोसिन बेचते हैं? कोटा धारक ने कहा- ‘उसे इसके बारे में बहुत जानकारी नहीं है। लेकिन सुनते हैं कि ज़रूरतमंद लोग दुकानों से खरीदते हैं।’ कोटा धारक से यह पूछने पर कि दुकानों पर केरोसिन बेचने की छूट है? दुकानदारों को केरोसिन मिलता कहाँ से है? उन्होंने कहा कि पता नहीं।

क्या कहते हैं ग्रामीण

इस बारे में कुछ ग्रामीणों से बात करने पर इस मामले की और भी परतें निकलकर सामने आयीं। ग्राम ठिरिया के भद्रसेन का कहना है कि उन्हें तकरीबन तीन साल से ज़्यादा समय से केरोसिन नहीं मिल रहा है; जबकि उन्हें हर महीने कम से कम दो-तीन लीटर केरोसिन की ज़रूरत होती है। क्योंकि वह सुबह-सुबह 10 किलोमीटर दूर ड्यूटी पर जाते हैं, ऐसे में सुबह-सुबह उनकी पत्नी को खाना बनाना पड़ता है, जिसके लिए कभी-कभी गैस न होने पर या ईंधन के अभाव में केरोसिन वाले स्टोव का सहारा होता है। लेकिन केरोसिन न मिलने के चलते उन्हें दिक्कत होती है। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले अंगनलाल ने बताया कि उन्हें भी केरोसिन नहीं मिल पाता, जबकि उनके घर में बिजली कनेक्शन इसलिए नहीं है कि उसका बिल बहुत आता है और वह ईंट भट्ठे पर काम करके इतनी महँगी बिजली नहीं ले सकते। उन्होंने बताया कि उन्हें कभी-कभार एकाध लीटर केरोसिन मिल जाता है, जो पाँच-सात दिन में लालटेन में खत्म हो जाता है। इसके बाद इधर-उधर से जुगाड़ करके तेल या कभी मजबूरी में डीज़ल लेना पड़ता है; जो काफी महँगा पड़ता है। कोटे से चीनी मिलने के बारे में पूछने पर अंगनलाल ने बताया कि चीनी हम गरीबों को कहाँ नसीब होती है, हम तो गुड़ की चाय पी लेते हैं। चीनी 35-40 रुपये किलो मिलती है और गुड़ इतने में डेढ़-दो किलो आ जाता है।

एक दूसरे गाँव ग्वारी गौंटिया के सचिन गंगवार ने बताया कि केरोसिन देखे हुए वर्षों बीत गये और अब तो चीनी भी कोटे से नहीं मिलती। इस बारे में बुज़ुर्ग ग्रामीण लालता प्रसाद ने कहा कि देखिए, जैसा कि आप देख रहे हैं, गाँवों में आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है। गाँवों में बिजली पहुँच तो गयी है, लेकिन न तो सभी लोगों के घरों में अभी तक कनेक्शन हैं और न ही बिजली 24 घंटे रहती है। गाँवों में बिजली हफ्ते के हिसाब से आती है। एक हफ्ता रात को और एक हफ्ता दिन को। यह कहने पर कि उत्तर प्रदेश में तो 16 घंटे बिजली रहती है? लालता प्रसाद कहते हैं- ‘सब जुमलेबाज़ी है। बेकार की बात है। जो लोग यह दावा करते हैं, वो गाँव में आकर 10 दिन रहकर देखें। पता चल जाएगा।’ कोटे से चीनी मिलने की बात पर लालता प्रसाद भड़ककर कहते हैं- ‘चीनी! आप चीनी की बात करते हैं, यहाँ गेहूँ-चावल पर मारा-मारी मची रहती है।’ जब उनसे यह पूछा गया कि गेहूँ-चावल तो मिलता है, उसमें क्या दिक्कत है? लालता प्रसाद कहते हैं- ‘आप यह बताइए कि जिनके खेती-बाड़ी है, उन्हें तो एक बार को राशन की दिक्कत उतनी नहीं होती। वैसे जिनकी खेती कम है या जो सब्ज़ियां उगाते हैं या गन्ना आदि करते हैं, उन्हें तो राशन खरीदकर ही खाना पड़ता है। लेकिन दूसरी तरफ, जो मज़दूर हैं या जो लोग छोटी-मोटी नौकरी करते हैं, उन्हें तो सब कुछ खरीदना ही पड़ता है। राशन के कोटे से एक यूनिट पर केवल पाँच किलो गेहूँ-चावल मिलते हैं। आप बताइए कि एक व्यक्ति का महीने भर का खर्चा क्या पाँच किलो ही होता है। वह पूछते हैं कि है कोई नेता, जो महीने भर में केवल पाँच किलो अनाज से गुज़ारा कर ले? यह छोटी-सी बात काहे समझ नहीं आती, इन अधिकारियों और मंत्रियों को कि एक आदमी को कम राशन ही सही, लेकिन जितना चाहिए, उतना तो दें!’

एक विधवा उर्मिला ने बताया कि भैया! यहाँ तो राशन भी कब मिलेगा, कब नहीं, कुछ पता नहीं होता। कभी 5 तारीख को राशन मिलता है, तो कभी 8-10 तारीख को। उनसे पूछा गया कि कितना राशन मिलता है, तो उन्होंने बताया कि एक आदमी पर पाँच किलो मिलता है। उसमें भी कोटे वाला भाँय-भाँय करता है। जल्दी-जल्दी तोलकर भगा देता है। अगर उसकी सही तोल की जाए, तो दो-चार सौ ग्राम कम ही निकलेगा। कोटे वाले से बोलो, तो कहता है कि बोरी में कितना कम आता है, पता है? उर्मिला का कहना है कि हमारे घर में चार लोग हैं, हमें महीने भर में आठ किलो चावल और 12 किलो गेहूँ मिलते हैं। घर में महीने में 30-35 किलो का खर्च है। बाकी हम खरीदकर खाते हैं। अभी लॉकडाउन में ज़रूर महीने में दो बार राशन मिला है, बाकी दिन तो वैसे ही हैं। केरोसिन के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि केरोसिन की छोड़ो, अब तो चीनी भी नहीं मिलती।

राशन के दो भाव!

अंगनलाल ने बताया कि उन्हें तीन रुपये किलो चावल और पाँच रुपये किलो गेहूँ मिलता है। इन्हीं के गाँव के ओमवीर ने बताया कि उन्हें भी तीन रुपये किलो चावल और पाँच रुपये किलो गेहूँ मिलते हैं। वहीं जालिम नगला गाँव में राशन के बारे में लोगों से पता करने पर उन्होंने बताया कि उनके यहाँ भाव तो नहीं मालूम, लेकिन दोनों चीज़े इकट्ठे में तीन रुपये किलो पड़ती हैं। इस गाँव के रहने वाले देवेंद्र कुमार ने बताया कि उनके घर में पाँच यूनिट हैं, उन्हें हर महीने 10 किलो चावल और 20 किलो गेहूँ मिलते हैं; जिसके लिए उन्हें हर महीने 90 रुपये कोटे वाले को देने पड़ते हैं। देवेंद्र ने बताया कि अगर कोटे वाले से भाव पूछो, तो बोलता है, बहुत सस्ता है; बाहर से खरीदो, तो पता चलेगा। सरकार का एहसान मानो कि इतने सस्ते में गेहूँ-चावल मिल रहे हैं। केरोसिन और चीनी के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि वो उन्हें ही मिलते हैं, जो गरीबी में आते हैं, हमें नहीं मिलते। यहीं के गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले रामपाल ने बताया कि हमें कोई कुछ अलग से थोड़े ही मिलता है; जो सबको मिलता है, वही मिलता है। उनसे जब पूछा गया कि आपको किस भाव राशन मिलता है, तो उन्होंने कहा कि राशन तो मुफ्त मिलता है। एक कोटे धारक से बात करने पर उन्होंने बताया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों को सरकार मुफ्त में राशन देती है, सो हम भी मुफ्त में बाँटते हैं। बाकी लोगों को जो भाव ऊपर से तय है, उस भाव में बाँट देते हैं। केरोसिन और चीनी के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों को केरोसिन भी दिया जाता है। चीनी अब आती नहीं, तो दें कहाँ से। यहाँ के कोटे धारक ने यह भी बताया कि जबसे कोरोना फैला है, तबसे महीने में दो बार राशन बँटा है; एक बार मुफ्त में और एक बार पैसे से। इस हिसाब से एक आदमी को महीने में 10 किलो राशन मिल जाता है, जो कि उसके लिए काफी है। इस पर वहाँ खड़े एक व्यक्ति ने कहा कि गाँव में आदमी मेहनत करता है, 10 किलो राशन से उसका पेट नहीं भरता साहिब! आप सरकारी भाषा मत बोलो। हम कोई अफसर नहीं कि दिन भर कुर्सी पर बैठे रहें और दो रोटी खाने भर से काम चल जाए। इस पर वहाँ लोगों में बहस शुरू हो गयी।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है

भारत सरकार की काफी पुरानी योजना सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम (पीडीएस) है, जो कि एक तरह की भारतीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली है। भारत सरकार द्वारा इस योजना को वर्षों पहले लागू किया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य देश में भुखमरी से निपटना था। इसके पीछे की सरकार की मंशा थी कि देश में कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। इसके अंतर्गत राशन वितरण करने के लिए हर परिवार में एक राशनकार्ड बना और उसमें परिवार के सदस्यों की संख्या उनके नाम सहित दर्ज की गयी। इस तरह इस राशन कार्ड से प्रति व्यक्ति अर्थात् प्रति यूनिट सरकार से लाइसेंस प्राप्त राशन की दुकानों, जिन्हें गाँवों में कोटा कहते हैं; के माध्यम से गेहूँ, चावल, चीनी, केरोसिन आदि वितरित किया जाने लगा। धीरे-धीरे इस प्रक्रिया को घोटालों का घुन लगने लगा और लोगों तक पूरी मात्रा में उनके हिस्से की वस्तुएँ न मिलने में शिकायतें आने लगीं। आज भी यह प्रक्रिया जारी है। हालाँकि अब लोग थोड़े जागरूक हैं, तो हो सकता है कि इसमें बड़े पैमाने पर सेंध न लगती हो, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा न होने की कोई गारंटी भी नहीं ले सकता। वही अब अधिकतर लोगों को केवल गेहूँ और चावल ही मिलते हैं। केरोसिन और चीनी कोटों से लापता हो चले हैं।