कृषि विधेयकों के खिलाफ अनवरत आंदोलन पर अन्नदाता

केंद्र सरकार के तीन कृषि अध्यादेशों के खिलाफ देश की विकास दर में 20 फीसदी का हिस्सा देने वाला अन्नदाता (किसान) आज सड़कों पर आंदोलनरत है। खेती से जुड़े तीन अध्यादेशों में ऐसा क्या है? जिस पर किसान वर्ग को ज़रा भी भरोसा नहीं है। किसानों को ही क्यों? सरकार के घटक शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को भी ये बिल नागवार गुज़रे हैं। नतीजतन केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल इस्तीफा देकर खुलेआम सरकार के साथ नहीं, बल्कि किसानों के साथ खड़ी दिखायी दीं। उनके इस्तीफे को राजनीति से जोड़कर या दिखावा कहकर नहीं देखा जा सकता।

यह अलग बात है कि उन्होंने इस्तीफा देरी से दिया, पर हिम्मत तो दिखायी। वह चाहतीं, तो हरियाणा में किसानों की पार्टी कही जाने वाली जननायक जनता पार्टी की तरह किसानों की हितैषी बनकर भी मंत्री बनी रह सकती थीं। हरियाणा में जजपा कोटे से उप मुख्यमंत्री बने दुष्यंत चौटाला अब तक अध्यादेशों के खिलाफ एक शब्द तक नहीं बोल सके हैं। इसके विपरीत जजपा के विधायक रामकुमार ने राज्य सरकार को किसान संगठनों से बातचीत करने की माँग की है। उन्होंने लाठीचार्ज की घोर निंदा करते हुए पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की माँग भी की है। वह कहते हैं किसानों पर दर्ज मामले वापस लेकर उनका भरोसा जीतना चाहिए।

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कहते हैं, यह सब दिखावा ही तो है। जब इन प्रस्तावों पर चर्चा हो रही थी, तभी हरसिमरत को विरोध जताते हुए इस्तीफा देना चाहिए था। तब वह चुप क्यों रहीं, अब अध्यादेश आने के बाद वह इस्तीफा देकर किसानों की हितैषी बनने का ड्रामा कर रही हैं। अगर अध्यादेश किसानों के खिलाफ है, तो शिअद को गठबन्धन से अलग हो जाना चाहिए। उन्होंने इस्तीफा कब दिया? जब राज्य में किसान आंदोलन पर उतर आये। जब देखा कि किसान इस मुद्दे पर करो या मरो की नीति पर उतर आये हैं, तब। वैसे देखा जाए तो हरसिमरत पहले ऐसा करतीं, तो भी क्या फर्क पड़ता? सरकार को ऐसा करना ही था। ऐसे में हरसिमरत का कदम एक मायने में ठीक ही कहा जा सकता है।

हरियाणा में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। यहाँ जननायक जनता पार्टी (जजपा) सरकार में शामिल है, जिसे किसानों की ही पार्टी के तौर पर जाना जाता है। पार्टी नेता दुष्यंत चौटाला सरकार में उप मुख्यमंत्री है। किसानों ने उनके आवास पर प्रदर्शन करके बता दिया है कि वह (किसान) चौटाला के सरकार के साथ वाले रवैये से खुश नहीं हैं। क्योंकि अध्यादेशों का विरोध न करके चौटाला अपरोक्ष रूप से केंद्र सरकार का समर्थन कर रहे हैं। जजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजय चौटाला तो स्पष्ट कर चुके हैं कि पार्टी का गठबन्धन तोडऩे का कोई विचार नहीं है। रही बात किसानों की, तो उसके लिए हर सम्भव प्रयास करेंगे। उनके हितों पर कुठाराघात नहीं होने देंगे। कैसी बयानबाज़ी है यह? सत्ता में बने रहने की चाह और खुद को किसानों का हितैषी दिखाना, दोनों विरोधीभासी बातें हैं। अध्यादेशों का सबसे पहले विरोध ही हरियाणा में हुआ। कुरुक्षेत्र के पिपली में किसानों ने आंदोलन किया, तो उन पर लाठीचार्ज हुआ; जिसकी चौतरफा आलोचना हुई। किसानों के बचाव में मनोहर लाल खट्टर सरकार नहीं, बल्कि भाजपा संगठन आगे आया।

प्रदेशाध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ ने लाठीचार्ज को गलत बताते हुए किसान प्रतिनिधियों से बातचीत करके हल निकालने का भरोसा दिलाया। फिलहाल तीन सांसदों पर आधारित समिति गठित कर दी गयी है, जिसे किसानों से बातचीत करके अपनी रिपोर्ट देनी है। भाजपा सांसद धर्मवीर सिंह, बृजेंद्र सिंह और नायब सिंह सैनी ने क्या बातचीत की और क्या हल निकाला? कुछ भी तो नहीं। वे तो अध्यादेशों की वकालत करते ही नज़र आये। वे पार्टी लाइन से बाहर नहीं जा सकते थे। भारतीय किसान यूनियन हरियाणा के नेता गुरनाम सिंह कहते हैं कि ये विधेयक किसानों की स्थिति बद से बदतर कर देंगे। इन्हें हम स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि हमें हमारा भविष्य पता है। हम करो और मरो की लड़ाई लड़ रहे हैं, क्योंकि यह हमारी अस्मिता का सवाल है। उन्होंने बताया कि हरियाणा और पंजाब में 30 से ज़्यादा किसान यूनियनें विधेयकों के विरोध में हैं। जिस वर्ग के लिए ये विधेयक लाये जा रहे हैं, क्या उनके नेताओं से विचार-विमर्श नहीं किया जा सकता था? अगर किया जाता, तो इतना विरोध न होता और विधेयक इस सूरत में न आते।

यूनियन के प्रवक्ता राकेश बैंस के मुताबिक, केंद्र सरकार ज़बरदस्ती विधेयकों को हम पर थोपना चाहती है, ऐसा हम नहीं होने देंगे। यह मामला कहीं-न-कहीं राज्यों से जुड़ा है; लेकिन राज्य सरकारों से भी इस बारे में चर्चा नहीं की गयी। मंत्रिमंडल में मंत्रणा कर इसे लागू करना ही बताता है कि कहीं नीयत में खोट है। किसानों के समर्थन में हरियाणा कच्चा आड़तिया एसोसिएशन और हरियाणा राइस मिलर्स एसोसिएशन ने भी समर्थन दिया है। उन्हें डर है कि नयी व्यवस्था में उनका काम बहुत कम हो जाएगा। बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथ में सब कुछ चला जाएगा। किसान यूनियनों ने साफ कर दिया है कि वे किसान विरोधी विधेयकों का तब कर विरोध करती रहेंगी, जब तक कि सरकार इन्हें वापस नहीं ले लेती। बता दें कि इन विधेयकों के विरोध में 25 सितंबर को पंजाब में रेल रोको आंदोलन भी चलाया गया। यूनियनों ने चेतावनी दी है कि अगर सरकार ने तीनों विधेयक वापस नहीं लिये, तो देशव्यापी आंदोलन किया जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के भरोसा दिलाने के बाद भी अन्नदाता इन्हें लागू न होने देने पर अडिग हैं। सवाल यह कि कोरोना-काल में ऐसे विधेयक लाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ी? विधेयक देशहित से जुड़े विषयों पर लाना चाहिए, जिससे करोड़ों लोग लाभान्वित होते हों। यह अनुकूल समय नहीं था, ऐसे विधेयकों को लाने का। फिर ये विधेयक राज्य सरकारों और किसान संगठनों से विचार-विमर्श किये बिना लाये गये। इसका विरोध स्वाभाविक ही था और आंदोलन होने की आशंका केंद्र सरकार को कहीं-न-कहीं ज़रूर होगी, पर व्यापक स्तर पर विरोध का अनुमान रहा नहीं होगा। विधेयकों की प्रतियाँ सरेआम जुलाई जा रही है। प्रधानमंत्री के पुतले जलाये जा रहे हैं। सड़कों पर जाम लगाये जा रहे हैं। राज्यव्यापी बन्द के आह्वान किये जा रहे हैं।

वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने वाली केंद्र सरकार क्या इसी मकसद से ये विधेयक लागू करने जा रही है? कृषि मंत्री संसद में कहते हैं कि विधेयकों को लागू होने दो; देखो, इससे किसानों की ज़िन्दगी कैसे बदलती है? पर इससे पहले मोदी के इस कथित ऐतिहासिक कदम की सराहना ज़रूर करनी पड़ती है। किसान यूनियन के नेता कहते हैं कि ज़िन्दगी तो बदल जाएगी, लेकिन किस रूप में? क्या इसके बारे में भी सोचा गया है। विधेयकों को किसानों के लिए डेथ वारंट बताने वाले कांग्रेस सांसद प्रताप सिंह बाजवा और राहुल गाँधी के इससे किसान को गुलामी की जंजीरों में जकडऩे जैसा बताना गलत तो नहीं है। विधेयकों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का हवाला नहीं है। यही वजह है कि किसान इनका विरोध कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में गेहूँ और चावल समर्थन मूल्य पर केंद्र सरकार की एजेंसियाँ गारंटी के साथ खरीदती हैं। भविष्य में क्या ऐसा होगा? विधेयकों में गारंटी शब्द का उल्लेख नहीं, बल्कि समर्थन मूल्य कायम रखने की बात है। कायम रहने और गारंटी में दिन रात का अन्तर है? उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में व्यापारी समर्थन मूल्य से नीचे उत्पाद खरीदते हैं; क्योंकि किसान उन्हें लम्बे समय तक रख नहीं सकता। वहाँ समर्थन मूल्य तो है, लेकिन वह किसान को मिल तो नहीं रहा है। बस यही आशंका किसान के मन में है और केंद्र सरकार इस बारे में कुछ नहीं बोल रही। वह समर्थन मूल्य की बात तो कह रही है, लेकिन गारंटी नहीं दे रही कि वह सीजन के दौरान अन्नदाता का दाना-दाना गारंटी के साथ खरीदेगी। समर्थन मूल्य तो है, लेकिन वह किसानों को मिल नहीं रहा। हरियाणा की एक मंडी में बाजरा समर्थन मूल्य से 500 रुपये नीचे रहा है। व्यापारी खरीद रहे हैं; क्योंकि किसान को पैसे की ज़रूरत है। वह भण्डारण नहीं कर सकता, उस पर पहले ही देनदारी है। व्यापारी इसी बाजरे को समर्थन मूल्य से कहीं ज़्यादा बेचेगा। अगर समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं जोड़ी जाती, तो निश्चित तौर पर आने वाला किसानों के लिए बहुत बुरा साबित होगा।

पंजाब और हरियाणा में गेहूँ और चावल की बंपर फसल होती है, अभी ये उत्पाद मंडियों में समर्थन मूल्य पर बिक जाते हैं। भविष्य में क्या ऐसी व्यवस्था रहेगी? क्यों नहीं केंद्र सरकार गारंटी शब्द को इसमें जोड़ देती, सब कुछ ठीक हो जाएगा। दो माह के बाद चावल की फसल तैयार हो जाएगी, तब पता चल जाएगा कि समर्थन मूल्य पर कितनी खरीद हो पाती है। अगर पहले जैसी व्यवस्था रही तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, वरना इससे भी ज़्यादा स्थिति खराब होने वाली है।

विधेयक लागू होने के बाद किसान देश में कहीं भी अनाज बेचने के लिए स्वतंत्र होगा? इसका क्या मतलब है? क्या मेरठ का किसान अपना उत्पाद पंजाब या हरियाणा कि किसी मंडी में बेचने के लिए आयेगा? जब समर्थन मूल्य एक जैसा है और नियमानुसार उससे नीचे उत्पाद बिक नहीं सकता, तो क्या अन्य राज्यों में उसे ज़्यादा दाम मिलेंगे? कैसी कल्पनाशीलता है। इससे उसका खर्च बढ़ेगा जबकि दाम ज़्यादा मिलने का सवाल ही नहीं होता।

विधेयक से अनाज ज़रूरी सामग्री नहीं रहेगी। कोई भी इसका भण्डारण कर सकेगा उस पर कोई रोक नहीं रहेगी। इससे कालाबाज़ारी बढऩे से कोई इन्कार नहीं कर सकता। किसान के खेत से समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने कौन आयेगा? यह वे भी जानते हैं। छोटे किसानों का क्या होगा? जो अभी तक पास की मंडियों में बेच लेते थे। नयी व्यवस्था में आढ़तियों का काम बहुत कम हो जाएगा। मंडियाँ ऐसे नहीं रहेंगी। ये सब आशंकाएँ और केंद्र की कपोल कल्पनाएँ हैं। सब कुछ वही रहेगा, किसान और इनके नेताओं ने विधेयक की गहराई तक जाने की कोशिश नहीं की। सरकार किसानों के सशक्तिकरण का भरोसा दिलाती है, पर अन्नदाता को इस पर भरोसा नहीं है। उसे लागत के हिसाब से फसल का दाम और समर्थन मूल्य पर उत्पाद की बिक्री गारंटी से हो जाए, यही उसके लिए अच्छा है। रही बात आर्थिक स्थिति की, तो उसमें सुधार की गुंजाइश नहीं है। कर्ज़ के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला अनवरत चला आ रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य कागज़ों में रहेगा और उत्पाद उससे नीचे के दाम पर बिकेगा, तो किसान कहाँ तक बचा रहेगा।

अनुबंधित खेती के नफे-नुकसान किसान को पता है। भारत का किसान इसे नहीं अपना सकेगा; क्योंकि इसमें काफी कानूनी अड़चनें होती हैं। वह खेती में फसलों का बदलाव तो कर सकता है, पर किसी कॉरपोरेट के अनुबन्ध के अनुुसार उत्पाद नहीं दे सकता। बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने गुज़रात में आलू खरीद के लिए कुछ किसानों से अनुबन्ध किया था। फसल तैयार हुई, तो वह अनुबन्ध के पैमाने पर खरी नहीं उतरी और भुगतान का संकट हो गया। कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा, वह अलग से। किसान अपनी ही भूमि पर हिस्सेदार की तरह काम नहीं कर सकता। अनुबन्ध की खेती में वह कागज़ों में ज़मीन का मालिक है; लेकिन प्रबन्धन दूसरे के हाथ में होगा। अनुबन्ध आधार पर खेती का प्रयोग भविष्य में यहाँ सफल होने की उम्मीद काफी कम है। कांग्रेस तो तीनों विधेयकों के बिल्कुल ही खिलाफ है। किसान पंजाब के मुख्यमंत्री के गृह ज़िले में ज़ोरदार धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। पूरा विपक्ष किसानों के समर्थन में आ जुटा है; लेकिन केंद्र सरकार इस मुद्दे पर अडिग है। राज्य में किसानों ने सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के गृह गाँव बादल में प्रदर्शन करके रोष जता रहे हैं। रात-दिन यह प्रदर्शन चल रहा है। वहाँ प्रीतम सिंह नामक किसान ने इस दौरान ज़हर भी खा लिया।

किसान नेताओं ने बताया ज़िला मानसा के गाँव अक्कावाली के प्रीतम सिंह विधेयक के बहुत खिलाफ और चिंतित थे। राज्य में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के एक दर्ज़न से ज़्यादा संगठन किसानों का नेतृत्व कर रहे हैं। इनमें भाकियू एकता (दकोंदा) राजेवाल, उग्राहन और लाखोवाल हैं। किसान नेता हरिंदर सिंह लाखोवाल के मुताबिक, विधेयकों से किसान तबाह हो जाएगा। पंजाब की खेती बर्बाद हो जाएगी। केंद्र सरकार किसानों के आंदोलन को गम्भीरता से नहीं ले रही है, लेकिन आने वाले दिनों में उसे पता चल जाएगा कि हम कहाँ तक जा सकते हैं। आर-पार की इस लड़ाई में क्या किसान अपने हितों को सुरक्षित रखने में सफल हो सकेंगे? क्या केंद्र सरकार किसानों के कथित भ्रम को बातचीत के माध्यम से दूर कर सकेगी? अनगिनत सवाल हैं, पर केंद्र सरकार का मकसद किसी भी तरह विधेयकों को कानून का रूप देना है। खेती की दिशा और किसान की दशा क्या होगी? यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। संवादहीनता से स्थिति बिगड़ रही है। ऐसे में किसानों के भरोसे को जीतना ही सही कदम होगा।

तीनों विधेयक पास

कृषि से जुड़े तीनों विधेयक- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (समर्थन और सरलीकरण) विधेयक-2020, कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा कर करार विधेयक-2020 एवं आवश्यक वस्तु (संसोधन) विधेयक-2020 संसद में पास हो चुके हैं।