कुछ कविताएं

हालात

आप कुछ सोचते सड़क पर चल रहे हैं

तभी

बरसों की थकान से लीपे चेहरे वाली

एक बुढिय़ा आती है

और आपको भुट्टा पकड़ाकर दस रुपए माँगती है

कृपया इसे भीख मांगना ना समझें

यह इक्कीसवीं सदी के भारत के हालात पर

एक वृद्धा का दस्तखत है।

विस्मरण

किन खेतों में केश झरे

किन रस्तो में कांटे गड़े

किन दोस्तों ने कांटे निकाले

सब भूल गया।

जिस पोखर में नंगा नहाया

उसके मोहार को भी ना चीन्ह पाऊँ

जिस गाय का दूध पिया

उसके सींग की कोई स्मृति नहीं।

सारे भले लोगों को भूल गया

जिन्होंने तोड़ के दिये अमरूद

जिन्होंने जेबें भर दी जामुन से।

बुआ कोई बचपन की कहानी कहे

तो झूठ लगता है

दोस्त बताए कि कैसे टूटी थी बाईं टांग

तो शक होता है।

शरद भूल गया

वसन्त भूल गया

अंधे गवैये को भूल गया

फुलेसरी नचनिया को भूल गया।

पहले लगा मैं भूला तो भूला

किसी पड़ोसी को याद होगा

मगर सब भूल गये

और यह बहुत पुरानी बात नहीं

पिछली बाढ़ में सब याद था

यह बाढ़ आई तो कुछ भी साथ नहीं।

छोटे शहर के कव्वाल

वो जो उर्दू बाजार का पुराना मुहल्ला है

उसमें दो तीन गलियों कव्वालों की है

जिनके लिये कहा जाता कि ये खांसते भी सुर में हैं।

मजहब का जोर बढ़ाए कुछ मौलवी आये

हराम हलाल की बातें हुईं

उनकी बातें ज्य़ादा चली नहीं

मगर फिर बैण्ड बाजाए डी जे क्या क्या आया

इनकी कमाई सूखती गई ।

बच्चे जानते थे गाना

मगर गैरेज में लग गये

एक दो को तो सरकार ने दहशतगर्द भी कह दिया।

अब ये शाम में जब बैठते हैं तो तो कभी कभी कभी

गाते हैं बीते दिनों को दाद देते।

अगर इन्हें पता चले कि आप कविता सा कुछ लिखते हैं

तो ये बेंच से उठ जाएंगे

कहेंगे वाह हुजूर वाह एक कप चाय आपके लिये

कभी घर पर आइये खाएंगे पीएंगे

और सुनेंगेंए कुछ सुनाएंगे।

याद दिलाना

किसी रोज कहीँ भटकता मिलूँ

या बैठा दिखूं भिखियारों की पांत में

और तुम पहचान लो

तो मुझे अपनी याद दिलाना

मुझे खुशी होगी एलज्जा नहीं

समय ही ऐसा है

..पितामह ने कहा था मरने से कुछ रोज पहले

झक्क सफेद कागज

झक्क सफेद कागज लिया

गुलहड़ लाल रोशनाई

कुछ लिखा

जो कविता हुई हुई जाती है

यकायक कागज काला हो गया

रोशनाई भी

क्यों हुआ आखिर

कौन बताएगा

क्यों हुआ आखिर!