किसान आन्दोलन का बढ़ता दायरा

किसानों के अधिकारों को असत्य के रास्ते दबाने का प्रयास किया जा रहा है; लेकिन सत्य कभी अपमानित नहीं होता। किसानों का कहना है कि सरकार कितना भी क्यों न कर ले अत्याचार, लेकर रहेंगे अपना अधिकार।

8 दिसंबर किसानों का भारत बन्द से साफ हो गया कि किसान देश के इतिहास में एक नयी इबारत लिख रहे हैं। दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बॉर्डर पर आन्दोलनकारी किसान हरप्रीत ने तहलका संवाददाता को बताया कि सरकार सत्ता के नशे में इस कदर चूर है कि देश के अन्नदाता-किसान की माँगों को सुनने को तैयार नहीं है। उन्होंने बताया कि भारत बन्द के किसानों के ऐलान के बावजूद सरकार ने माँगों को मानना तो दूर, सुनना भी नहीं चाहा। किसानों को लाठियों से पिटवाया। इस दिन को किसान कभी नहीं भूलेंगे। बात करते-करते जग्गी किसान का मोबाइल गिरकर टूट जाता है, लेकिन वह इसकी फिक्र न करते हुए कहते हैं कि अभी तो मोबाइल टूटा है, कल हम भी टूट जाएँ, तो भी कोई चिन्ता नहीं है; लेकिन जब तक कृषि कानून वापस नहीं हो जाते, तब तक किसानों का यह आन्दोलन नहीं रुकेगा। अन्य किसानों का भी यही कहना है। किसानों ने कहा कि आन्दोलन और सरकारी नीतियों से असहमति लोकतंत्र का अभिन्न अंग होता है; लेकिन आज सरकार तानाशाही कर रही है। हम सब किसानों से सरकार ऐसे बर्ताव कर रही है, जैसे हम किसान नहीं, आतंकवादी हों। भारत बन्द को लेकर केंद्र सरकार ने सियासत की है, जबकि वह अच्छी तरह जानती है कि किसान गलत नहीं हैं। हमने जब 26 नवंबर को देशव्यापी आन्दोलन का आह्वान किया था, तब सरकार की ओर से कोई बात करने को भी राज़ी नहीं था। सरकार के कुछ बिचौलिये आन्दोलन को समाप्त करने के लिए दबाव बना रहे हैं।

हरपाल किसान का कहना है कि यह सरकार चन्द पूँजीपतियों के सामने इस कदर गिरवी रखी है कि वह उन्हें ही लाभ देने के सिवाय कुछ नहीं सोच रही। किसान रात-दिन खेतों में मेहनत करके देशवासियों का पेट भरने का काम करता है। उस पर तमाम मुसीबतें टूटती रहती हैं। कभी फसल नष्ट हो जाती है, तो कभी सूखा पड़ जाता है। जंगली जीवों, ज़हरीले साँपों के बीच उसकी ज़िन्दगी बीतती है। इसमें कई किसानों की जान भी चली जाती है। इसके बाद भी वह देश सेवा की भावना से अपने अन्नदाता के धर्म का पालन करता है, मगर सरकार उस पर ध्यान देने की बजाय उसे ही लूटने में लगी है। हरपाल किसान पूछते हैं कि ऐसी कौन-सी मुसीबत सरकार के सामने आ गयी कि कोरोना-काल में चुपके से नये काले कानून थोपकर वह किसानों को कमज़ोर करने पर अड़ी है।

बताते तीन नये कृषि कानूनों अस्तित्व में आने पर सितंबर, 2020 से ही किसान इनका विरोध कर रहे हैं। सरकार किसानों के विरोध को हल्के में लेती आ रही है और उसे कुचलने का प्रयास करती रही है। किसानों का कहना है कि अगर सरकार ने समय रहते किसानों की नहीं मानी, तो यह आन्दोलन आर-पार की नौबत तक जा सकता है। किसान नेता पुल्ली चंदेला ने कहा कि सरकार भले ही इसे सियासी आन्दोलन कहकर लोगों का ध्यान भटकाना चाहती है, लेकिन यह पूरी तरह किसान आन्दोलन है। उन्होंने कहा कि अब किसान तब तक चुप नहीं बैठेंगे, जब तक उनकी माँगों को नहीं मान लिया जाता है। सरकार दावा कर रही है कि ये कानून किसानों के हक में हैं, जबकि सच यह है कि इन कानूनों से खेती पर कॉर्पोरेट का कब्ज़ा हो जाएगा। यही वजह है कि वह जबरन कानून लाना चाहती है। किसान चाहते हैं कि तीनों कानून वापस हों और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी रूप दिया जाए।

तहलका संवाददाता को कृषि विशेषज्ञ राहुल तिवारी ने बताया कि देश में जब 2016 में नोटबन्दी हुई थी, तब देश का किसान टूटा था। उसके बाद कोरोना वायरस के चलते लगे लॉकडाउन और उसके बाद तमाम बंदिशों से किसान को काफी परेशानियों का सामना कर रहे हैं। इतनी मुसीबतों के बाद अब सरकार किस मंशा से नये कृषि कानूनों को थोपकर किसानों के साथ क्या करना चाहती है? सरकार को सोचना चाहिए कि जब देश की अर्थ-व्यवस्था रसातल में जा रही थी, तब देश के किसानों के खून-पसीने के दम पर ही जीडीपी को बल दिया था। राहुल तिवारी का कहना है कि वैसे ही तमाम परेशानियों के चलते किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जिस इस पर सरकार गौर नहीं करती है। इस समय कृषि विधेयकों में सुधारों की ज़रूरत थी, तब सरकार उन्हें और किसान-विरोधी बनाकर हालात बिगाडऩे का काम कर रही है, जो देश हित में कतई नहीं है।

इधर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का कहना है कि सरकार मौज़ूदा किसान आन्दोलन को पंजाब-हरियाणा का आन्दोलन न समझे, यह पूरे देश के किसानों का आन्दोलन है। किसान शंकर यादव ने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने हमें दिल्ली जाने से रोकने का जो भी प्रयास किया है, वो उसकी दमनकारी नीतियों की पोल खोलता है। लेकिन किसान किसी भी सूरत में पीछे नहीं हटेंगे। अब हर गाँव, हर कस्बा, हर शहर की गली-गली में किसान आन्दोलन करेंगे।

किसान नेता चन्द्रपाल सिंह का कहना है कि मंडी समिति कानून (एपीएमसी) मूलत: 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी सरकार का बनाया हुआ कानून है। तब देश के कृषि मंत्री नीतीश कुमार और खाद्य मंत्री शरद यादव थे। ये दोनों नेता ग्रामीण पृष्ठभूमि के ही माने जाते हैं, जो किसानों के हक के लिए तत्पर रहते थे। किसानों की समस्या को अपनी समस्या मानकर उनकी माँगों को समाधान करते थे। इन दोनों नेताओं का मानना था कि किसानों को फसल का सही मूल्य मिले, तब फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित किया गया था, जिससे किसान खुश थे। लेकिन अब नये कानून के आने के बाद से किसानों को शंका और डर है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से छुटकारा पाना चाहती है। जबकि आज भी भाजपा की सरकार है। किसानों का कहना है कि देश में किसान समय-समय अपनी माँगों को लेकर आन्दोलन करते रहे हैं। उन्होंने कहा कि महेन्द्र सिंह टिकैत के ज़माने में सरकारें किसानों के आगे झुकी हैं। अब फिर किसान भाजपा की केंद्र सरकार को झुकाकर रहेंगे और उसे नये कानून वापस लेने होंगे।

किसान संगठन से जुड़े नेता सूरज सिंह जत्थेदार ने बताया कि सरकार एक साज़िश के तहत किसानों की ज़मीन को पूँजीपतियों के हवाले करना चाहती है, ताकि बड़े कॉर्पोरेट जगत के लोग आसानी से खेती की ज़मीन को कब्ज़ा लें। नये कृषि कानूनों से मंडी व्यवस्था कमज़ोर होगी। किसान निजी मंडियों के जाल में फँस जाएगा। धन्नासेठ तानाशाही करके किसानों को लूटने में लग जाएँगे। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता व किसान नेता राकेश टिकैत ने सरकार को चेताते हुए कहा कि अगर सरकार ने माँगें नहीं मानीं, तो तब तक आन्दोलन जारी रहेगा, जब तक देश का किसान ज़िन्दा है।

किसानों के समर्थन में आयी महिलाओं ने सरकार को जमकर कोसा। महिला कुलविंदर सिंह ने बताया कि सरकार ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी, तो महिलाएँ भी सड़कों पर उतरने को मजबूर होंगी, जिसमें छात्राएँ भी भाग लेंगी। इधर कांग्रेस के किसान नेता रामाधार यादव का कहना है कि भाजपा को छोड़कर अन्य लगभग सभी दल के इस आन्दोलन के समर्थन में हैं। भाजपा के नेता किसानों के आन्दोलन को सियासी आन्दोलन कहकर इसमें सेंध लगाना चाहते हैं, ताकि आन्दोलन फीका पड़ जाए; पर ऐसा नहीं होगा। इधर, किसानों के उग्र आन्दोलन को देखते हुए केंद्र सरकार कुछ हद तक घबरायी लगती है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इने-गिने 13 किसान नेताओं से बात की और कहा कि किसानों के हित में सरकार हर फैसला लेगी। लेकिन किसान नेताओं ने दो टूक जबाब दिया कि जब तक नये कानून वापस नहीं होते, तब तक आन्दोलन जारी रहेगा। इन 13 नेताओं में राकेश टिकैत, हन्नान मुल्ला, गुरनाम सिंह, शिवकुमार काका, बलबीर सिंह, रुलदू सिंह मानसा, मंजीत सिंह राय, बूटा सिंह, हरिन्द्र लखोवाल, दर्शन पाल, कुलबंत सिंह संधू, भोग सिंह मानसा और जगजीत सिंह डल्लेवाल शामिल थे। राकेश टिकैत  का कहना है कि सरकार के अपने दावे लुभावने हैं, पर किसान तब तक नहीं मानेंगे, जब तक किसान विरोधी नये काले कानून वापस नहीं हो जाते।

किसान नेता किशन पाल का कहना है कि सरकार की पूँजीवादी नीतियों को देखते हुए किसान सहमे हुए हैं। छोटे किसान, जिनके पास दो, चार, छ: बीघा ज़मीन है; वे भी अब बड़े किसानों के साथ हैं और आन्दोलन में पूरा साथ दे रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यह दुर्भाग्य की बात है कि कुछ किसान संगठन अपने निजी स्वार्थ के चलते सत्ता से मिलकर किसानों में दरार डालकर आन्दोलन में सेंध लगाना चाहते हैं। किसानों आन्दोलन के समर्थन में कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी, एनसीपी प्रमुख एवं पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार, वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी और डी. राजा ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को एक ज्ञापन सौंपा हैं। ज्ञापन सौंपने के बाद राहुल गाँधी ने कहा कि पूरा विपक्ष किसानों के साथ खड़ा है। देश का किसान देश का आधार है और उसी के खिलाफ कानून लाये जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज देश के किसान भरी सर्दी में अपने अधिकारों के लिए सड़क पर हैं और सरकार झूठे आश्वासन देकर किसानों को परेशान कर रही है। किसानों को दवा, खाना और रहने की व्यवस्था दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने बॉर्डर पर डटे किसानों के लिए की है। सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने बताया कि हम हर रोज़ किसानों की समस्याओं से अवगत होते हैं। उन्हें जो भी ज़रूरत होती है, उसकी पूर्ति करने का प्रयास करते हैं; रजाइयों, कंबलों की भी व्यवस्था की गयी है; ताकि कड़ी सर्दी में कोई परेशान न हो। कुछ अन्य संगठन भी किसानों की मदद में लगे हैं।