किसानों पर पैनी नज़र

लगता है कि तीन नये कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ तक़रीबन साढ़े आठ महीने से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों को अब केंद्र सरकार किसी भी हाल में उखाड़ फेंकना चाहती है। क्योंकि अब कोई भी किसानों वाली टोपी, उनके पहनावे या उनके झण्डे को लेकर दिल्ली में नहीं चल पा रहा है। दिल्ली में किसान या उनके अंदाज़ में चलने वाले लोगों से पुलिस अराजक तत्त्वों की तरह गहन पूछताछ कर रही है। बैनर, झण्डा, टोपी हटवा रही है और पहनावे पर ऐतराज़ कर रही है। इस बात की पुष्टि किसानों के दिल्ली घेराव को लेकर ‘तहलका’ की पड़ताल में हुई। पुलिस द्वारा एक वाहन पर से किसान झण्डा उतारने की हरकत को जब मैंने कैमरे में क़ैद करने की कोशिश की, तो पुलिस ने मुझे भी झड़प दिया।
बता दें कि इन दिनों किसान अपनी माँगों को लेकर अपनी आवाज़ केंद्र सरकार तक पहुँचाने की कोशिश में दिल्ली में ‘किसान संसद का अयोजन कर रहे हैं, जिस पर केंद्र सरकार को आपत्ति है।
दरअसल संसद के मानसून सत्र में किसान केंद्र सरकार तक अपनी आवाज़ पहुँचाना चाहते हैं। इसके पीछे किसानों का मक़सद सरकार को एक बार फिर अपनी समस्याओं से अवगत कराना और कृषि क़ानूनों की वापसी के लिए मजबूर करना है। लेकिन किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए दुश्मन देश की सीमाओं पर तैनात सुरक्षा बलों की तरह दिल्ली में तैनात दिल्ली पुलिस और सीआरपीएफ के जवान तैनात हैं और किसानों को दिल्ली में घुसने से रोक रहे हैं। जंतर-मंतर पर बहुत कम किसानों को पुलिस घेरेबंदी में दिल्ली सरकार की अनुमति के बाद आने दिया गया है, जबकि दिल्ली की सभी सीमाओं पर पुलिस बल तैनात कर दिया गया है। किसानों को दिल्ली सरकार की ओर से जंतर-मंतर पर धरना देने की अनुमति 22 जुलाई से लेकर 9 अगस्त है।
हैरानी यह है कि आज़ादी के बाद देश का यह सबसे बड़ा आन्दोलन है, जिसमें बात सिर्फ़ इतनी-सी है कि जिन किसानों के लिए सरकार तीन क़ानून ला चुकी है, जिन्हें फ़िलहाल कुछ महीनों के लिए रोक दिया गया है; किसान उन क़ानूनों को वापस लेने की माँग कर रहे हैं और सरकार उन्हें वापस नहीं ले रही है। जबकि देश और दुनिया के करोड़ों लोग और दर्ज़नों राजनीतिक दल किसानों के पक्ष में हैं। सिंघु बॉर्डर पर बैठे किसानों का कहना है कि ये सब हथकंडे किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए सरकार अपना रही है; लेकिन इससे सरकार को कुछ हासिल नहीं होगा।
केंद्र सरकार अब वेशभूषा के आधार पर किसानों को तंग कर रही है, जो कि ग़लत और दु:खद है। इससे देश के किसानों की पहचान को छीना जा रहा है। क्या किसान आतंकवादी हैं या कोई विदेशी पहनावा पहन रहे हैं? इसे देश के किसानों और उनकी व देश की सदियों पुरानी परम्परा पर हमला ही माना जाएगा। लेकिन किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए दिल्ली पुलिस ने पिछले साल से जगह-जगह वैरिकेट लगा रखे हैं, जिनसे सड़कों पर जाम लगता है। कई किसानों पर मुक़दमे दर्ज किये जा चुके हैं, एफआईआर दर्ज की जा चुकी है। लाल क़िले की घटना को लेकर भी कई किसानों पर मुक़दमा चलाने को लेकर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच काफ़ी सरगर्मियाँ बढ़ी हुई हैं। इस मामले में दिल्ली पुलिस मुक़दमे की पैरवी के लिए अपने वकीलों का पैनल रखना चाहती है, जिसे दिल्ली सरकार ने ख़ारिज करके अपने सरकारी वकीलों के पैनल की सूची बनाकर दिल्ली के उप राज्यपाल अनिल बैजल ने पास भेजी, जिसे उप राज्यपाल ने ख़ारिज कर फिर से पुलिस के वकीलों के पैनल की सूची पास कर दी, जिसे दिल्ली सरकार ने फिर से ख़ारिज कर दिया। लेकिन एक बार फिर उप राज्यपाल ने दिल्ली सरकार के पैनल ख़ारिज कर दिया है।
दरअसल पुलिस और न्याय दो अलग-अलग पहलू हैं और दोनों को एक-दूसरे के काम में दख़ल देने का अधिकार नहीं है। दिल्ली सरकार को यह अधिकार है कि वह दिल्ली में घटी किसी अराजक घटना या झगड़े के निपटान के लिए मुक़दमे की स्थिति में अपनी ओर से वकीलों का पैनल बनाकर अदालत में निष्पक्ष न्याय की गुहार लगाये। उप राज्यपाल को यह अधिकार तब है, जब मामला दिल्ली सरकार से नहीं सुलझ रहा हो। यहाँ ऐसी कोई बात ही नहीं है। यही बात क़ानून के कई जानकार कह रहे हैं और सामाजिक कार्यकर्ता व नेता योगेंद्र यादव ने भी एक टीवी चैनल पर कही।
किसान नेता व अधिवक्ता चौधरी बीरेन्द्र सिंह का कहना है कि लोकतंत्र संविधान से चलता है; लेकिन केंद्र की मोदी सरकार संविधान को दरकिनार करके चल रही है। जब सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि लोकतांत्रिक देश में किसी को भी शान्तिपूर्वक आन्दोलन करने, अपनी आवाज़ उठाने से नहीं रोका जा सकता, तो फिर सरकार संविधान, क़ानून और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को कैसे ठुकरा सकती है? किसानों को दिल्ली में आने से रोका जा रहा है। उनके पहनावे, झण्डे पर प्रतिबन्ध जैसा लग रहा है। किसान वेशभूषा में दिल्ली में दाख़िल हो रहे लोगों से पुलिस ऐसे पूछताछ कर रही है, जैसे वे अपराधी हों।
चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने बताया कि अगर कोई अपनी कार में धार्मिक झण्डा भी लगाये है, तो पुलिस उसकी कार रोककर झण्डा को उतरवाकर उससे लम्बी पूछताछ करने के बाद ही छोड़ रही है। उनका कहना है कि देश में ऐसे हालात तो किसी ने नहीं देखे, जो आज देश के अन्नदाता को देखने पड़ रहे हैं। सरकार की तानाशाही का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक क़रीब 650 किसान आन्दोलन के दौरान दम तोड़ चुके हैं, जो काग़ज़ों में हैं। जबकि सच्चाई यह है कि किसान आन्दोलन में इससे ज़्यादा किसानों की मौत हो चुकी है। एक आन्दोलन में इतनी बड़ी संख्या में मौतों पर केंद्र सरकार ने संवेदना तक व्यक्त नहीं की, जबकि एक क्रिकेटर की उँगली में चोट को लेकर प्रधानमंत्री को इतना दु:ख होता है कि उसे ट्विटर पर जताते हैं। इसका मतलब सरकार सत्ता के नशे में चूर है और लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं को तार-तार कर रही है; लोकतांत्रिक प्रणाली का हनन कर रही है।


वहीं भाकियू प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि जब सारा विपक्ष कह रहा है कि किसानों की समस्याओं का समाधान करना चाहिए, तो सरकार ज़िद पर क्यों अड़ी है? सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए किसान आन्दोलन को बदनाम करने की असफल को कोशिश कर रही है। क्योंकि वह हर कार्यक्षेत्र में असफल हो चुकी है और इसीलिए किसानों पर तमाम तरह की पाबंदियाँ लगा रही है। डरा-धमका रही है, आन्दोलन करने से रोक रही है। लेकिन किसान अब बिना क़ानून वापस कराये घर लौटने के नहीं। और दिल्ली में तो क्या, किसी भी राज्य में किसानों को जाने से सरकार नहीं रोक सकती। देश की जनता महँगाई, बेरोज़गारी से परेशान है। लेकिन सरकार का ध्यान इस ओर नहीं है। उसने सिर्फ़ किसानों को उसने अपना दुश्मन मान रखा है, जो कि अपनी खेती और देश की रोटी बचाने के लिए आज बेघरों की तरह सड़कों पर बैठा है।
राकेश टिकैत ने साफ़ कह दिया बता दें है कि अब किसान आन्दोलन 35 महीने तक चलेगा। राकेश टिकैत के इस अवधि तक आन्दोलन चलाने का मतलब 2024 तक का है, जो कि लोकसभा चुनाव में मौज़ूदा सरकार को हराने से सम्बन्धित हो सकता है। बता दें कि संसद के मानसून सत्र के दौरान दिल्ली को घेरने को लेकर किसानों के प्रयास को नाकाम करने की कोशिश में किसानों पर इन दिनों कड़ी पुलिस निगरानी है।
एमबीए तक पढ़े-लिखे किसान प्रदीप कुमार ने कहा कि पीड़ा इस बात की है कि 26 जनवरी से लेकर अब तक सरकार ने किसानों पर तरह-तरह के लांछन लगाये, उन्हें सत्ताधारी नेताओं और उनके लोगों ने आतंकवादी, ख़ालिस्तानी कहा। किसानों पर अत्याचार किये। सिंघु बॉर्डर पर किसानों द्वारा रहने के लिए ट्रालियों में बनाये गये अस्थायी निवासों में अराजक तत्त्वों ने आग लगा दी। लेकिन किसानों ने न तो हिंसा की और न ही अपना धैर्य खोकर कभी कोई हरकत की। क्योंकि किसान देश और संविधान का सम्मान करते हैं और कभी भी क़ानून अपने हाथ में नहीं लेते, न लेंगे।


कुछ दिन पहले भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने दावा किया था कि उनके पास गुप्त सूचना है, जिसके मुताबिक संयुक्त किसान मोर्चा के 40 किसान प्रधानमंत्री कार्यालय के निशाने पर हैं। किसान आन्दोलन के आठ महीने पूरे होने पर किसान एक बार फिर दिल्ली की सीमाओं पर जमा होने लगे हैं। ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर आने वाले किसानों की अगुवाई के लिए एक फिर भाकियू अध्यक्ष नरेश टिकैत कर रहे हैं। उन्होंने साफ़ कहा कि अब किसान भाजपा को देश का किसान कभी मक (वोट) नहीं देगा; क्योंकि इस सरकार ने किसानों को बहुत रुलाया है। अब देखना यह है कि किसान आन्दोलन किस ओर जाएगा और सरकार को कृषि क़ानूनों पर कब तक झुका पाएँगे।

 

 

बच्चे की गिरफ़्तारी
इस किसान आन्दोलन में पुलिस की ज़्यादतियाँ कम नहीं हैं; लेकिन एक 11 साल के किसान पुत्र को गिरफ़्तार करना पुलिस के चाल-चरित्र पर सन्देह पैदा करता है। सिरसा में पाँच किसानों की रिहाई को लेकर आन्दोलन में भाग लेने वाले किसान पुत्र को पुलिस ने गिरफ़्तार करके अंग्रेजों की पुलिस से क्रूरतम चेहरा दिखाया। गिरफ़्तारी के बाद बच्चे ने कहा- ‘चाहे मेरी मौत हो जाए, पर किसान सिंघु बॉर्डर पर आन्दोलन नहीं रुकना चाहिए। किसानों के अधिकारों के ख़ातिर और अपनी माँगों के लिए मैं अपनी जान की चिन्ता नहीं करूँगा।’ इससे किसानों और किसान समर्थकों और निष्पक्ष लोगों का ग़ुस्सा सोशल मीडिया पर फूट पड़ा। घटनास्थल पर मौज़ूद किसान भोला सिंह और किसान हरगोविन्द ने बताया कि पुलिस भले ही परेशान कर ले, चाहे देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर ले या अन्य धाराएँ लगा दे; लेकिन किसानों का आन्दोलन तीनों कृषि क़ानूनों की वापस तक ख़त्म नहीं होगा। अब किसान आन्दोलन एक नये मोड़ पर है, जहाँ किसान और सरकार के बीच विकट तनाव की स्थिति बनी हुई है।