किसानों को राहत देकर ही अपनी गर्दन छुड़ा सकती है सरकार

देश में तीन नये कृषि कानूनों को लेकर किसान आन्दोलन को बड़े रूप में करीब तीन महीने होने को आये हैं। इस आन्दोलन को खत्म करने के सरकार के प्रयास भी अब तक विफल हुए हैं और कानूनों को खत्म करने की किसानों की माँग भी सरकार ने नहीं मानी है। सरकार के आगे सवाल यह है कि कानून वापसी की ज़िद छोड़कर उसके गले की फाँस बने किसान किस शर्त पर आन्दोलन वापस लेंगे?

मेरे खयाल से कोई ऐसा रास्ता निकाला जाना चाहिए, जिससे किसानों को भी तकलीफ न हो और सरकार भी अपने फर्ज़ को पूरा कर सके। हालाँकि यहाँ सरकार को अपने अडयि़ल रुख में ज़्यादा नरमी लानी होगी। क्योंकि कोई भी सरकार जनहित के लिए चुनी जाती है, और इसीलिए सरकार को किसानों का हित पहले देखना होगा। ऐसे में अगर किसान इन नये कृषि कानूनों से खुश नहीं हैं, तो सरकार को इन पर न केवल विचार करना चाहिए, बल्कि उनमें से ऐसे हर नियम को हटा देना चाहिए, जो किसानों के हित में न हो। इसमें सबसे बड़ा और खराब नियम है कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग यानी ठेके पर खेती। क्योंकि सदियों से अपने बल-बूते पर खेती करने वाले किसानों के लिए ठेके पर खेती का न तो कोई औचित्य बनता है और न ही यह किसी भी हाल में उनके हित में है। वह भी तब, जब उसकी समस्याओं की सुनवाई किसी कोर्ट में न होकर डीएम-एसडीएम के यहाँ होगी।

जैसा कि सरकार भी जानती है कि आज़ाद भारत मे किसानों के साथ अभी तक पूरी तरह से न्याय नहीं हो सका है, जिससे कम जोत वाले किसान आज भी दु:खी हैं। देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी की निर्भरता आज भी कृषि पर है। ऐसे में मेरी राय में सरकार को कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहिए और किसानों के हित में कुछ ठोस और महत्त्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए। इसके लिए वर्तमान मोदी सरकार को अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से भी सीख लेनी चाहिए, जो पक्ष-विपक्ष के साथ-साथ विशेषज्ञों की राय लेकर काम किया करती थीं।

कानून वापसी से भी किसानों का नहीं होगा भला

अभी तक पूरे देश के किसान एक ही रट लगाये बैठे हैं कि तीनों कानून वापस होने चाहिए, तभी वे अपने-अपने घरों को वापस जाएँगे। लेकिन मेरा मानना यह है कि अगर सरकार तीनों नये कानूनों को वापस ले भी लेती है, तो भी किसानों का भला नहीं होने वाला। क्योंकि ऐसा करने से किसान फिर उसी दशा में रहेंगे, जिस दशा में वे पहले थे। कहने का मतलब यह है कि किसानों के साथ न्याय तो पहले भी कभी नहीं हुआ। मसलन अगर एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की ही बात करें, तो किसी भी मंडी में उनके अनाज को एमएसपी के भाव पर शायद ही अब तक लिया जाता है। और अगर किसी मंडी में एमएसपी पर उनके अनाज को लिया भी गया है या लिया जाता है, तो उस पर कई तरह के चार्ज, जिसे हम कृषि की भाषा में करदा या बट्टा कहते हैं; लगाकर उन्हें नुकसान पहुँचाया गया है। मसलन अनाज की गुणवत्ता में कमी बताकर, अनाज को गीला या परतीदार (कूड़े वाला) बताकर या फिर जल्दी तौल के नाम पर स्थानीय बिक्री केंद्र के कर्मचारियों द्वारा डंडी मारकर या कुछ ले-देकर अनाज खरीदने की शर्त पर। यानी किसान को चूना तो हमेशा ही लगता रहा है।

स्थानीय मंडियों पर तो यहाँ तक देखा गया है कि किसानों का अनाज न खरीदकर या कम खरीदकर मंडियों के कर्मचारी आड़तियों का अनाज खरीद लेते हैं। मंडियों में एक और बड़ी कमी हमेशा से देखी गयी है, वह यह कि किसानों को मंडियों पर अनाज बेचने में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, जिनमें अधिकतर दिक्कतें मंडी कर्मचारियों द्वारा ही खड़ी की जाती हैं। इससे छोटा किसान मजबूर होकर आड़तियों को कम भाव में अनाज बेच देता है। कहने का मतलब यह है कि अगर मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीनों कृषि कानून वापस ले लिये जाते हैं और किसानों की दशा सुधारने की कोई कोशिश नहीं की जाती है, तो भी किसानों को फायदा नहीं होगा और पहले की तरह ही हर साल हज़ारों किसान आत्महत्या जैसा अफसोसजनक कदम उठाते रहेंगे।

पाँच कानून बनने पर किसान नहीं रहेंगे दु:खी

मेरी समझ से सरकार किसानों को अगर वास्तव में फायदा पहुँचाना चाहती है, तो उसे पाँच कानून बनाने होंगे, जिनकी आज के समय में बड़ी सख्त ज़रूरत है। पहला कानून यह बनना चाहिए कि किसानों की किसी भी फसल के बाज़ार भाव का कम-से-कम 60 फीसदी उसे सीधे तौर पर मिलेगा, चाहे वह फसल सरकार खरीदे, आड़तिया खरीदे या दलाल खरीदे। यानी अगर फूल गोभी का बाज़ार में भाव 20 रुपये किलो का है, तो किसान को 12 रुपये का भाव मिलना चाहिए। बाकी आठ रुपये में ढुलाई, मंडी किराया, टैक्स, आड़तियों की आमदनी और फुटकर विक्रेता का लाभ तय होना चाहिए। इससे किसान भी सुखी रहेगा और बाकी लोगों को भी घाटा नहीं होगा। दूसरा कानून जमाखोरी पर लगाम कसने को लेकर बनना चाहिए। इस कानून के तहत सरकारी भण्डारों और कोल्ड स्टोरेज को छोड़कर, जिसमें किसानों के ही खाद्यान्न हों बाकी व्यापारियों को एक सीमित जमाखोरी की छूट होनी चाहिए, ताकि वे इसका बेजा लाभ न उठा सकें। तीसरा कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी को लेकर बनना चाहिए, जिसमें यह नियम होना चाहिए कि एमएसपी से कम में न तो किसी सरकारी खरीद केंद्र पर कुछ भी खरीदा जाएगा और न ही कोई व्यापारी उससे कम पर कुछ खरीद सकेगा। इसके अलावा इस कानून के तहत यह भी नियम बनना चाहिए कि किसानों के जितने भी खाद्यान्न, जैसे अभी तकरीबन 23 हैं, जिन्हें सरकार खरीदती है; के अलावा दूसरे खाद्यान्नों को भी हर खरीद केंद्र पर खरीदा जाएगा। इससे किसी भी किसान को दूसरे राज्य के खरीद केंद्रों का रुख नहीं करना पड़ेगा, जहाँ उसके अनाज खरीदने से भी इन्कार कर दिया जाता है।

चौथा कानून किसानों को बिना ब्याज के ऋण की उपलब्धता होनी चाहिए, जिससे छोटे किसान भी अच्छा उत्पादन कर सकें और उनकी खेती में रुचि जागे। पाँचवाँ, कृषि लागत और मूल्य आयोग का कानूनी तौर पर स्वायत्त यानी इनडिपेंडेंट बनाया जाए, जिसमें कृषि मंत्री, कृषि वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, विधिवेत्ताओं, कृषि विशेषज्ञों, योग्य किसान प्रतिनिधियों और व्यापारिक प्रतिनिधियों को सदस्यों के रूप में जोड़ा जाए, ताकि वे कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ किसान हित में सही निर्णय ले सकें।

मंडियों की बढ़ायी जाए संख्या

अभी तक हमारे भारत में तकरीबन साढ़े छ:-सात हज़ार मंडियाँ हैं। मेरा मानना यह है कि पूरे भारत में केंद्र सरकार को 20 से 25 गाँवों के बीच एक सरकारी खरीद मंडी यानी सरकारी क्रय केंद्र स्थापित करना चाहिए, जिससे पूरे देश में 42-43 हज़ार मंडियाँ हो जाएँगी। साथ ही इन मंडियों में अभी तक खरीद के लिए तय 23 खाद्यान्नों से अधिक खाद्यान्न खरीदें जाएँ, जिनमें फल, सब्ज़ी और दूध जैसे उत्पाद भी शामिल हों। ऐसा करने से किसानों को अपने उन उत्पादों के भी अच्छा भाव मिल जाएगा, जिन्हें व्यापारी कौड़ी भाव में खरीदकर शहरों में मोटे भाव में बेचते हैं।

मसलन अगर हम दूध का ही उदाहरण लें, तो अभी भी गाँवों में प्योर दूध 25 से 30 रुपये लीटर बिकता है, वही दूध शहरों में फेट (वसा) निकालने के बावजूद 60 से 80 रुपये लीटर बिकता है। अगर सरकार दूध की खरीद करने लगेगी, तो न केवल पशुपालक किसानों को दूध के बाजिव दाम मिलेंगे, बल्कि शहरों में अधिक-से-अधिक गाँवों से दूध आ सकेगा, जिससे मिलावटखोरी कम होगी और सरकार की आमदनी बढ़ेगी; जिससे राष्ट्र मज़बूत होगा। क्योंकि जीवन जीने के लिए जो भी सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, चाहे वह खाने की कोई चीज़ हो या अन्य इस्तेमाल की कोई चीज़, या तो वह सीधे ग्रामीण क्षेत्रों से ही आती है या फिर उसका कच्चा माल ग्रामीण क्षेत्रों से आता है। यानी अगर सीधे शब्दों में कहें तो ग्रामीणों के बगैर शहरी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में सभी तरह के उत्पादनकर्ताओं यानी किसानों को और अधिक बढ़ावा देने की ज़रूरत है।

विकसित देशों से सीखे सरकार

हमें यह कहने का हक नहीं है कि सरकार को किससे सीखना चाहिए और किससे नहीं। लेकिन आज समय की माँग है; इसलिए मुझे कहना पड़ रहा है कि मोदी सरकार को दुनिया के विकसित देशों की सरकारों से सीखने की ज़रूरत है। मसलन हमारे यहाँ किसान को सब्सिडी न के बराबर, तकरीबन तीन से छ:-साड़े छ: फीसदी तक ही दी जाती है; जबकि सरकार को किसानों को कम-से-कम 10 फीसदी सब्सिडी देनी चाहिए। वर्तमान में यह बहुत कम, करीब तीन फीसदी ही है। अगर मैं अमेरिका की बात करूँ, तो वहाँ के किसानों को 62 हज़ार डॉलर यानी भारतीय मुद्रा में तकरीबन 45 लाख रुपये साल की सब्सिडी मिलती है। यह एक उदाहरण है, जो यह बताता है कि सब्सिडी उद्योगपतियों को ही नहीं, किसानों को भी मिलनी चाहिए। चाहे वह ज़मीन की नपत के हिसाब से ही मिले। जैसे स्विटजरलैंड में करीब 3,000 यूरो, भारतीय मुद्रा में तकरीबन ढाई लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की सब्सिडी सरकार किसानों को देती है।

आन्दोलन से लगातार बढ़ रहा घाटा

यह बात सभी जानते हैं कि किसान आन्दोलन जितना लम्बा खिंचेगा, उतना ही नुकसान देश को होगा। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह जल्द-से-जल्द किसानों की समस्याओं का समाधान करे और इस किसान आन्दोलन को शान्तिपूर्वक समाप्त करने की पहल करे। एक अनुमान के मुताबिक, किसान आन्दोलन से अब तक 10 लाख करोड़ से अधिक का घाटा हो चुका है। भारतीय वाणिज्य एंव उद्योग मण्डल (एसोचैम) भारत के वाणिज्य संघों की प्रतिनिधि संस्था ने सरकार को पहले ही आगाह कर दिया था कि किसान आन्दोलन से हर रोज़ तकरीबन साढ़े तीन हज़ार (3,500) करोड़ का घाटा हो रहा है। एसोचैम ने दिसंबर के मध्य में ही सरकार को चेताया था कि वह जल्द-से-जल्द आन्दोलन खत्म करने का रास्ता निकाले अन्यथा देश की अर्थ-व्यवस्था को भारी नुकसान होगा। मेरा भी यही मानना है कि आन्दोलन से देश और देशवासियों का ही नुकसान होगा।

क्या दूसरे देशों को भी राह दिखा रहा है किसान आन्दोलन?

ऐसा नहीं है कि केवल हमारे देश का ही किसान सरकार की नीतियों से दु:खी है। अगर आँकड़ों पर बात की जाए, तो दुनिया के तकरीबन 100 से अधिक देशों के किसान कई तरह के दबाव में हैं और परेशान हैं। लेकिन अगर हम अपने देश की बात करें, तो आज यहाँ के लगातार बढ़ते किसान आन्दोलन की आवाज़ अब दुनिया भर में गँूजने लगी है। ऐसे में माना जा रहा है कि यह आन्दोलन दूसरे उन कई देशों के किसानों के लिए रौशनी की किरण बन रहा है, जहाँ के किसानों की दिक्कतें भी हमारे यहाँ के किसानों की तरह हैं। हालाँकि अभी तक किसी देश के किसानों ने अपनी सरकारों के खिलाफ आन्दोलन नहीं किया है, लेकिन इस बात का अहसास इससे किया जा सकता है कि दूसरे देश के सामाजिक कार्यकर्ता, उद्योगपति, किसान और यहाँ तक कि नेता भारतीय किसानों के समर्थन में उतरने लगे हैं। मेरा मानना है कि अगर भारतीय किसान सरकार से अपनी लड़ाई जीत जाते हैं, तो निश्चित ही दूसरे देशों, खासकर भारत के पड़ोसी देशों के किसानों के हौसले बुलंद होंगे और उन्हें अपनी समस्याओं के अपनी सरकारों के सामने रखने की हिम्मत मिलेगी।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)