किसानों को नहीं मिल रही तरबूज की मिठास

कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन से किसान हुए बेहाल

तरबूज ज़ायद मौसम की प्रमुख फ़सल है, जो दिसंबर-जनवरी से शुरू होती है। मार्च अन्त से अप्रैल पहले सप्ताह के बीच तरबूज बाज़ार में आने लगता है। अप्रैल, मई और मध्य जून तक बिक्री होती है। मानसून आने के बाद धीरे-धीरे बिक्री कम हो जाती है। यह कम समय में पैदा होने वाली अच्छे मुनाफ़े वाली फ़सल मानी जाती है। लेकिन कोरोना संक्रमण और तालाबंदी ने तरबूज की खेती करने वाले किसानों की कमर तोड़कर रख दी है। रही सही क़सर यास तूफ़ान के कारण बे-मौसम बारिश ने पूरी कर दी। उन्हें उनकी फ़सल का उचित मूल्य नहीं मिल पाया। गिने-चुने कुछ किसानों को थोड़ी-बहुत कमायी हुई भी; लेकिन ज़्यादातर किसान तो लागत मूल्य भी ब-मुश्किल से निकल पाया, तो कुछ किसानों के लिए यह खेती घाटे का सौदा रही। हालाँकि किसानों की बातों से कृषि और हॉर्टिकल्चर विभाग के अधिकारी सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि किसानों को मुनाफ़ा तो हुआ है, लेकिन कम हुआ। ऐसा नहीं है कि उन्हें लागत मूल्य के लिए मोहताज होना पड़ा हो। कुछ किसानों को ओलावृष्टि और यास तूफ़ान के कारण क्षति हुई है। उन्हें मुआवज़ा देने की प्रक्रिया चल रही है।

परेशानी में किसान
देश में किसानों की आय दोगुनी करने की बात लम्बे समय चल रही है। केंद्र से लेकर भाजपा शासित राज्य सरकारें तक इसके लिए प्रयास करने का दावा करती हैं। ह$कीक़त लोगों के सामने है। आज भी देश के किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पाता है। अगर देश के किसान ख़ुशहाल होते, तो किसान आन्दोलन नहीं हो रहा होता। हालाँकि दिल्ली के किसान आन्दोलन का असर झारखण्ड में उतना देखने के लिए नहीं मिल रहा, लेकिन यहाँ के किसान इसकी चर्चा ज़रूर करते हैं। खूंटी के किसान वीरेंद्र साहू कहते हैं कि किसान तो हमेशा से मरता रहा है। जिस तरबूज की क़ीमत हमें खेत में 10-15 रुपये किलो मिलनी चाहिए, वह दो से पाँच रुपये किलो में बिक रहा है। बमुश्किल लागत मूल्य मिल जाए, तो बहुत है। सरकार से मदद की उम्मीद तो बेकार ही है। सरकार केवल आय दोगुनी की बात करती है। पाँच साल में कितने किसानों की स्थिति बदली है, देख लें। उनके घर की स्थिति देखकर ही आमदनी का अंदाज़ा लग जाएगा। किसान या तो आन्दोलन करें या क़र्ज के तनाव में आत्महत्या करें।
कृषि विभाग के अधिकारी भले ही किसानों को घाटा होने की बात न क़ुबूलें, लेकिन किसान वीरेंद्र साहू की बात ज़मीनी स्तर पर भी महसूस की जा सकती है। राज्य के हर ज़िला के गाँव से लेकर शहर तक तरबूज पटा हुआ है। हर किसान कुछ दूरी पर तरबूज बेचते हुए लोग दिख जाते हैं। जब अप्रैल की शुरुआत में तरबूज शहरी क्षेत्र के बाज़ार में उतरा था, तब 20 से 25 रुपये प्रति किलो था। तालाबंदी की स$ख्ती और अंतर्ज़िला व अंतर्राज्यीय अवागमन पर रोक लगने के बाद तरबूज का भाव 10 रुपये किलो तक गिर गया। इसके बाद झारखण्ड में यास तूफ़ान का असर 25-26 मई से पड़ा। रही सही क़सर बे-मौसम की बारिश ने पूरी कर दी। शहर के बाज़ार में 5-7 रुपये किलो तरबूज बिकने लगे। वहीं किसान खेतों में दो रुपये किलो तक बेचने को मजबूर हो गये। जून के पहले सप्ताह से आम और लीची के बाज़ार में आने के बाद तो तरबूज का बाज़ार लगभग ख़त्म ही हो गया। किलो की बिक्री की जगह 5-7 रुपये में एक तरबूज (तीन-चार किलो का) देने के लिए भी तैयार थे। बीते साल 2020 में कोरोना की पहली लहर और लॉकडाउन में थोड़ा असर हुआ। इस वर्ष पिछले घाटा को पाटने के लिए अधिक क्षेत्र में पैदावार किया गया। इस वर्ष भी कोरोना, तालाबंदी और तूफ़ान ने किसानों की सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।

तरबूज की खेती का क्षेत्रफल
अगर झारखण्ड की बात करें, तो बड़े पैमाने पर मुख्य रूप से रांची, खूंटी, लोहरदगा, गुमला और पू. सिंहभूम ज़िले में तरबूज की खेती होती है। इसके अलावा छोटे-छोटे स्तर पर कई अन्य ज़िलों में भी खेती होती है। हॉर्टिकल्चर विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, राज्य में इस बार 2,382 हेक्टेयर में तरबूज की खेती की गयी है और लगभग 94,188 मैट्रिक टन उत्पादन हुआ। यह पिछले साल की तुलना में थोड़ा
अधिक है।

बिक्री की चेन पर पड़ा असर
नौकरी छोड़ कर पहली बार तरबूज की खेती करने उतरे सत्येंद्र कुमार कहते हैं एक एकड़ में तरबूज की खेती पर लगभग 60 हज़ार रुपये ख़र्च होते हैं। इसमें बीज, पानी, मज़दूरी आदि सभी ख़र्च शामिल हैं। एक एकड़ में 15 से 20 टन की उपज होती है, जिससे एक से डेढ़ लाख रुपये की कमायी होती है। उन्होंने कहा कि जिन किसानों में 15-20 अप्रैल तक तरबूज बेचा, उन्हें अच्छी क़ीमत मिल गयी। इसके बाद कोरोना संक्रमण बढऩे और तालाबंदी के कारण स्थिति ख़राब हो गयी। बंगाल और उड़ीसा में भी तालाबंदी हो गयी। राज्य के बाहर और अन्दर के व्यापारी खेत तक बहुत ही कम पहुँचने लगे। बिक्री लगभग बन्द हो गयी।
हर साल सीजन में तरबूज की खेती करने वाले राज किशोर कहते हैं कि पिछले वर्ष अन्तिम समय तक पाँच रुपये प्रति किलो तक रेट गया था। इस वर्ष डेढ़ से दो रुपये किलो पहुँच गया। उससे पहले यानी 2019 में अन्तिम रेट 10 रुपये प्रति किलो तक गया था। इस बार तो अन्तिम समय में थोड़े तरबूज खेत में भी सड़ गये।
सबसे अधिक मार छोटे स्तर पर तरबूज पैदा करने वाले किसानों पर पड़ी। कई किसान बैंक या साहुकार से क़र्ज़ लेकर खेती किया। ऐसे ही रांची के बेड़ो प्रखण्ड के प्रेम महतो और चंद्रमोहन महतो ने बताया कि बैंक से क़र्ज़ लेकर सात एकड़ में तरबूज में खेती की थी। पूरा परिवार तीन महीने तक इसके पीछे लगा रहा। जब बेचने का समय आया तो कोरोना संक्रमण बढ़ गया, लॉकडाउन लग गया और बारिश हो गयी। ख़रीददार खेतों तक नहीं आये। शहर जा कर किसी तरह से थोड़ी बहुत तरबूज बेच पाये। इस बार लागत भी नहीं निकल पायी।
तरबूज का कारोबार करने वाले व्यापारी आशुतोष कुमार ने बताया कि शुरू में रेट ठीक था। शहरी क्षेत्र में 20-25 रुपये प्रति किलो तरबूज बिका। लॉकडाउन में स्थिति थोड़ी ख़राब हुई। बिक्री का चेन टूट गया। क़ीमत अचानक से 5-10 रुपये पर आ गयी। इसके बाद यास तूफ़ान में बारिश के कारण मौसम थोड़ा ठंडा हो गया। साथ ही बाज़ार में आम और लीची उतर गया। नतीजतन मई अन्तिम सप्ताह से जून पहले हफ्ते के बीच क़ीमत दो से पाँच रुपये प्रति किलो पहुँच गया। जून पहले सप्ताह के बाद तो दो रुपये किलो पर भी ख़रीददार मिलना कम हो गया।

विभाग का दावा बेचने की व्यवस्था हुई

कृषि विभाग के अधिकारियों का दावा है कि किसानों को तालाबंदी के दौरान मंडी में तरबूज बेचने के लिए विशेष व्यवस्था की गयी थी। शुरू में उन्हें अच्छा रेट भी मिला था। बाद में रेट थोड़ा कम मिला, लेकिन किसानों को घाटा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि किसानों का तरबूज शहर तक पहुँचे, उन्हें मंडी में जगह मिले, यह सारी व्यवस्था की गयी। इसका लाभ किसानों को मिला।

 

 

“किसानों को तरबूज की खेती का नुक़सान नहीं उठाना पड़े इसका पूरा प्रयास किया गया है। ओला वृष्टि और चक्रवात से कुछ किसानों को नुक़सान हुआ था। राज्य के 24 ज़िलों में 21 ज़िलों से रिपोर्ट मिली इस आधार पर आपदा प्रबन्धन विभाग से 1.30 करोड़ रुपये किसानों को क्षतिपूर्ति के लिए मुहैया कराया गया है और अभी भी आकलन कार्य जारी है। तालाबंदी का असर कम करने के लिए बाज़ार समिति और ई-नैम के ज़रिये बायर और सेलर की मीटिंग करा कर तरबूज बिकवाने का निर्देश दिया गया। तरबूज की बिक्री के लिए सुविधा केंद्र की व्यवस्था की गयी। जहाँ काफ़ी संख्या में किसान और ख़रीदार पहुँचे।”
बादल
कृषि मंत्री, झारखण्ड सरकार

 

 

“मैंने क़रीब 31 एकड़ ज़मीन पर तरबूज की खेती की। इसमें लगभग 400 टन तरबूज हुए थे। बंगाल में जब तक लॉकडाउन नहीं लगा था, तब तक तरबूज का ठीक दाम मिल रहा था। खेत से सात रुपये प्रति किलो बेच रहे थे। बंगाल और झारखण्ड में तालाबंदी के बाद क़ीमत अचानक गिर गयी। इसके बाद यास तूफ़ान के कारण बारिश से और बरबादी हुई। पिछले साल अन्तिम रेट पाँच रुपये किलो तक था और फ़सल बर्बाद नहीं हुआ था। इस बार अन्तिम रेट दो रुपये तक गया और लगभग 40 टन तरबूज खेत में बर्बाद हो गया। किसी तरह से लागत मूल्य मिल पाया। कुछ किसानों को तो घाटा भी हुआ है।”
राजकिशोर
किसान