किसानों के शोषण का इतिहास और अब तक के किसान आंदोलन

हाल ही में केंद्र सरकार ने कृषि उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक-2020, कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्‍वासन् और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020 और वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 पास किये। हालाँकि किसानों और विपक्षी दलों के ज़बरदस्त विरोध पर इन तीनों विधेयकों के खिलाफ भाजपा पक्ष के दल भी हो गये हैं। यूँ तो किसानों के शोषण का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन इस आधुनिक और समानता के युग में भी किसानों की दशा खराब है, यह उचित नहीं लगता है। आज दुनिया के कई देशों के किसान, जो कभी गुलामों की ज़िन्दगी जीते थे; भारत के रईसों की-सी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। वहीं जिस भारत के किसान को अन्नदाता और पालनहार कहा गया, वह इतना दु:खी है कि परिवार का मोह छोड़कर आत्महत्या करने जैसा वीभत्स कदम तक उठा लेता है। और यह यूँ ही नहीं होता, बल्कि इसके पीछे एक लम्बे समय की प्रताडऩा, विकट पीड़ा और दिन-रात मेहनत करके रूखी-सूखी खाकर गुज़ारा करने के बावजूद लगातार बढ़ते कर्ज़ तथा हद से ज़्यादा गरीबी के चलते मानसिक अवसाद होता है।

हालाँकि जब-जब किसानों यह पीड़ा असहनीय हुई है, तब-तब उन्होंने आंदोलन भी किये हैं। और इन आंदोलनों ने सरकारों की चूलें हिला दी हैं। ऐसे ही कुछ आंदोलन जो गुलामी के दौर से अब तक हुए हैं, इतिहास में दर्ज हो चुके हैं। इन आंदोलनों में सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध हैं- पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली आंदोलन। सन् 1857 के असफल जन विद्रोह के बाद किसानों ने ही अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला था। दरअसल किसानों के आंदोलन तभी हुए हैं, जब उनकी ज़मीन या खेती पर से उनके हक को छीनने की कोशिश की गयी है या देश पर आँच आयी है। किसान आंदोलनों का इतिहास बहुत पुराना है। इममें सन् 1874 का दक्कन विद्रोह को आज भी बड़े किसान विद्रोह में गिना जाता है। देश अधिकतर भूभाग पर चला यह में फला-फूला यह किसान विद्रोह सूदखोर साहूकारों के खिलाफ दक्षिण भारत में शुरू हुआ। यह आंदोलन शिरूर तालुका के करडाह गाँव बाबा साहिब देशमुख नामक एक किसान के खिलाफ एक सूदखोर कालूराम द्वारा अदालत से घर की नीलामी की डिग्री प्राप्त करने के बाद शुरू हुआ था। देखते-देखते यह आंदोलन पूरे भारत में साहूकारों के खिलाफ शुरू हो गया और अन्त में साहूकारों को दबना पड़ा। इसी तरह एका आंदोलन उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ। यह आंदोलन अनाप-शनाप लगान वसूली के खिलाफ था। इस आंदोलन के सूत्रधार पंडित मदन मोहन मालवीय कहे जा सकते हैं; क्योंकि उनके दिशा-निर्देशन में होमरूल लीग के कार्यकताओं ने सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में किसान सभा का गठन किया। इस किसान सभा ने बहुतायत में लगान वसूली के विरोध में सन् 1919 में एका आंदोलन शुरू कर दिया, जिससे लगान वसूलने वालों में खलबली मच गयी थी। कूका विद्रोह कृषि सम्बन्धी समस्याओं की अनदेखी करने वाली अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चला था। दरअसल कूका संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। उन्होंने ही कूका आंदोलन चलाया और बाद में सन् 1872 में उनके शिष्य बाबा रामसिंह ने इस आंदोलन को और उग्र किया। इस आंदोलन से अंग्रेज इतने तनाव में आ गये कि उन्होंने बाबा रामसिंह को गिरफ्तार करके रंगून (अब यांगून) भेज दिया, जहाँ सन् 1885 में उनका स्वर्गवास हो गया और इधर धीरे-धीरे यह विद्रोह शान्त हो गया। रामोसी किसानों का विद्रोह महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने किया, जो ज़मींदारों के अत्याचारों के खिलाफ था। इस विद्रोह की देखा-देखी आंध्र प्रदेश में भी ज़मींदारों के खिलाफ विद्रोह की आग भड़क उठी, जिसके अगुआ सीताराम राजू थे। वह औपनिवेशिक शासन के सख्त खिलाफ थे। यह आंदोलन सन् 1879 से लेकर सन् 1920 तक खूब चला, लेकिन सन् 1922 आते-आते ठंडा पडऩे लगा। इस आंदोलन को भी अंग्रेजों और ज़मींदारों ने साज़िश करके तोड़ दिया। मुंडा आंदोलन भी अंग्रेजों के खिलाफ था, जिसे मुंडा आदिवासियों ने बिरसा मुंडा के नेतृत्व में छेड़ा था। यह आंदोलन अंग्रेजों के जल, जंगल, ज़मीन हड़पने की नीति के खिलाफ था, जो एक प्रकार से किसान आंदोलन ही था। इस आंदोलन से प्रेरित होकर आदिवासी क्षेत्र के आसपास के किसानों को काफी प्रोत्साहन मिला था। इसी तरह ताना भगत आंदोलन बिहार से सन् 1914 में शुरू हुआ। यह आंदोलन लगान की ऊँची दरों, मोटे ब्याज और चौकीदारी कर के खिलाफ किया गया था। यह आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार जतरा भगत थे। मोटे कर के खिलाफ होने के साथ-साथ यह एक धार्मिक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ, लेकिन इसके राजनीतिक लक्ष्य थे। इसके पीछे का मकसद आदिवासियों को संगठित करके नए पंथ का निर्माण करना था। इसे बिरसा मुंडा आंदोलन का ही विस्तार कहा गया, क्योंकि इसमें मुंडा आंदोलन के मानदंड भी निर्धारित किये गये थे। मोपला विद्रोह केरल के मालाबार क्षेत्र से मोपला किसानों द्वारा सन् 1920 में शुरू हुआ। यह विद्रोह अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ था। इस आंदोलन के मुख्य अगुआ अली मुसलियार थे। इस आंदोलन को उस समय के बड़े क्रान्तिकारियों का सहयोग भी मिला; लेकिन बाद में अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी से इस किसान आंदोलन को हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच साम्प्रदायिकता का रंग देकर कुचल दिया। इसी तरह तेभागा आंदोलन सन् 1946 में शुरू हुआ। यह बंगाल का तेभागा आंदोलन सर्वाधिक सशक्त आंदोलन था, जिसमें किसानों ने फ्लाइड कमीशन की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक-तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। बंगाल का तेभागा आंदोलन को तकरीबन 50 लाख किसानों और खेतिहर मज़दूरों का समर्थन मिला। इसके बाद तेलंगाना आंदोलन आंध्रप्रदेश में ज़मींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू हुआ।

इसके अलावा इतिहास में सन् 1921 में अलवर में सुअर पालन विरोधी आंदोलन हुआ, सन् 1923 में नीमूचणा किसान आंदोलन हुआ, जो अलवर के महाराजा जयसिंह द्वारा लगान की दर बढ़ाने के खिलाफ था। मारवाड़ में सन् 1923 में मारवाड़ हितकारी सभा द्वारा किसान आंदोलन किया गया। सन् 1926 में बूंदी किसान आंदोलन हुआ, जिसके सूत्रधार पंडित नैनू राम शर्मा थे। यह आंदोनल बूंदी के किसानों ने लगान लाग बाग की ऊँची दरों के खिलाफ था। इस आंदोलन को कुचलने के लिए इन पर गोलियाँ दागी गयीं, जिसमें नानकजी भील नाम के किसान शहीद हो गये थे। राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा और आसपास के स्थानों पर भील समुदाय के किसानों और पशुपालकों ने अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा आंदोलन छेड़ा, जिसमें मध्य प्रदेश के किसानों ने भी भाग लिया। इस आंदोलन के सूत्रधार भक्ति मार्ग के संत भीलों के गुरु ‘गुरु गोविंद’ थे। इस आंदोलन को कुचलने के लिए राजस्थान डूंगरपुर और गुजरात रियासतों ने अंग्रेजों से मिलकर किसानों और पशुपालकों पर गोलियाँ और गोले दाग दिये थे, जिसमें हज़ारों की संख्या में भील किसान और पशुपालक उनके बीवी-बच्चे मारे गये थे।

सन् 1847 में बिजोलिया किसान आंदोलन मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था, जो अंग्रेजों के खिलाफ तो था ही, भारत के ज़मींदारों की अनाप-शनाप कर वसूली के खिलाफ भी था। राजस्थान की ज़मीन से उठे इस आंदोलन का प्रभाव इतना ज़बरदस्त था कि पूरे भारत किसानों ने ज़मींदारों के खिलाफ जंग छेड़ दी थी। यहाँ तक कि विजय सिंह पथिक को दिन-रात पुलिस ढूँढती रहती थी। यह आंदोलन करीब 50 साल तक यानी भारत को आज़ादी मिलने तक चला। लेकिन दुर्भाग्य यह था कि विजय सिंह पथिक को लोगों ने आज़ादी मिलते ही भुला दिया। इसके अलावा अखिल भारतीय किसान सभा ने सन् 1923 में एक आंदोलन छेड़ा, जो बिहार किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद सरस्वती में शुरू हुआ। सन् 1928 में आंध प्रान्तीय रैय्यत सभा की स्थापना करने वाले एनजी रंगा ने भी एक आंदोलन छेड़ा, जो काफी समय तक चला। इसी तरह उड़ीसा में मालती चौधरी ने उत्‍कल प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना की और ज़मींदारी प्रथा के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ा।

देश में आज़ादी के बाद भी अनेक किसान आंदोलन हुए। अगर हाल तीन दशक की बात करें, तो चौधरी चरण सिंह ने देश में किसान समस्याओं के समाधान के लिए सन् 1977 से 79 के बीच और उसके बाद भी अनेक आंदोलन छेड़े, इनमें गन्ना किसानों के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया। इसी तरह चौधरी बंसी लाल, चौधरी देवी लाल ने भी कई किसान आंदोलन खड़े किये। बाद में ये सभी किसान नेता राजनीति में आ गये। हालाँकि अब कोई किसान नेता इन नेताओं की तरह जनसमर्थन वाला नहीं है। इसके अलावा भट्टा पारसौल का किसान आंदोलन बहुत प्रभावशाली था। इस आंदोलन के सूत्रधार कुछ चौधरी किसान थे, जिन्होंने चौधरी केसरी सिंह के नेतृत्व में यह आंदोलन किया। इस आंदोलन का समर्थन करने वाले कई नेता आज भी मंत्री हैं। पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह भी इस आंदोलन के सूत्रधार चौधरी केसरी सिंह से व्यक्तिगत तौर पर जुड़े थे।

2017 में मध्य प्रदेश में मंदसौर किसान आंदोलन बहुत बड़ा आंदोलन था। इस आंदोलन को कुचलने के लिए शिवराज सरकार में पुलिस ने किसानों पर गोलियाँ चला दी थीं। यह आंदोलन किसानों की कुछ माँगों को लेकर था, जिसमें कर्ज़ माफी एक खास माँग थी। इसके अलावा सन् 2018 में महाराष्ट्र में किसान आंदोलन शुरू हुआ, यह भी कर्ज़ माफी की माँग को लेकर किया गया बड़ा आंदोलन था। यह आंदोलन भी भाजपा सरकार में ही हुआ, जिसे कुचलने की हर सम्भव कोशिश की गयी। लेकिन किसानों के उग्र प्रदर्शन और सब्ज़ियों तथा दूध के सड़कों पर बिखरने के अलावा दुनिया भर की निंदा झेल रही महाराष्ट्र सरकार में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने आखिर किसानों को कई आश्वासन देकर समझौता किया। जून, 2018 के शुरू में चला 10 दिन का बन्द आंदोलन भी काफी उग्र था। इसके अलावा इतिहास में कई आंदोलन ऐसे भी हुए हैं, जो किसानों अर्धनग्न होकर किये। इनमें तमिलनाडु के किसानों का दिल्ली के जंतर-मंतर पर किया गया आंदोलन सबसे ज़्यादा परेशान कर देने वाला था। सन् 2017 में इस आंदोलन में भाग लेने वाले किसानों ने अपना पेशाब तक पिया और चूहों को भी खाया। यह आंदोलन सूखे की मार झेल रहे किसानों ने कर्ज़ माफी के लिए किया था, क्योंकि ठीक एक साल पहले तमिलनाडु के सैकड़ों किसानों ने कर्ज़ के बोझ से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। इससे पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर ही कई किसान आंदोलन हो चुके हैं। हरियाणा में पैगां पैक्स घोटाले पर जींद और मंदसौर के किसानों ने आंदोलन किया था, जो पूरे हरियाणा में फैला था। पिछले साल हुई बारिश से खराब हुई नरमा कपास की फसल की विशेष गिरदावरी करवाने और मुआवज़े की माँग को लेकर किसानों ने अर्धनग्न होकर विरोध-प्रदर्शन किया।

दु:खद यह है कि सीधे-साधे किसानों को आज भी वो सम्मान और मेहनताना नहीं मिलता, जिसके वे हकदार हैं। किसान कड़ी मेहनत करके भी कम पारिश्रमिक मिलने पर खामोश रहते हैं और अगर कभी बहुत अत्याचार उन पर होता है, तो वे आंदोलन करते हैं। लेकिन उनकी माँगों को अधिकतर अनसुना, अनदेखा करके उनके आंदोलनों को कुचल दिया जाता है या फिर उन्हें आश्वासन देकर शान्त कर दिया जाता है।