किलों के प्यार ने जिसे भारतीय बना दिया था

imgफ्रांसिस का जन्म एक पुर्तगाली जहाज पर हुआ जो उनके परिवार को फ्रांस से क्यूबा ले जा रहा था. साढ़े चार साल क्यूबा में रहने के बाद फ्रांसिस का परिवार वापस फ्रांस चला गया और दो साल बाद मोरक्को. मोरक्को में आठ साल रहने के बाद, जहां फ्रांसिस ने स्कूली शिक्षा हासिल की, उनका परिवार वापस फ्रांस आकर बस गया जहां उन्होंने कॉलेज और एमबीए किया. फिर आगे की पढ़ाई के लिए वे एक साल ब्रिटेन में रहे. इसके बाद फ्रांस का नागरिक होने के नाते एक साल की अनिवार्य मिलिट्री ट्रेनिंग के लिए जर्मनी भेजे गए. अगले दो साल मैक्सिको और ब्राजील में गुजारने के बाद उन्होंने भारत का रुख किया. पिछले 41 साल से फ्रांसिस यहीं रह रहे थे.
तहलका ने कुछ समय पहले उनसे मुलाकात की थी. खुद को आखिरी समय तक वामपंथी मानने वाले फ्रांसिस पहली बार भारत 1969 में एक कट्टर वामपंथी पत्रकार दोस्त के साथ आए जो नक्सलबाड़ी आंदोलन कवर करना चाहता था. ये दोनों कई वामपंथी नेताओं से मिले जिनमें ईएमएस नंबूदिरीपाद  (केरल और देश की पहली वामपंथी सरकार के मुख्यमंत्री) भी थे. तहलका से बात करते हुए उनका कहना था, ‘नंबूदिरीपाद बेहद अच्छे इंसान थे, खुले विचारों के और सीधा बोलने वाले. काफी संपन्न और रुढ़िवादी परिवार से होने के बाद भी उन्होंने अपना सब-कुछ छोड़ कर लोगों के लिए काम किया.’ लेकिन बाद में फ्रांसिस नंबूदिरीपाद की विचारधारा के विरोधी हो गए.उनका कहना था, ‘तब मैं सिर्फ 26 का था. उस उम्र में समाज को बदलने और चीजों को सुधारने को लेकर आप ज्यादा उत्साहित रहते हैं. लेकिन आज जब पलट कर देखता हूं तो काफी मुद्दों पर उनका नजरिया सही नहीं लगता.’ उसी दौरान वे फ्रांसिस मृणाल सेन और सत्यजीत रे के भी करीब आए. उस दौर की नई धारा के सिनेमा के आंदोलन में भी शामिल हुए और श्याम बेनेगल, कुमार साहनी, मणि कौल जैसे दिग्गजों के साथ काम भी किया.

दूसरी तरफ पत्रकार दोस्त यहां वामपंथ की हालत से नाराज एक महीने में ही वापस लौट गया मगर फ्रांसिस अगले तीन महीनों के लिए यहीं रुक गए. उन्हें भारत से प्यार हो गया था. कुछ लव एट फस्ट साइट जैसा. उन्होंने ट्रेन के थर्ड क्लास डिब्बे से लेकर लोकल बसों में सफर किया. इस देश के आम लोगों को करीब से जाना और उनसे खूब बातचीत की. लोगों के साथ यह संपर्क ही वह चीज थी जिसकी तरफ फ्रांसिस सबसे ज्यादा आकर्षित हुए. मगर उन्होंने हमेशा के लिए भारत में रुकने का फैसला कर्नाटक में एक गरीब जुलाहों के गांव में कुछ हफ्ते बिताने के बाद लिया. बकौल फ्रांसिस, ‘उस गांव की जगह अगर दिल्ली या मुंबई में वह वक्त गुजारता तो शायद मैं यहां रहने का फैसला नहीं करता. वह भारत के साथ मेरे लव अफेयर की शुरुआत थी.’

इसके बाद फ्रांसिस ने मुंबई स्थित फ्रांस के वाणिज्य दूतावास में सहायक वाणिज्य आयुक्त की नौकरी कर ली. वहीं फ्रांसिस के घरवालों ने उनके फैसले का समर्थन तो किया मगर चिंता भी जताई. दरअसल 1970 के उस दौर में बाहर देशों में भारत की पहचान गाय, फकीर, गरीबी और गंदगी के तौर पर ही थी.

कुछ साल बाद 1977 में फ्रांसिस शेखावटी के भित्तिचित्रों पर अपने दोस्त अमरनाथ के साथ मिलकर लिखी जा रही एक किताब के सिलसिले में राजस्थान के सीकर और झुंझुनू जिलों में गए. यहां शोध के दौरान उन्होंने पहली बार नीमराना किले को देखा जो पिछले 40 सालों से खंडहर था. इस किले के बारे में फ्रांसिस का कहना था ‘उस किले को देख कर हमें उससे इस कदर प्यार हो गया कि हमने 1986 में वहां के महाराजा से उसे सात लाख में खरीद लिया. उस समय हमें नहीं पता था कि हम इसे होटल में तब्दील करेंगे. लेकिन बाद में जब हमने कुछ कमरों का नवीनीकरण कर अपने दोस्तों को दिखाया तो उन लोगों ने इसे इतना पसंद किया कि वे यहां रहने चले आए. हम लोगों को पता चलता उससे पहले ही नीमराना किला एक होटल बन चुका था.’

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नीमराना किला जिसे नवीनीकरण करने के बाद होटल में बदल दिया गया.

नीमराना होटलों की श्रृंखला के तहत अब तक 26 पुराने महलों, किलों और इमारतों का नवीनीकरण कर उन्हें हेरीटेज होटलों में तब्दील किया जा चुका है. नीमराना के हर होटल में वहां की स्थानीय संस्कृति को तरजीह दी जाती है और शिल्पकृतियां और फर्नीचर भी स्थानीय होते हैं. यहां नामचीन कालेजों से प्रोफेशनल नहीं लिए जाते और एमबीए डिग्री वाले भी कम ही हैं. हर होटल में उस जगह के स्थानीय लोगों को नौकरी दी जाती है. फ्रांसिस ने ऐसा जानबूझकर किया था. उनके मुताबिक वे दो चीजों के प्रति प्रतिबद्ध थे, स्थानीय लोगों को मौका देने और धरोहरों का संरक्षण करने के लिए.

दूसरे लोगों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि उनके कई होटलों में ऐसे लोग काम करते हैं जो शुरू में उनके लिए पत्थर काटा करते थे या दीवारों का निर्माण करते थे. वे लोग आज वेटर, कैप्टन से लेकर मैनेजर तक हैं. इस अपरंपरागत सोच की एक वजह शायद यह भी है कि खुद फ्रांसिस कभी व्यवसायी नहीं रहे. उनके दोस्त भी ऐसे ही थे जिनमें किसी के पास होटल मैनेजमेंट की डिग्रियां नहीं थीं.

नीमराना के ज्यादातर होटलों का नवीनीकरण पुराने परंपरागत तरीकों से होता है. यह काम उन मिस्त्री और कारपेंटरों का है जो पुरानी विधा में पारंगत होने की वजह से आज भी झरोखे, वृत्ताकार छत वगैरह बनाने में माहिर हैं. ये लोग चूना और पत्थर से दीवारें बनाते हैं और आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करने से बचते हैं. यह जानकर किसी को भी हैरत हो सकती है कि फ्रांसिस ने नीमराना होटलों के निर्माण में जिस चूने का उपयोग किया उसकी पिसाई का काम ऊंटों द्वारा ही हुआ था. फ्रांसिस का कहना था, ‘ आपको ज्यादातर नीमराना होटलों के कमरों में न टीवी मिलेगा न टेलीफोन. साथ ही रूम सर्विस का भी प्रावधान नहीं है. इसलिए शुरुआत में हमारे होटलों में भारतीय कम ही आते थे क्योंकि उन्हें ज्यादा आवभगत की आदत होती है लेकिन धीरे-धीरे लोगों को हमारा फलसफा समझ आने लगा और अब हमारे यहां आनेवालों में ज्यादातर भारतीय ही हैं.’

अगर रूपक में बात करें तो फ्रांसिस नावों के एक ऐसे समूह का हिस्सा रहे जो कई देशों की संस्कृति, पहचान, भाषा, खान-पान, पहनावे के बीच तैरते रहे. लेकिन बकौल फ्रांसिस, ‘मेरे अंदर पहचान को लेकर कोई द्वंद नहीं रहा. मैं दो संस्कृतियों के बीच में बैठा हूं और देखने वाले को यह तकलीफदेह लग सकता है लेकिन मुझे इस तरह जीने में बहुत मजा आता है.’ उनका भारतीय नागरिकता लेने का अनुभव भी कम रोचक नहीं है. उन्होंने 1984 में भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन दिया था और छह साल बाद 1990 में फ्रांसिस को यहां नागरिकता मिली. उस साल 31 दिसंबर की शाम को उन्होंने संविधान की शपथ ली और उसके अगले दिन नए साल वे भारतीय नागरिक बन गए. पिछले 21 साल से भारत में वोट कर रहे फ्रांसिस के लिए भारतीय नागरिकता लेने का फैसला व्यवहारिक या बिजनेस से जुड़ा न होकर भावनात्मक ज्यादा था. उनका कहना था, ‘मैं बहुत गहराई तक भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ हूं. काफी लंबे अरसे से मैं यहां रह रहा हूं. मेरे साथ अक्सर होता है कि विदेश से भारत लौटने पर जब मैं एयरपोर्ट पर भारतीय नागरिकों वाली कतार में खड़ा होता हूं तो लोग मुझे टोकते हैं कि मैं गलत कतार में हूं. तब मैं उन्हें बताता हूं कि नहीं, मैं सही जगह खड़ा हूं. और ऐसा करते वक्त मुझे बहुत खुशी होती है.’