कितने कमलेश्वर!

‘तो क्या हुआ अब तो तुम्हारे पास अपनी गाड़ी है, ड्राइवर है मैं उसे सब समझा दूंगा.’ यानी मेरी सारी जानकारी थी उनके पास.

और सचमुच एक दिन मैं उनके यहां पहुंच भी गई. इतने प्रेम से मिले कि मन की सारी कड़वाहट, दूरियां सब उसी में बिला गईं. उन्होंने भूमिका सुनाई. कहानियों के आधार पर प्रेम की मेरी अवधारणा का प्रशंसात्मक विश्लेषण कर रखा था. मैं बिगड़ पड़ी कि इतनी प्रशंसा के लायक तो न ये कहानियां हैं, न मेरी अवधारणा. जवाब में मुझे झिड़कते हुए कहा, ‘मन्नू, तुम अपने को और अपनी कहानियों को इतना अंडरएस्टिमेट क्यों करती हो?’ खैर, इस पर मुझे बात करनी ही नहीं थी. सामने दवाइयां देखकर मैंने जरूर उनकी तबीयत के बारे में पूछा. फिर इधर-उधर की बातें होने लगीं तो याद नहीं कि किस संदर्भ में जांघों पर हाथ मार-मार कर वे बड़े गर्व से बोले, ‘मन्नू, इसमें कोई शक नहीं कि मैं बहुत औरतों के साथ सोया हूं पर आज तो मेरे लिए जो भी है, मेरी डार्लिंग- मेरी बिलव्ड सब कुछ मेरी गायत्री ही है.’ सामने बैठी भाभी तो सुनकर गदगद निहाल जैसे उन्हें अपना चिर आकांक्षित प्राप्य मिल गया हो. कमलेश्वर जी के पुराने अपमानजनक व्यवहार की न कोई कचोट न दंश. मेरा मन तो हुआ कहूं अब इस उमर में, जब-तब बीमारी की हालत में सेवा तो गायत्री ही करती है सो आज तो वह सब कुछ होगी ही पर कहा नहीं, क्योंकि मेरा यह कहना भाभी को बुरा लगता. मैं जिस प्रसंग से बचना चाह रही थी आखिर वह आ ही गया. उन्होंने पूछा, ‘ये तो पुरानी कहानियां थीं नया क्या लिख रही हो?’ मेरी सबसे दुखती रग. बताना पड़ा कि न्यूरोलाजिया की वजह से मेरा तो लिखना-पढ़ना अब बंद. तो फटकारते हुए बोले, ‘देखो, बीमारी-शीमारी तो चलती ही रहती है, उससे लिखना बंद किया जाता है क्या? अब तबीयत तो मेरी भी नरम-गरम हो जाती है कभी-कभी पर समझ लो कि लिखना ही दवाई है मेरी तो’

ठीक ही कहा था उन्होंने. इधर-उधर अखबारों में कॉलम्स के अलावा उनकी आत्मकथा के तीनों भाग आ चुके थे अब तक. मैंने उनमें से किसी को भी नहीं पढ़ा था. हां, इतना जरूर सुना था कि उसमें इन्होंने अपनी प्रेम कथाओं के बारे में भी सब कुछ लिखा है- कितना सच और कितना झूठ पढ़कर ही बता सकती थी क्योंकि पूरा सच कमलेश्वर जी कभी बोल ही नहीं सकते थे. पर इस प्रसंग पर मैं चुप ही रही तो फिर वे ही आदेश देते बोले, ‘लिखना बिल्कुल बंद नहीं करोगी मन्नू… और जो लिखा, इतना अच्छा लिखा… आगे उससे भी अच्छा लिखना है.’ प्रशंसा में लिपटा यह प्रोत्साहन… इसमें कोई संदेह नहीं कि उस समय मुझे जरूरत थी इस की ! तभी भीतर से खाने के लिए पुकार आई. आश्चर्य कि इतने समय बाद भी भाभी को मेरी पसंद की सब्जी याद थी और उन्होंने वही बनवा रखी थी…उसके साथ और भी बहुत कुछ था. प्रेम-सनी बातों के बीच खाना भी चलता रहा… उनकी मनुहार भी चलती रही. खाने के बाद जब मैं चलने लगी तो उनका आग्रह… शायद अंतिम आग्रह कि मन्नू, इसी तरह कभी-कभी आ जाया करो, कितना अच्छा लगा आज मिलकर.

जैसे ही गाड़ी स्टार्ट हुई मैं समझ ही नहीं पाई कि मैं किस कमलेश्वर पर विश्वास करूं. स्नेह, अपनत्व से भरे आज के कमलेश्वर पर या उस दिन फोन पर गरियाते, फटकारते कमलेश्वर पर? रास्ता लंबा था, उस दौरान आंखों के सामने पहली मुलाकात से लेकर अब तक के कमलेश्वर के देखे-सुने कितने ही रूप तैर गए. एक-दूसरे से कितने अलग… कितने भिन्न! लौटकर दूसरे दिन मैंने फोन किया. भाभी से भी बात की पर आश्चर्य कि उसके बाद सब बंद. जहां तक याद है मैंने तो दो-तीन बार फोन किया था पर केवल भाभी से ही बात हुई. कभी वे बाहर गए थे… कभी कमरा बंद करके लेटे थे. मुझे लगा वे शायद लिखने में व्यस्त हो गए थे और मैं फिर अपनी बीमारी से त्रस्त रही!

कुछ साल बाद उनकी व्यस्तता उनके चर्चित उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ के रूप में बाहर आई. साहित्य अकादेमी द्वारा वह  पुरस्कृत भी हुआ और उसकी चर्चा भी काफी हुई पर मैं तो उसे भी नहीं पढ़ पाई. शुरू जरूर किया था पर 50 पृष्ठ से ज्यादा नहीं खींच पाई मैं. अपनी ही असमर्थता होगी. पर उस सिलसिले में भी न तो कभी उन्होंने कोई बात की न ही मैंने.

कुछ साल बाद एक संक्षिप्त सी पर अंतिम मुलाकात और हुई. टिंकू (बिटिया) का नृत्य का कार्यक्रम था. हैरान होकर मैंने देखा कि वे भाभी का हाथ पकड़कर आए पर थोड़ी देर बैठकर जब जाने लगे तो मैं उनके पास गई, ‘तबीयत ठीक नहीं थी तो आप आए क्यों?’ हंसकर बोले, ‘कैसी बात करती हो… बिटिया ने फोन करके खुद बुलाया था…अब टिंकू फोन करे और मैं न आऊं, ऐसा हो सकता है भला? पर ज्यादा बैठना संभव नहीं सो जा रहा हूं.’ और वे चले गए. टिंकू के बुलाने की मुझे कोई जानकारी नहीं थी… मैं तो इसी बात पर हैरान कि खराब तबीयत के बावजूद वे इतनी दूर से आए. उस दिन उनका यह स्नेह मुझे भीतर तक भिगो गया. पर यह तो मैं आज तक नहीं समझ पाई कि क्यों तो वे कभी इस तरह जुड़ते थे और क्यों फिर बिना किसी कारण के अपने को अलग कर लेते थे.

उसके कुछ साल बाद टीवी पर ही उनकी मृत्यु का समाचार मिला! धक्का लगा ! इसमें कोई संदेह नहीं कि मित्रता के आरंभिक दिनों की वजह से मेरे मन में एक लगाव तो था ही, जिसे उनकी सारी खुराफात भी शायद पूरी तरह खुरच नहीं पाई थी और आखिरी दो मुलाकातों ने इसे फिर से थोड़ा सा सजीव कर दिया था. मृत्यु के कुछ समय बाद दो-एक पत्रिकाओं ने उन पर लिखने को भी कहा था पर तब मैंने नहीं लिखा. इतने दिनों बाद आज पूरी तरह तटस्थ होकर, जिस तरह मैं उनकी खूबियों और खामियों का बखान कर सकती हूं… शायद तब नहीं कर पाती. कर भी देती तो शायद कोई छापता नहीं क्योंकि हमारे यहां मरते ही लेखक को महान घोषित करने की परंपरा जो है. यह भी जानती हूं कि भाभी को भी बिल्कुल बरदाश्त नहीं होगा कि कोई कमलेश्वर जी के खिलाफ एक शब्द भी बोले या लिखे सो उनसे भी क्षमा-याचना के साथ इस लेख को छपने भेज रही हूं.